110- विविध धर्मोंकी उत्पत्ति

 

 

सूतजी कहते हैं-उस समय पृथ्वीकी बात सुनकर भगवान् नारायणने कहा-'जगत्को आश्रय देनेवाली देवि! मैं अब स्वर्गमें सुख देनेवाले साधनोंको तुम्हें बतलाऊँगा। मैं श्रद्धारहित प्राणीके सैकड़ों यज्ञों और हजारों प्रकारके दान आदि धर्मोंसे संतुष्ट नहीं होता और न मैं धनसे ही प्रसन्न होता हूँ। किंतु माधवि! यदि कोई व्यक्ति चित्तको एकाग्र करके श्रद्धापूर्वक मेरा ध्यान-स्मरण करता है, वह चाहे बहुत दोषोंसे युक्त भी क्यों न हो, मैं उसके व्यवहारसे सदा संतुष्ट रहता हूँ। पृथ्वीदेवि! जो अत्यन्त बुद्धिमान् पुरुष मुझे आधी रात, अन्धकारपूर्ण समय, मध्याह्न अथवा अपराह्नके समय निरन्तर नमस्कार करते हैं, मैं उनपर सदा संतुष्ट रहता हूँ। मेरी भक्तिमें व्यवस्थित चित्तवाला भक्त कभी भक्तिसे विचलित नहीं होता। द्वादशी तिथिके दिन मेरी भक्तिमें तत्पर रहकर जो लोग उपवास करते हैं-मेरी भक्तिके परायण वे पुरुष मेरा साक्षात् दर्शन प्राप्त कर लेते हैं। सुन्दरि! जो ज्ञानवान् एवं गुणज्ञ हैं तथा जिनका हृदय भक्तिसे ओतप्रोत है, ऐसे मनुष्य इच्छानुसार स्वर्गमें वास करते हैं। सुमुखि! मुझे पाना बड़ा कठिन है। थोडे प्रयाससे मुझे कोई प्राप्त नहीं कर सकता। माधवि! भक्त जिन कर्मोके फलस्वरूप मेरा दर्शन पाते हैं, अब उन कर्मोका तुमसे वर्णन करता हूँ। जो श्रद्धालु व्यक्ति द्वादशी तिथिके दिन उपवास करते हैं, वे मेरा दर्शन प्राप्त कर लेते हैं। जो उपवास करके हाथमें एक अञ्जलि जल लेकर 'ॐ नमो नारायणाय' कहकर सूर्यकी ओर देखते हुए जलसे उन्हें अर्ध्य प्रदान करते हैं, उनकी अञ्जलिसे जलकी जितनी बूंदें गिरती हैं, उतने हजार वर्षांतक वे स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं।

देवि! जो धर्मात्मा पुरुष द्वादशी तिथिमें विधिके साथ यत्नपूर्वक मेरी उपासना करते हैं तथा श्वेत पुष्पों एवं सुगन्धित धूपसे मेरी अर्चना करते हैं और मन्दिरमें मेरी स्थापनाकर पूजा करते हैं, उन्हें जो गति मिलती है, वह सुनो। वसुंधरे! उज्वल वस्त्र धारणकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक मेरे सिरपर पुष्प-अर्पण करना चाहिये। मन्त्रोंके भाव इस प्रकार हैं-'भगवान् श्रीहरि परम पूज्य एवं मान्य पुरुष हैं, वे पुष्पोंको स्वीकार करें एवं मुझपर प्रसन्न हो जायें। भगवान् विष्णु व्यक्त और अव्यक्त गन्धको स्वीकार करनेवाले हैं। ऐसे भगवान् विष्णुके लिये मेरा बारम्बार नमस्कार है। वे सुगन्धोंको पुनः-पुनः स्वीकार करें। भगवान् अच्युत अपनी शरणमें आये हुए भक्तकी बातको सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं, उन्हें मेरा नमस्कार है। वे जगद्व्याप्त सूक्ष्म गन्ध तथा मेरे द्वारा अर्पित किये हुए धूपको ग्रहण करें।' जो मेरा उपासक शास्त्रोंका श्रवण करके मेरे लिये ही कार्य-सम्पादन करता है, वह मेरे लोकमें जानेका अधिकारी है। वहाँ वह चार भुजावाला होकर शोभा पाता है। देवि | जो मन्त्रोंद्वारा मेरी पूजा करता है, वह मुझे बड़ा प्रिय लगता है, तुम्हारी प्रसन्नताके लिये यह सब उत्तम प्रसङ्ग मैंने तुम्हें कह सुनाया। साँवाँ, सत्तू, गेहूँ, मूंग, धान, यव, तीना और कंगुनी-ये परम पवित्र अन्न हैं। जो मेरे भक्त पुरुष इन्हें खाते हैं, उन्हें शङ्ख, चक्र, हल और मूसल आदिसहित मेरे चतुव्यूह स्वरूपका सदा दर्शन होता है।

वसुंधरे! अब मोक्षकामी ब्राह्मणका कर्म बतलाता हूँ, उसे सुनो। मेरे उपासक ब्राह्मणको अध्यापनादि छ: कर्मों में निरत रहकर अहंकारसे सदा दूर रहना चाहिये। उसे लाभ और हानिकी चिन्ता छोड़ इन्द्रियोंको वशमें रखकर भिक्षाके आहारपर जीवन बिताना चाहिये। उसे सदा मुझसे प्रीतिवाले कर्म करने चाहिये तथा पिशुनता (चुगली) आदिसे सर्वथा दूर रहना चाहिये। शास्त्रानुसरण करे, बालक, युवा और वृद्ध सबके लिये समान धर्म है। वसुंधरे! एकाग्रचित्त होना, इन्द्रियोंको वशमें रखना और इष्टापूर्त ("अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानां चैव साधनम्। आतिथ्यं वैश्वदेवं च इष्टमित्यभिधीयते ॥ वापिकूपतडागानि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमर्थिभ्यः पूर्तमित्यभिधीयते ॥' (मार्कण्डेयपुराण १८।६-७, अत्रिसंहिता ४३-४४ के) इस वचनानुसार अग्निहोत्र, तप, वेदपाठ, अतिथिसत्कार, बलिवैश्वदेव-'इष्टकर्म' तथा कूप-बावली, मन्दिर, तालाबका निर्माण, अन्नदान आदि 'पूर्त' कर्म हैं।) कर्म करना-वेदोक्त यज्ञोंका अनुष्ठान, बगीचा लगाना, कूप-तालाब आदिका निर्माण करना ब्राह्मणका स्वाभाविक गुण होना चाहिये। ऐसा करनेवाला ब्राह्मण मुझे प्राप्त कर लेता है।अब मेरी उपासनामें तत्पर रहनेवाले मध्यम श्रेणीके क्षत्रियके कर्तव्य-धर्मोका वर्णन सुनो। वह दान देनेमें शूर, कर्मकी जानकारी रखनेवाला, यज्ञोंमें परम कुशल, पवित्र क्षत्रिय मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले कर्मों में ज्ञानवान् तथा अहंकारसे शून्य हो। वह थोड़ा बोले, दूसरोंके गुणोंको समझे, भगवान्में सदा प्रीति रखे, विद्यागुरुसे किसी प्रकार मनमें द्वेष न करे तथा कभी कोई निन्दित कर्म न करे। उसे स्वागत-सत्कारादि करने में कुशल तथा कृपणतासे दूर रहना चाहिये। देवि! इन गुणोंसे सम्पन्न क्षत्रिय भी मुझे निःसंदेह प्राप्त कर लेता है।

वसुंधरे! अब मैं अपनी उपासना या भक्तिमें संलग्न रहनेवाले वैश्योंके कर्म बतलाता हूँ। मेरे भक्तिमार्गका नित्य अवलम्बन वैश्यका धर्म है। उसके मनमें धनके प्रति विशेष लोभ, लाभ और हानिके भाव नहीं उठने चाहिये। वह ऋतुकालमें ही अपनी स्त्रीके पास जाय। वह अपने अन्त:करणमें सदा शान्ति-संतोष बनाये रखे। वह मोहमें न पड़े, पवित्र एवं निपुण रहकर व्रतोंके अवसरपर उपवास करे और सदा मेरी उपासनामें रुचि रखे। वह नित्य गुरुकी पूजा करे तथा अपने सेवकोंपर दया रखे। इस प्रकारके लक्षणोंसे सम्पन्न जो वैश्य अपने कर्मोका सम्पादन करता है, उसके लिये न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह कभी मेरे लिये; अर्थात् मेरा और उसका सदा साक्षात् सम्बन्ध बना रहता है।

माधवि! अब मैं शूद्रके उन कर्मोंका वर्णन करता हूँ, जिनका सम्पादन करके वह मुझमें स्थित हो जाता है। जो शूद्र-दम्पति-स्त्री और पुरुष दोनों मेरी उपासना सदा भक्तिभावसे करनेवाले हों, भागवत-मतानुयायी, देश और कालकी जानकारी रखते हों, रजोगुण और तमोगुणके प्रभावसे मुक्त हों, अहंकाररहित, शुद्ध-हृदय, अतिथि-सेवी, विनम्र तथा सबके प्रति श्रद्धालु, अति पवित्र, लोभ और मोहसे दूर और बड़ोंको सदा सादर नमस्कार करनेवाले एवं मेरे स्वरूपका ध्यान करनेवाले हों तो मैं हजारों ऋषियोंको छोड़कर उन्हींपर रीझ जाता हूँ। देवि! तुमने जो चारों वर्गों के कर्म पूछे थे, मैंने उनका वर्णन कर दिया।

देवि! इस प्रकार मेरी उपासनासे सम्बन्ध रखनेवाले गुणोंका, जिसने भक्तिके साथ अनुष्ठान कर लिया, वह मुझे पानेका अधिकारी है। अब क्षत्रियोंके लिये आचरणीय दूसरा कर्म बतलाता हूँ-उसे सुनो। वसुंधरे! यह ऐसा कर्म है, जिसके प्रभावसे उसे 'योग' सुलभ हो जाता है। वह लाभ और हानिका त्यागकर मोह और कामसे अलग होकर, शीत और उष्णमें निर्विकार रहकर, लाभ और हानिकी चिन्ता न करे। तिक्त-कटु-मधुर, खट्टा-नमकीन और कषाय स्वादवाले पदार्थोंकी। भी उसे स्पृहा नहीं करनी चाहिये। उत्तम सिद्धि प्राप्त हो, इसकी भी उसे अभिलाषा नहीं करनी चाहिये। भार्या, पुत्र, माता-पिता-ये सब मुझे सेवाके लिये मिले हैं, वह मनमें ऐसा भाव रखे। पर इनमें भी आसक्ति न रखकर सदा मेरी भक्तिमें ही तत्पर रहे। वह धैर्यवान्, कार्यकुशल, श्रद्धालु एवं व्रतका पालन करनेवाला हो। उत्सुकताके साथ सदा कर्तव्य-कर्ममें तत्पर रहनेवाला, निन्दित कर्मोंसे अलग रहनेवाला और जिसका बचपन, यौवन समानरूपसे धर्ममें बीता हो, जो भोजन थोड़ा करे, कुलीनतासे रहे, सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाला हो, प्रात:काल जगनेवाला, क्षमाशील, पर्वकालमें मौन रहनेवाला और जबतक कर्मकी समाप्ति न हो, तबतक इसे निरन्तर करनेवाला हो, ऐसा क्षत्रिय 'योग' का अधिकारी होता है। निश्चित धर्मके पथपर रहकर अखाद्य वस्तुका त्याग करे, धर्मके अनुष्ठानमें परायण रहे और अपना मन सदा मुझमें लगाये रखे। वह यथासमय मल-मूत्रका त्यागकर स्नान कर ले। पुष्प-चन्दन और धूपको मेरी पूजाकी सामग्री मानकर उनका संग्रह करने में सदा लगा रहे। कभी कन्दमूल और फलसे ही अपने शरीरका निर्वाह करे। कभी दूध, कभी सत्तू और कभी केवल जलके ही आहारपर रहे। कभी छठी साँझ (तीसरे दिन), कभी चौथी साँझ तथा कभी अनुकूल समयमें निर्दोष फल मिल जायें तो उनका आहार कर ले। वसुंधरे! दस दिन, एक पक्ष अथवा एक मासमें जो कुछ स्वतः मिल जाय, उसी आहारपर रह जाय। इस प्रकार जो सात वर्षोंतक मेरी आराधना करता है तथा पूर्वकथित कर्मोंमें जिसकी स्थिति बनी रहती है, ऐसा क्षत्रिय 'योग' का अधिकारी होता है तथा योगी लोग भी उसका दर्शन करने आते हैं।