70-सत्ययुग, त्रेता और द्वापर आदिके गुणधर्म

राजा भद्राश्वने पूछा-मुने! उस दिव्य लोकको देख लेनेके बाद पुनः उसे पानेके लिये आपने कौन-सा व्रत, तप अथवा धर्म किया?

अगस्त्यजी कहते हैं-राजन्! विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह भगवान् श्रीहरिकी भक्तिपूर्वक आराधना छोड़कर अन्य किन्हीं लोकोंकी कामना न करे; क्योंकि परम प्रभुकी आराधनासे सभी लोक अपने-आप ही सुलभ हो जाते हैं। ऐसा सोचकर मैंने उन सनातन श्रीहरिकी आराधना आरम्भ कर दी और प्रचुर दक्षिणा देकर अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान करता हुआ सौ वर्षोंतक मैं उनकी आराधनामें संलग्न रहा। नृपनन्दन! एक समयकी बात हैदेवाधिदेव यज्ञमूर्ति भगवान् जनार्दनकी इस प्रकार उपासना करते हुए बहुत दिन बीत चुके थे, तब मैंने एक यज्ञमें सभी देवताओंकी आराधना की और इन्द्रसहित सभी देवता एक साथ ही उस यज्ञमें पधारे तथा उन्होंने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। भगवान् शंकर भी पधारे और अपने निश्चित स्थानपर विराजमान हो गये। सम्पूर्ण देवता, ऋषि तथा नागगण भी आ गये। उन्हें आते देखकर सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढ़कर भगवान् सनत्कुमार भी वहाँ पधारे और सिर झुकाकर भगवान् रुद्रको प्रणाम किया। राजेन्द्र! उस समय समस्त देवता, ऋषि, नारद, सनत्कुमार एवं भगवान् रुद्र जब अपने-अपने स्थानपर स्थित होकर बैठ गये, तब उनकी ओर दृष्टि डालकर मैंने यह बात पूछी'आप सभी महानुभावोंमें कौन श्रेष्ठ हैं तथा किनकी (अन)पूजा होनी चाहिये?' मेरे यह पूछनेपर देवसमुदायके सामने ही भगवान् रुद्र मुझसे कहने लगे।

भगवान् रुद्र बोले-समस्त देवताओ, परम पवित्र देवर्षियो, प्रसिद्ध ब्रह्मर्षियो तथा महान् मेधावी अगस्त्यजी! आप सभी लोग मेरी बात सुन लें-'जिनकी यज्ञोंद्वारा पूजा होती है, देवतासहित सम्पूर्ण संसार जिनसे उत्पन्न हुआ है तथा जिनमें लीन भी हो जाता है, वे भगवान् जनार्दन ही सर्वश्रेष्ठ हैं और सभी यज्ञोंद्वारा वे ही आराधित होते हैं। उन परम प्रभुमें सभी ऐश्वर्य विद्यमान हैं। उन्होंने ही अपने तीन प्रकारके रूप धारण कर लिये हैं। जब उनमें सर्वाधिक रजोगुण तथा स्वल्प सत्त्वगुण एवं तमोगुणका समावेश हुआ, तब वे ब्रह्मा नामसे प्रसिद्ध हुए। भगवान् नारायणने अपने नाभिकमलसे इन ब्रह्माकी सृष्टि की है। मुझे भी बनानेवाले वे परम प्रभु नारायण ही हैं। अतः भगवान् श्रीहरि ही सर्व प्रधान हैं। जिनमें सत्त्वगुण और रजोगुणका आधिक्य हुआ और जिन्हें कमलका आसन मिल गया, वे ब्रह्मा कहलाये। जो ब्रह्मा एवं चतुर्मुख कहलाते हैं, वे भी भगवान् नारायण ही हैं। जो स्वल्प सत्त्व एवं रजोगुण और किंचित् अधिक तमोगुणसे युक्त हैं, वह मैं रुद्र हूँ-इसमें कोई संदेहकी बात नहीं है। सत्त्व, रज और तम-ये तीन प्रकारके गुण कहे जाते हैं। सत्त्वगुणके प्रभावसे प्राणीको मुक्ति सुलभ हो जाती है; क्योंकि सत्त्वगुण भगवान् नारायणका स्वरूप है। जब रज और सत्त्वका सम्मिश्रण होता है और रजोगुणकी कुछ अधिकता होती है, तब सृष्टिका कार्य आरम्भ होता है। यह ब्रह्माजीका स्वाभाविक गुण हैयह बात सम्पूर्ण शास्त्रोंमें पढ़ी जाती है। जिसका वेदोंमें उल्लेख नहीं है, वह रौद्रकर्म मनुष्योंके लिये कदापि हितकर नहीं है। उससे लोक तथा परलोकमें भी मनुष्योंकी दुर्गति ही होती है।

सत्त्वका पालन करनेसे प्राणी जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाता है। कारण, सत्त्व भगवान् नारायणका स्वरूप है। वे ही प्रभु यज्ञका स्वरूप धारण कर लेते हैं। सत्ययुगमें भगवान् नारायण शुद्ध (ध्यानादिद्वारा) सूक्ष्मरूपसे सुपूजित होते हैं। त्रेतायुगमें वे यज्ञरूपसे तथा द्वापरयुगमें 'पञ्चरात्र विधिसे की गयी पूजा स्वीकार करते हैं और कलियुगमें तमोगुणी मानव मेरे बनाये हुए अनेक रूपवाले मार्गोंसे मनमें ईर्ष्यासहित उन परमात्मा श्रीहरिकी उपासना करते हैं।

मुनिवर ! उन भगवान् नारायणसे बढ़कर अन्य कोई देवता इस समय न है, न अन्य किसी कालमें होगा। जो विष्णु हैं, वही स्वयं ब्रह्मा हैं और जो ब्रह्मा हैं, वही मैं महेश्वर हूँ। तीनों वेदों, यज्ञों और पण्डितसमाजमें यही बात निर्णीत है। द्विजवर! हम तीनोंमें जो भेदकी कल्पना करता है, वह पापी एवं दुरात्मा है; उसकी दुर्गति होती है। अगस्त्य! इस विषयमें एक प्राचीन वृत्तान्त कहता हूँ, तुम उसे सुनो। कल्पके आरम्भमें लोग भगवान् श्रीहरिकी भक्तिसे विमुख रहे। फिर उन सबका भूलोकमें वास हुआ। वहाँ उन्होंने भगवान् विष्णुकी आराधना की। फलस्वरूप उन्हें भुवर्लोकका वास सुलभ हो गया। फिर उस लोकमें रहकर वे भगवान् केशवकी उपासनामें तत्पर हो गये। इससे उन्हें स्वर्गमें स्थान मिल गया। यों क्रमशः संसारसे मुक्त होकर वे परमधाममें पहुँच गये।

द्विजवर! इस प्रकार जब सभी विरक्त एवं मुक्त होने लगे तो देवताओंने भगवान्का ध्यान किया। सर्वव्यापी होनेके कारण वे प्रभु वहाँ तुरंत ही प्रकट हो गये और बोले-'देवताओ! आप सभी श्रेष्ठ योगी हैं। कहें, मेरे योग्य आपलोगोंका कौन-सा कार्य सामने आ गया ?' तब उन देवताओंने परम प्रभु देवेश्वर श्रीहरिको प्रणामकिया और कहा-'भगवन्! आप हमलोगोंके आराध्यदेव हैं। इस समय सभी मानव मुक्तिपदपर आरूढ़ हो गये हैं। अतः अब सृष्टिका क्रम सुचारुरूपसे कैसे चलेगा? नरकोंमें किसका वास हो?'

देवताओंके ऐसा पूछनेपर भगवान्ने उनसे कहा-'देवताओ! सत्ययुग, त्रेता और द्वापरइन तीन युगोंमें तो बहुत मनुष्य मुझे प्राप्त कर लेंगे। पर कलियुगमें विरले लोग ही मुझे प्राप्त कर सकेंगे; कारण, वेदोंको छोड़कर या वेदविरोधी अन्य शास्त्रोंद्वारा मेरा ज्ञान सम्भव नहीं। मैं वेदोंसे विशेषकर-ब्राह्मणसमुदायद्वारा ही ज्ञेय हूँ। विप्र! मैं, ब्रह्मा और विष्णु-ये तीन प्रधान देवता ही तीनों युग हैं। हम तीनों ही सत्त्व आदि तीनों गुण, तीनों वेद, तीनों अग्नियाँ, तीनों लोक, तीनों सन्ध्याएँ, तीनों वर्ण और तीनों सवन (स्नान) हैं। इस प्रकार तीन प्रकारके बन्धनसे यह जगत् बँधा है। द्विजवर! जो मुझे दूसरा नारायण या दूसरा ब्रह्म जानता है और ब्रह्माको अपर रुद्र मानता है, उसकी समझ ठीक है, क्योंकि गुण एवं बलसे हम तीनों एक हैं। हममें भेद-बुद्धि ही मोह है।'