
भगवान् रुद्र कहते हैं-द्विजवरो! मेरुपर्वतके मध्यभागमें कर्णिकाका मूल है। उसका परिमाण एक सहस्त्र योजन है। अड़तालीस हजार योजनकी गोलाईसे शोभा पानेवाले पर्वतराज मेरुका यह मूल भाग है। उसकी मर्यादाके व्यवस्थापक आठों दिशाओंमें आठ सुन्दर पर्वत हैं। जठर और देवकूट नामसे प्रसिद्ध पूर्व दिशामें सीमा निश्चित करनेवाले भी दो पर्वत हैं। मेरुके अग्रभागमें मर्यादाकी रक्षा करनेवाले चार पर्वतोंके आगे चौदह दूसरे पर्वत हैं जो सात द्वीपवाली पृथ्वीको अचल रखने में सहायक हैं। अनुमानतः उन पर्वतोंकी तिरछी होती हुई ऊपरतककी चौड़ाई दस हजार योजन होगी। इसपर जगह-जगह हरिताल, मैनशिला आदि धातुएँ तथा सुवर्ण एवं मणिमण्डित गुफाएँ हैं; जो इसकी शोभा बढ़ाती हैं। सिद्धोंके अनेक भवन तथा क्रीडास्थानसे सम्पन्न होनेके कारण इसकी प्रभा सदा दीप्त होती रहती है।
मेरुगिरिके पूर्वभागमें मन्दराचल, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें विपुल और पार्श्वभागमें सुपार्श्वपर्वत हैं। उन पर्वतोंके शिखरोंपर चार महान् वृक्ष हैं। अत्यन्त समृद्धिशाली देवता, दैत्य
और अप्सराएँ उनकी सुरक्षामें संनद्ध रहते हैं। मन्दर-गिरिके शिखरपर कदम्ब नामसे प्रसिद्ध एक वृक्ष है। उस कदम्बकी शाखाएँ शिखर-जैसी ऊँची हैं और उसके फूल घड़े-जैसे विशाल हैं, जिनकी गन्ध बड़ी ही हृदयहारी है। वह कदम्ब सभी कालमें विराजमान रहकर शोभा पाता है। यह वृक्ष अपनी गन्धसे दिशाओंको सदा सुगन्धित करता रहता है। इसका नाम 'भद्राश्व' है। वर्षोंकी गणनामें केतुमालवर्षमें इसका प्रादुर्भाव हुआ था। यह विशाल वृक्ष कीर्ति, रूप और शोभासे सम्पन्न है। यहाँ साक्षात् भगवान् नारायण भी सिद्धों एवं देवताओंसे सेवित होकर विराजते हैं। पहले भगवान् श्रीहरिने इस लोकके विषयमें पूछा था और देवताओंने उसके शिखरकी बार-बार प्रशंसा की। इससे सम्पूर्ण मनुष्योंके स्वामी भगवान्ने उस वर्षका अवलोकन किया।
इस मेरुपर्वतके दक्षिण ओर दो बड़े शिखर और हैं। वहाँ फलों, फूलों और महान् शाखाओंसे सुशोभित जम्बू-वृक्षोंका एक वन है। उस वृक्षसमूहसे पुराण-प्रसिद्ध, स्वादिष्ठ, गन्धयुक्त एवं अमृतकी तुलना करनेवाले बहुत-से फल उस पर्वतकी चोटीपर प्रायः गिरते रहते हैं। इन फलोंके रससे उत्पन्न उस महान् श्रेष्ठ पर्वतसे एक विस्तृत नदी बहती है, जिससे अग्निके समान चमकीला जाम्बूनद नामक सुवर्ण बन जाता है। वह अत्यन्त सुन्दर सुवर्ण देवताओंके अनुपम आभूषणोंका काम करता है। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्षराक्षस और गुह्यकगण अमृतकी तुलना करनेवाले इन जम्बू-फलोंसे निकले हुए आसवको प्रसन्नतापूर्वक पीते हैं। इसीलिये दक्षिणके वर्षों में उस वर्षकी 'जम्बूलोक' संज्ञासे प्रसिद्धि है। मानव-समाज इसे ही जम्बूद्वीप भी कहता है।
इस मेरुपर्वतके दक्षिणमें बहुत दूरतक फैला हुआ एक विशाल पीपलका वृक्ष है। उस वृक्षकी ऊँचाई अत्यन्त ऊपरतक फैली हुई है तथा उसकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हैं। वह अनेक प्राणियों तथा श्रेष्ठ गुणोंका आश्रय है, जिसका नाम 'केतुमाल' है। अब इस वृक्षकी विशेषताका वर्णन करता हूँ, सुनो। क्षीरसमुद्रके मन्थनके समय इन्द्रने इस वृक्षको चैत्य मानकर इसकी शाखाको मालाके रूपमें अपने गलेमें धारण कर लिया, तभीसे यह वृक्ष 'केतुमाल' नामसे विख्यात हो गया और इस वर्षकी भी 'केतुमाल' नामसे प्रसिद्धि हुई।
सुपार्श्वनामक पर्वतके उत्तरशृङ्गपर एक महान् वट-वृक्ष है। इस वृक्षकी शाखाएँ बड़ी विशाल हैं, जिनका विस्तार तीन योजनतक है। यह वृक्ष केतुमाल और इलावृतवर्षों की सीमापर है। इसके चारों ओर भाँति-भाँतिकी लम्बी शाखाएँ अलंकारके रूपमें विराजमान हैं तथा यह सिद्धगणोंसे सदा सुसेवित रहता है। ब्रह्माजीके मानस-पुत्र वहाँ प्रायः आते तथा उसकी प्रशंसा करते हैं। वहाँ सात कुरुमहात्मा निवास करते हैं. जिनके नामसे यह 'कुरुवर्ष' प्रसिद्ध है। कुरुवर्षके स्वामी वे सातों महात्मा पुरुष भी स्वर्ग एवं वरुणादि देवलोकोंमें प्रसिद्ध हैं।