71-कलियुगका वर्णन

अगस्त्यजी कहते हैं-राजन्! भगवान् रुद्रके ऐसा कहनेपर मैं, सभी देवता लोग तथा ऋषिगण उन प्रभुके चरणोंपर गिर पड़े। राजन्! फिर इतने में ही देखता क्या हूँ कि उनके श्रीविग्रहमें मैं, भगवान् नारायण और कमलासन ब्रह्मा भी स्थित हैं। ये सभी (त्रसरेणुके) समान सूक्ष्मरूपसे रुद्रके शरीरमें विराजमान थे। उनके शरीरकी दीप्ति प्रज्वलित भास्करके समान थी। ऐसी स्थितिमें उन भगवान् रुद्रको देखकर यज्ञके सदस्य एवं ऋषिगण-सभी महान् आश्चर्यमें पड़ गये। सबके मुखसे जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेदका उच्चारण करने लगे। तब उन सभीने परस्पर कहा-'क्या ये रुद्र स्वयं परब्रह्म भगवान् नारायण हैं; क्योंकि एक ही मूर्तिमें ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र-ये तीनों महापुरुष मूर्तिमान् बनकर दर्शन दे रहे हैं।'

भगवान् रुद्रने कहा-क्रान्तदर्शी ऋषियो! इस यज्ञमें तुम्हारे द्वारा मेरे उद्देश्यसे जिस हव्य पदार्थका हवन हुआ है, उस भागको हम तीनों व्यक्तियोंने ग्रहण किया है। मुनिवरो! हम तीनोंमें अनेक प्रकारके भाव नहीं हैं। समीचीन दृष्टिवाले हमें एक ही देखते हैं। विपरीत बुद्धिवाले अनेक समझते हैं।

राजन्! इस प्रकार रुद्रके कहनेपर वे सभी मुनि मोहशास्त्रकी व्यवस्था करनेवाले उन महाभाग (रुद्र)-से पूछनेके लिये उद्यत हो गये।

ऋषियोंने पूछा-भगवन् ! प्राणियोंको मोहमें डालनेके लिये आपके द्वारा जो भिन्न-भिन्न मोहकारक शास्त्र रचे गये हैं-इनका प्रयोजन ही क्या है ? आपने इन्हें बनाया ही क्यों?-यह हमें बतानेकी कृपा करें।

भगवान् रुद्र कहते हैं-ऋषियो! भारतवर्ष में 'दण्डकारण्य' नामका एक वन है। वहाँ गौतम नामक ब्राह्मण महान् कठिन तपस्या कर रहे थे। उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी उनके पास पधारे और उनसे कहा-'तपोधन! वर माँगो।' जब संसारके सृजन करनेवाले ब्रह्माने ऐसा कहा, तब मुनिने प्रार्थना की-'भगवन्! मुझे धान्योंकी ऐसी पति चाहिये, जो सदा फूल एवं फलोंसे सम्पन्न हो।'

इस प्रकार मुनिवर गौतमके माँगनेपर पितामह ब्रह्माने उन्हें इच्छित वर दे दिया। वर पाकर महर्षिने शतशृङ्ग पर्वतपर एक श्रेष्ठ आश्रम बनाया। वहाँ उन्होंने महान् श्रम किया, खेती तैयार हो गयी। क्यारियाँ ऐसी बनी थीं कि प्रतिदिन प्रात:काल नयी-नयी शालियाँ तैयार होतीं। ब्राह्मणवर्ग धान्य लाता। गौतमजी उसीसे मध्याह्नके समय भोजन सिद्ध कर लेते और उससे अतिथिसत्कार एवं ब्राह्मणोंको भोजन कराते थे। एक समयकी बात है-पूरे देशमें घोर अकाल पड़ गया। द्विजवर! बारह वर्षोंतक वर्षा नहीं हुई, जिसके स्मरणमात्रसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसी अनावृष्टि देखकर वनमें निवास करनेवाले सभी मुनि भूखसे पीड़ित हो गौतमजीके पास गये। उस समय अपने यहाँ आये हुए उन मुनियोंको देखकर ऋषिने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और कहा–'महानुभावो! आपलोग सुप्रसिद्ध मुनियोंके पुत्र हैं। आप सभी मेरे स्थानपर पधारिये और आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ।' इस प्रकार गौतमजीके कहनेपर उन मुनियोंने वहाँ अपना स्थान ग्रहण किया। जबतक वर्षा नहीं हुई, तबतक अनेक प्रकारका भोजन करते हुए ठहरे रहे। कुछ समयके बाद अनावृष्टि समाप्त हो गयी। इस प्रकार अवर्षण समाप्त हो जानेपर उन ब्राह्मणोंने तीर्थयात्राके निमित्त जानेका विचार किया। उनके समाजमें शाण्डिल्य नामके एक तपस्वी मुनि थे।

मारीचने पूछा-शाण्डिल्य ! मैं तुमसे बहुत अच्छी बात कहता हूँ। देखो, गौतम मुनि तुम सभीके लिये पिताके स्थानपर हैं। उनसे आज्ञा लिये बिना तपस्या करनेके लिये हमलोगोंका तपोवनमें चलना उचित नहीं है।

मारीच मुनिके इस प्रकार कहनेपर वे सभी हँस पड़े। फिर वे कहने लगे, 'क्या गौतम मुनिका अन्न खाकर हमलोगोंने अपने शरीरको बेच दिया है।' ऐसी बात कहकर उन लोगोंने जानेके लिये फिर छल करनेकी बात सोच ली। उन लोगोंने मायाके द्वारा एक गाय तैयार की। उसको उन्होंने गौतमजीकी यज्ञशालामें छोड़ दिया और वह गाय वहाँ चरने लगी। उसपर गौतम मुनिकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने हाथमें जल ले लिया और कहा-'आप भगवान् रुद्रको प्राणोंके समान प्यारी हैं।' गौतम मुनिके मुँहसे यह बात निकलते तथा पानीके बूंदके टपकते ही वह गाय पृथ्वीपर गिरी और मर गयी। उधर मुनिलोग जानेके लिये तैयार हो गये। यह देखकर बुद्धिमान् गौतमजीने नम्रतापूर्वक खड़े होकर उन मुनियोंसे कहा-'विप्रो! आप यथाशीघ्र जानेका ठीकठीक कारण बतानेकी कृपा करें। मैं तो विशेषरूपसे आपमें सदा श्रद्धा रखता हूँ। ऐसे मुझ विनीत व्यक्तिको छोड़कर जानेका क्या कारण है?'

ऋषियोंने कहा-'ब्रह्मन् ! इस समय आपके शरीरमें यह गोहत्या निवास कर रही है। मुनिवर! जबतक यह रहेगी, तबतक हमलोग आपका अन्न नहीं खा सकते।' उनके ऐसा कहनेपर धर्मज्ञ गौतमजीने उन मुनियोंसे कहा-'तपोधनो! आपलोग मुझे गोवधका प्रायश्चित्त बतानेकी कृपा करें।'

ऋषिगण बोले-'ब्रह्मन्! यह गौ अभी मरी नहीं, बेहोश है। यदि इसपर गङ्गा-जल डाल दिया जाय तो अवश्य उठ जायगी। इसके लिये कर्तव्य है कि आप व्रत करें अथवा क्रोधका त्याग करें।' ऐसा कहकर वे ऋषिलोग वहाँसे चलने लगे। उनके ऐसा कहनेसे बुद्धिमान् गौतमजी आराधना करनेके विचारसे महान् पर्वत हिमालयपर चले गये। उन महान् तपस्वीने तुरंत ही तप आरम्भ कर दिया और सौ वर्षोंतक वे मेरी आराधना करते रहे। तब प्रसन्न होकर मैंने गौतमसे कहा-'सुव्रत ! वर माँगो।' अत: उन्होंने मुझसे कहा-'आपकी जटामें तपस्विनी गङ्गा निवास करती हैं। उन्हें देनेकी कृपा कीजिये। इन पुण्यमयी नदीका नाम गोदावरी है। मेरे साथ चलनेकी ये कृपा करें।'

(अब मुनिवर अगस्त्यजी राजा भद्राश्वसे कहते हैं-राजन्!) इस प्रकार गौतम मुनिके प्रार्थना करनेपर भगवान् शंकरने अपनी जटाका एक भाग उन्हें दे दिया। उसे लेकर मुनि भी उस स्थानके लिये प्रस्थित हो गये, जहाँ वह मृत गाय पड़ी थी। (उसके ऊपर गौतम मुनिने शंकरके दिये हुए जटा-जाह्नवीके जलके छींटे दिये। फिर क्या था-) उस जलसे भीग जानेपर वह सुन्दरी गौ उठकर चली गयी। साथ ही वहाँ उस गङ्गाजलके प्रभावसे पवित्र जलवाली एक विशाल नदीका प्रादुर्भाव हो गया। कुछ लोग उसे पुनीत तालाब कहने लगे। इस महान् आश्चर्यको देखकर परम पवित्र सप्तर्षि वहाँ आ गये। वे सभी विमानपर बैठे थे और उनके मुखसे 'साधुसाधु' की ध्वनि निकल रही थी। साथ ही वे कहने लगे-'गौतम! तुम धन्य हो। अथवा धन्यवादके पात्रोंमें भी तुम्हारे समान अन्य कौन है, जिसके प्रयाससे भगवती गङ्गा इस दण्डकारण्यमें आ सकी हैं।'

(भगवान् रुद्र ऋषियोंसे कहते हैं-) इस प्रकार जब सप्तर्षियोंने कहा, तब गौतमजी बोल पड़े-'अरे, यह क्या? अकारण मुझपर गोवधका कलङ्क कहाँसे आ गया था?' फिर ध्यानपूर्वक देखनेसे उन्हें ज्ञात हो गया कि मेरे यहाँ ठहरे हुए उन ऋषियोंकी मायाका ही यह प्रभाव था, जिससे ऐसा दृश्य उपस्थित हो गया था। अब वे| भलीभाँति विचार करके उन्हें शाप देनेको उद्यत हो गये। मिथ्या व्रतका स्वाँग बनाये हुए वे ऋषिलोग ऐसे थे कि सिरपर जटा थी और ललाटपर भस्म! मुनिने उन्हें यों शाप दिया'तुम लोग तीनों वेदोंसे बहिष्कृत हो जाओगे। तुम्हें वेद-विहित कर्म करनेका अधिकार न होगा।' मुनिवर गौतमजीके कठोर शापको सुनकर सप्तर्षियोंने कहा-'द्विजवर! ऐसा शाप उचित नहीं। वैसे तो आपकी बात व्यर्थ नहीं हो सकती, यह बिलकुल निश्चय है। किंतु इसमें थोड़ा सुधार कर दीजिये। उपकारके बदले अपकार करनेके दोषसे दूषित होनेपर भी आपकी ऐसी कृपा हो कि ये श्रद्धाके पात्र बन सकें। आपके मुँहकी वाणीरूपी अग्निसे दग्ध हुए ये ब्राह्मण कलियुगमें प्रायः क्रिया-हीन एवं वैदिक कर्मसे बहिष्कृत होंगे। यह जो गङ्गा यहाँ आयी हैं, इनका गौण नाम गोदावरी नदी होगा। ब्रह्मन्! जो मनुष्य कलियुगमें इस गोदावरीपर आकर गोदान करेंगे तथा अपनी शक्तिके अनुसार दान देंगे, उन्हें देवताओंके साथ स्वर्गमें आनन्द मिलेगा। जिस समय सिंहराशिपर बृहस्पति जायँगे, उस अवसरपर जो समाहितचित्त होकर गोदावरीमें पहुँचेगा और वहाँ स्नान करके विधिपूर्वक पितरोंका तर्पण करेगा, उसके पितर यदि नरक भोगते होंगे, तब भी स्वर्ग सिधार जायँगे। यदि पहलेसे ही वे पितर स्वर्गमें पहुँचे होंगे तो उनकी मुक्ति हो जायगी, यह बिलकुल निश्चित है। साथ ही गौतमजी! संसारमें आपकी बड़ी ख्याति होगी और अन्तमें आपको सनातन मुक्ति सुलभ हो जायगी।'

इस प्रकार गौतमजीसे कहकर सप्तर्षिगण उस कैलासपर्वतपर चले गये, जहाँ उमाके साथ सदा मैं रहता हूँ। उसी समय उन श्रेष्ठ मुनियोंने कलियुगमें होनेवाले ब्राह्मणोंका वृत्तान्त मुझे बताया। उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि 'प्रभो! वे सभी ब्राह्मण कलियुगमें आपके रूपका अनुकरण करेंगे। उनका सिर जटामय मुकुटसे सम्पन्न होगा। वे अपनी इच्छासे प्रेतका वेष बना लेंगे। मिथ्या चिह्न धारण कर लेना उनका स्वभाव होगा। आपसे मेरी प्रार्थना है, उनपर अनुग्रहकर उन्हें कोई शास्त्र देनेकी कृपा करें। कलिके व्यवहारसे इन्हें पीड़ा होगी, उस समय भी इनका निर्वाह करना आवश्यक है।'

द्विजवर अगस्त्यजी! यह बहुत पहलेकी बात है-सप्तर्षियोंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर वैदिक क्रियासे मिलती-जुलती संहिता मैंने बना दी। मेरे श्वाससे निकलनेके कारण वह शिवसंहिताके नामसे विख्यात होगी। मेरे और शाण्डिल्यशास्त्रके अनुयायी उसमें अवगाहन करेंगे। बहुत थोड़े अपराधसे ही वे दाम्भिक स्थितिमें पहुँच गये हैं, मैं भविष्यकी बात जानता हूँ। अतएव मेरे ही प्रयाससे मोहित होकर वे ब्राह्मण महान् लालची हो जायँगे। कलिमें उन मनुष्यों के द्वारा अनेक नये शास्त्रोंकी रचना होगी। प्रमाणसे तो वे हमारी संहिताकी अपेक्षा भी अधिक बढ़ जायेंगे। वह 'पाशुपत' दीक्षा कई प्रकारकी होगी। क्योंकि मैं पशुपति कहलाता हूँ और मुझसे उसका सम्बन्ध है। इस समय प्रचलित जो वेदका मार्ग है, इससे उसका सिद्धान्त अलग है। पवित्रतासे रहित उस रौद्र कर्मको क्षुद्र कर्म जानना चाहिये। जो मनुष्य रुद्रका आश्रय लेकर कलिमें अपनी जीविका चलायेंगे और वेदान्तके सिद्धान्तका मिथ्या प्रचार करेंगे, उनके रग-रगमें स्वार्थ भरा रहेगा। वे मनःकल्पित शास्त्रोंके सम्पादक होंगे। उनके उपास्य रुद्र बड़े ही उग्ररूपधारी हैं-ऐसा जानना चाहिये। मैं उन रुद्रोंमें नहीं हूँ। प्राचीन समयमें जब देवताओंके लिये कार्य उपस्थित हुआ था, तो भैरवका रूप धारण करके ऐसा नाच करनेमें मेरी तत्परता हुई थी। उन क्रूर कर्म करनेवाले रुद्रोंसे मेरा यही सम्बन्ध है। दैत्योंका विनाश करनेकी इच्छासे मेरे द्वारा यह हँसने योग्य घटना घट गयी। उस समय आँखोंसे जो बिन्दुएँ पृथ्वीपर पड़ी, वे भविष्यकालके लिये असंख्य रुद्रके चिह्न (लिङ्ग) बन गयीं। उग्ररूपी रुद्रके उपासकोंमें रुद्रका स्वाभाविक गुण आ जानेसे मांस और मदिरापर उनकी सदा रुचि होगी। वे स्त्रियोंमें आसक्त होंगे, सदा पापकर्मों में उनकी प्रवृत्ति होगी। भूतलपर ऐसे ब्राह्मणोंके होनेका कारण एकमात्र उनपर गौतममुनिका शाप ही है। उनमें भी जो मेरी आज्ञाका अनुसरण तथा सदाचारका पालन करेंगे, वे स्वर्गके अधिकारी होंगे। साथ ही यह भी कहा गया है कि जो संशयवश मुझसे विमुख हो वेदान्तका समर्थक बनेंगे, वे मेरे वंशज दोषके भागी होंगे। उन्हें नीचेके लोक अथवा नरकमें जाना होगा। पहले गौतमजीके वचनरूपी आगसे वे दग्ध तो हुए ही हैं, फिर मेरी आज्ञाका भी उन्होंने अनादर किया है, अत: उन ब्राह्मणोंको नरकमें जाना होगा, इसमें कुछ संदेह नहीं है।

भगवान् रुद्र कहते हैं-इस प्रकार मेरे कहनेपर वे ब्राह्मणकुमार जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। परम तपस्वी गौतमने भी अपने आश्रमका मार्ग पकड़ा। विप्रो! मैंने यह कलिधर्मका लक्षण तुम्हें बता दिया। जो इससे विपरीत मार्गका अनुसरण करता है, उसे पाखण्डी समझना चाहिये।