
भगवान् वराह कहते हैं-"सुमुखि पृथ्वि! अब तुम रुद्रके व्रतकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग सुनो, जिसे जानकर प्राणी पापोंसे मुक्त हो जाता है। जिस समय ब्रह्माजीने पूर्वकालमें रुद्रका सृजन किया, उस समय उन रुद्रकी विभु, पिङ्गाक्ष और फिर तीसरी बार नीललोहित संज्ञा हुई। अव्यक्तजन्मा परमशक्तिशाली ब्रह्माने कौतूहलवश प्रकट होते ही रुद्रको कन्धेपर उठा लिया। उस अवसरपर ब्रह्माका जो जन्म-सिद्ध पाँचवाँ सिर था, उससे आथर्वणमन्त्रका उच्चारण हो रहा था, जो इस प्रकार था
कपालिन् रुद्र बभ्रोऽथ भव कैरात सुव्रत।
पाहि विश्वं विशालाक्ष कुमार वरविक्रम ।
अर्थात् 'हे सुव्रत! कपाली, बभू ,भव, कैरात, विशालाक्ष, कुमार और वरविक्रम-नामधारी रुद्र, आप विश्वकी रक्षा कीजिये।' पृथ्वि! इस मन्त्रके अनुसार ये रुद्रके भविष्यके कर्मसूचक नाम थे। पर 'कपाली' शब्द सुनकर रुद्रको क्रोध आ गया, अतः ब्रह्माजीके उस पाँचवें सिरको उन्होंने अपने बायें हाथके अंगूठेके नखसे काट डाला, पर कटा हुआ वह सिर उनके हाथमें ही चिपक गया। रुद्रने ब्रह्माजीकी शरण ली और बोले।
रुद्रने कहा-उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले भगवन् ! कृपया यह बताइये कि यह कपाल मेरे हाथसे किस प्रकार अलग हो सकेगा तथा इस पापसे मैं कैसे मुक्त होऊँगा?
ब्रह्माजी बोले-रुद्रदेव! तुम नियमपूर्वक कापालिक व्रतका अनुष्ठान करो। इसके आचरण करते रहनेपर जब अनुकूल समय आयेगा, तब स्वयं अपने ही तेजसे तुम इस कपालसे मुक्त हो जाओगे।
अव्यक्त-मूर्ति ब्रह्माजीने जब रुद्रसे इस प्रकार कहा तब महादेव पापनाशक महेन्द्रपर्वतपर चले गये। वहाँ रहकर उन्होंने उस सिरको तीन भागोंमें विभाजित कर दिया। तीन खण्ड हो जानेपर भगवान् रुद्रने उसके बालोंको भी अलगअलग कर हाथमें लिया और उसका यज्ञोपवीत बना लिया। इस प्रकार सात द्वीपोंवाली इस पृथ्वीपर विचरते हुए वे प्रतिदिन तीर्थों में स्नान करते और फिर आगे बढ़ जाते थे। सर्वप्रथम उन्होंने समुद्रमें स्नान किया। इसके बाद गङ्गामें गोता लगाया। फिर वे सरस्वती, गङ्गा-यमुनाका सङ्गम, शतद्गु (सतलज), महानदी, देविका, वितस्ता, चन्द्रभागा, गोमती, सिन्धु, तुङ्गभद्रा, गोदावरी, उत्तरगण्डकी, नेपाल, रुद्रमहालय, दारुवन, केदारवन, भद्रेश्वर होते हुए पवित्र क्षेत्र गयामें पहुँचे। वहाँ फल्गु नदीमें स्नान कर उन्होंने पितरोंका तर्पण किया। इस प्रकार भगवान् रुद्र सारे विश्व-ब्रह्माण्डमें चक्कर लगाते रहे। इस प्रकार उन्हें भ्रमण करते छः वर्ष बीत गये, इसी बीच उनके परिधान, कौपीन और मेखला अलग हो गये। देवि! अब रुद्र नग्न और कापालिकरूपमें हाथमें कपाल लिये प्रत्येक तीर्थमें घूमते रहे, किंतु वह अलग न हुआ। इसके बाद वे दो वर्षोंतक भू-मण्डलके सभी पवित्र तीर्थोंमें पुनः भ्रमण करते रहे। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये। फिर हरिहरक्षेत्रमें जाकर उन्होंने दिव्य नदी गङ्गा एवं देवाङ्गदकुण्डमें स्नानकर भगवान् सोमेश्वरकी विधिवत् पूजा की। फिर वे 'चक्रतीर्थ' में गये और वहाँ स्नानकर 'त्रिजलेश्वर' महादेवकी आराधना की। तत्पश्चात् अयोध्या जाकर वे फिर वाराणसी पहुँचे और गङ्गामें स्नान करने लगे। सुन्दरि! जब वे गङ्गामें स्नान कर रहे थे, उसी क्षण उनके हाथसे कपाल गिर गया। वसुंधरे! तभीसे भूमण्डलपर वाराणसीपुरीमें यह उत्तम तीर्थ 'कपालमोचन' नामसे विख्यात हुआ। वहाँ मनुष्य यदि भक्तिपूर्वक स्नान करता है तो उसकी शुद्धि हो जाती है। अब ब्रह्माजी देवताओंके साथ वहाँ आये और इस प्रकार बोले।
ब्रह्माजीने कहा-विशाल नेत्रोंवाले रुद्र! अब तुम लोकमार्गमें सुव्यवस्थित होओ। हाथमें कपाल होनेसे व्यग्न-चित्त होकर तुम जो भ्रमण करते रहे, इससे तुम्हारा यह व्रत भूमण्डलपर जन-समाजमें 'नग्नकापालिक-व्रत' नामसे विख्यात होगा। तुम जो पर्वतराज हिमालयपर भ्रमण करनेमें व्यस्त रहे, इसलिये देव! वह व्रत 'वाभ्रव्य' नामसे भी प्रसिद्ध होगा। अब इस तीर्थमें जो तुम्हारी शुद्धि हुई है, इसके कारण यह व्रत शुद्ध-शैव होगा और इसमें पापप्रशमन करनेकी शक्ति भरी रहेगी। देवसमुदायने आगे करके तुम्हें जो विधानके साथ पूज्य बनाया है, उस शास्त्रविधानकी सबके लिये व्याख्या करूँगा। इसमें कुछ अन्यथा विचार नहीं है। तुम्हारे द्वारा आचरित यह 'वाभ्रव्यव्रत' एवं 'कापालिक' व्रतका जो आचरण करेगा, वह तुम्हारी कृपासे ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, उस पापसे मुक्त हो जायगा। तुम जो नग्न, कपाली, पिङ्गल-वर्ण और पुनः शुद्ध-शैवव्रत पालन करते रहे, इसके कारण नग्न, कपाल, वाभ्रव्य और शद्ध-शैवके नामसे यह व्रत प्रसिद्ध होगा। तुमने मुझे आगे करके विधिपूर्वक जिन मन्त्रों के द्वारा पूजा की है, वे सम्पूर्ण शास्त्र 'पाशुपतशास्त्र' कहलायेंगे। - अव्यक्तमूर्ति ब्रह्माजी जिस समय रुद्रसे इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय देवताओंने 'जयजयकार' की ध्वनि लगायी। अब महाभाग रुद्र परम संतुष्ट होकर अपने स्थान कैलासपर चले गये। ब्रह्माजी भी देवताओंके साथ श्रेष्ठ स्वर्गलोकमें सिधारे। अन्य देवता भी जैसे आये थे, वैसे ही आकाशमार्गद्वारा अपने स्थानपर चले गये। वसुंधरे! रुद्रके इस माहात्म्यका मैंने वर्णन किया। यह जो रुद्रका चरित्र है, इससे भूमण्डलपर स्थित कोई सम्पत्ति तुलना करनेमें समर्थ नहीं है।