
पुरोहित होताजी कहते हैं-राजन्! अब कर्पासमयी धेनुके दानकी विधि बताता हूँ, जिसके प्रभावसे मनुष्य उत्तम इन्द्रलोकको प्राप्त करता है। विषुवयोग, अयनके परिवर्तनका समय, युगादितिथि, ग्रहणके अवसर, ग्रहोंकी पीड़ा दु:स्वप्न-दर्शन तथा अरिष्टकी सम्भावना होनेपर मनुष्योंके लिये यह कर्पासधेनुका दान श्रेयोवह होता है। राजन्! दानके लिये गायके गोबरसे लिपी भूमिपर कुश बिछाकर उसपर तिल बिखेरकर बीचमें वस्त्र और मालासे सुशोभित (कपाससे बनी) धेनुकी स्थापना करनी चाहिये। धूप, दीप
और नैवेद्य आदिसे श्रद्धापूर्वक (मात्सर्यरहित होकर) उसकी पूजा करनी चाहिये। कृपणताका त्यागकर चार भार कपाससे सर्वोत्तम गौकी रचना करे। दो भारसे गौकी रचना करना मध्यम तथा एक भारसे बनी हुई धेनु अधम श्रेणीकी कही गयी है। धनकी कंजूसीका सर्वथा त्याग करना अनिवार्य है। गायके चौथाई भागमें बछड़ेकी कल्पना करके उसका दान करना चाहिये। सोनेका सींग, चाँदीका ख़र, अनेक फलोंके दाँत और रत्नगर्भसे युक्त धेनु होनी चाहिये। श्रद्धाके साथ ऐसी सर्वाङ्गपूर्ण कर्पासमयी धेनु बनाकर उसका मन्त्रोंके द्वारा आह्वान एवं प्रतिष्ठाकर उसे ब्राह्मणको निवेदित कर दे। श्रद्धाके साथ संयमपूर्वक गौको हाथसे स्पर्श करके दान करना चाहिये। पूर्वोक्त विधिका पालन करते हुए मन्त्र पढ़कर दान करे। मन्त्रका भाव इस प्रकार है-'देवि! तुम्हारे अभावमें किसी भी देवताका कार्य नहीं चलता, यदि यह बात सत्य है तो देवि! तुम इस संसारसागरसे मेरी रक्षा करो! मेरा उद्धार करो!'
पुरोहित होताजी कहते हैं-राजन्! अब धान्यमयी धेनुका प्रसङ्ग सुनो, जिससे स्वयं पार्वतीजी भी संतुष्ट हो जाती हैं। विषुवयोग, अयनके परिवर्तनका समय अथवा कार्तिककी पूर्णिमाके शुभ समयमें इस दानका विशेष महत्त्व है। इसके दान करनेसे जैसे राहुसे चन्द्रमाका उद्धार होता है, वैसे ही मनुष्य पापसे छूट जाता है। अब उसी धेनुदानकी उत्तम विधि मैं कहता हैं। राजेन्द्र! दस धेनु-दान करनेसे जो फल मिलता है, वह फल एक धान्यमयी धेनुके दानसे सुलभ हो जाता है। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि पहलेकी भाँति गोबरसे लिपी हुई पवित्र भूमिपर काले मृगका चर्म बिछाकर उसपर इस धान्यधेनुकी स्थापनाकर उसकी पूजा करे। चार दोन, छः मन वजनके अन्नसे बनी हुई धेनु उत्तम और दो दोन, तीन मन अन्नके बनी धेनु मध्यम मानी गयी है। सोनेके सींग, चाँदीके खुर, रत्नगोमेद तथा अगुरु एवं चन्दनसे उस गायकी नासिका, मोतीसे दाँत तथा घी और मधुसे उस गायके मुखकी रचना करे। श्रेष्ठ वृक्षके पत्तोंसे कानकी रचनाकर काँसेका दोहनीपात्र उसके साथमें रखना चाहिये। उसके चरण ईखके और पूँछ रेशमी वस्त्रके बनाये। फिर रत्नोंसे भरे अनेक प्रकारके फलोंको उसके पास रखे। खड़ाऊँ, जूता, छाता, पात्र तथा दर्पण भी वहाँ रखने चाहिये। पहलेके समान सभी अङ्गोंकी कल्पना करे और मधुसे उस गायका सुन्दर मुख बनाये। पुण्यकाल उपस्थित होनेपर पहले-जैसे ही दीपक आदिसे पूजा करनेके पश्चात् सर्वप्रथम स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण करे। फिर तीन बार उस गायकी प्रदक्षिणा करे और दण्डकी भाँति उसके सामने लेटकर उसे साष्टाङ्ग प्रणाम करना चाहिये। तत्पश्चात् ब्राह्मणसे प्रार्थना करे-'ब्राह्मणदेवता! आप महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न, वेद और वेदान्तके पारगामी विद्वान् हैं। द्विजश्रेष्ठ! मेरी दी हुई यह गाय प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करनेकी कृपा कीजिये। इस दानके प्रभावसे देवाधिदेव भगवान् मधुसूदन मुझपर प्रसन्न हो जायें। भगवान् गोविन्दके पास जो लक्ष्मी विराजती हैं, अग्निकी पत्नी स्वाहा इन्द्रकी शची, शिवकी गौरी, ब्रह्माजीकी पत्नी, गायत्री, चन्द्रमाकी ज्योत्स्ना, सूर्यकी प्रभा, बृहस्पतिकी बुद्धि तथा मुनियोंकी जो मेधा है, वे सभी यहाँ धान्यमयी अन्नपूर्णादेवी धेनुरूपमें मेरे पास विराजमान हैं।' इस प्रकार कहकर वह धेनु ब्राह्मणको अर्पण कर दे। इस प्रकार गोदान करनेके बाद दाता व्यक्ति ब्राह्मणकी प्रदक्षिणाकर क्षमा माँगे। राजन्! धन और रत्नोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वीके दानसे अधिक पुण्यफल इस धान्यधेनुके दानसे मिलता है। राजेन्द्र ! इससे मुक्ति और भुक्तिरूप फल सुलभ हो जाते हैं। अतः इसका दान अवश्य करना चाहिये। इस दानके प्रभावसे संसारमें दाताके सौभाग्य, आयु और आरोग्य बढ़ते हैं और मरनेपर सूर्यके समान प्रकाशमान किङ्किणीकी जालियोंसे सुशोभित विमानद्वारा, अप्सराओंसे स्तुति किया जाता हुआ, वह भगवान् शिवके निवासस्थान कैलासको जाता है। जबतक उसे यह दान स्मरण रहता है, तबतक स्वर्गलोकमें उसकी प्रतिष्ठा होती है। फिर स्वर्गसे च्युत होनेपर वह जम्बूद्वीपका राजा होता है। धान्यधेनु'का यह माहात्म्य स्वयं भगवान्द्वारा कथित है। इसे सुनकर मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त एवं परम शुद्ध-विग्रह होकर रुद्रलोकमें पूजा, प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त करता है।
पुरोहित होताजी कहते हैं-राजन्! अब परमोत्तम कपिला गौका वर्णन करता हूँ, जिसके दान करनेसे मनुष्य उत्तम विष्णुलोकको प्राप्त होता है। पूर्वनिर्दिष्ट विधिके अनुसार बछड़ेसहित समस्त अलंकारोंसे अलंकृत तथा रत्रोंसे विभूषितकर कपिला-धेनुका दान करना चाहिये। (भगवान् वराह पृथ्वीसे कहते हैं-) भामिनि! कपिला गायके सिर और ग्रीवामें सम्पूर्ण तीर्थ निवास करते हैं। जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर कपिला गौके गले एवं मस्तकसे गिरे हुए जलको प्रेमपूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करता है, वह पवित्र हो जाता है और उसी क्षण उसके पाप भस्म हो जाते हैं। प्रातःकाल उठकर जिसने कपिला गौकी प्रदक्षिणा की, उसने मानो सम्पूर्ण पृथ्वीकी प्रदक्षिणा कर ली और उसके दस जन्मके किये हुए पाप उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं। पवित्र व्रतके आचरण करनेवाले पुरुषको कपिला गौके मूत्रसे स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेवाला मानो गङ्गा आदि सभी तीर्थों में स्नान कर चुका। भक्तिपूर्वक उसके मूत्रसे स्नान करनेपर मनुष्य पवित्र हो जाता है। फिर जो जीवनपर्यन्त स्नान करता है, वह पापसे छूट जाय, इसमें तो संदेह ही क्या? एक मनुष्य जो एक हजार साधारण गौ-दान करता है और दूसरा व्यक्ति जो एक कपिलादान करता है-इन दोनोंका फल समान है। यदि कपिला गौ कहीं मर गयी हो तो उसकी हड्डीकी गन्धको भी मनुष्य जबतक सूंघता है तबतक उसके शरीरमें पुण्य व्याप्त होते रहते हैं। कपिलाके शरीरको खुजलाना और उसकी सेवा करना परम श्रेष्ठ धर्म माना जाता है। भय एवं रोग आदिके अवसरपर इसकी सेवा करनेसे सौ गौके दानके तुल्य पुण्य होता है। जो प्रतिदिन भूखी हुई कपिला गौको एक भी तृण देता है, उसे 'गोमेधयज्ञ' का फल होता है और वह अग्निके समान देदीप्यमान होकर दिव्य विमानोंद्वारा भगवानके लोकको जाता है। सोनेके समान रंगवाली कपिला प्रथम श्रेणीकी है और पिङ्गलवर्णवाली द्वितीय श्रेणीकी। लाल आँखवाली कपिला गौ तीसरी श्रेणीकी कपिला कही जाती है तथा वैडूर्यके समान पिङ्गलवर्णवाली चौथी कपिला है। अनेक वर्णोंवाली कपिला पाँचवीं, कुछ श्वेत और पीले रंगवाली छठी, सफेद एवं पीली आँखवाली सातवीं, काले और पीले रंगसे मिश्रित आठवीं, गुलाबी रंगवाली नवी, पीली पूँछवाली दसवीं और सफेद खुरवाली ग्यारहवीं श्रेणीकी कपिला गौ कही गयी है। इन सम्पूर्ण लक्षणोंसे युक्त तथा अखिल अलंकारोंसे अलंकृत की हुई कपिला गौ भक्त ब्राह्मणको दान करनी चाहिये। इस गौके दान करनेपर भुक्ति और मुक्तिकी प्राप्ति होती है। साथ ही इस गौका दान करनेके प्रभावसे देनेवालेको भगवान् विष्णुका मार्ग सुलभ हो जाता है।