
भगवान् रुद्र कहते हैं- अब पर्वतोंके अन्तर्वर्ती देवस्थलोंका वर्णन करता हूँ। जिस सीतानामक पर्वतका वर्णन पहले आया है, उसके ऊपर देवराज इन्द्रकी क्रीडा-स्थली है। वहाँ उनका पारिजात नामके वृक्षोंका वन है। उसके पास ही पूर्व दिशामें 'कुञ्जर' नामक प्रसिद्ध पर्वत है, जिसके ऊपर दानवोंके आठ नगर हैं। इसी प्रकार 'वज्रपर्वत' पर राक्षसोंकी पुरियाँ हैं। उनके निवासी असुर 'नालका' नामसे प्रसिद्ध हैं और वे सभी कामरूपी भी हैं। 'महानील'पर्वतपर पंद्रह सहस्र किन्नरोंके नगर हैं। वहाँ देवदत्त, चन्द्रदत्त आदि पंद्रह गर्वपूर्ण राजा शासन करते हैं ये। पुरियाँ सुवर्णमयी हैं। 'चन्द्रोदय' पर्वतपर बहुत-सी बिलें और नगर हैं और वहाँ सोका निवास है। गरुडके राज्यशासनसे वे सर्प बिलोंमें छिपे रहते हैं। 'अनुराग' नामक पर्वतपर दानवेश्वरोंके रहनेकी व्यवस्था है। वेणुमान् पर्वतपर विद्याधरोंके तीन नगर हैं। उनमें प्रत्येक नगरकी लम्बाई तीन सौ योजन और चौड़ाई सौ योजनकी है। उनमें विद्याधरोंके शासक उलूक, गरुड, रोमश और महावेत्र नियुक्त हैं। कुञ्जर तथा वसुधारपर्वतोपर भगवान् पशुपतिका निवास है। करोड़ों भूतगण यहाँ शंकरकी सेवा करते हैं। वसुधार और रत्नधार-इन दोनों पर्वतोंके ऊपर वसुओं एवं सप्तर्षियोंकी पुरियाँ हैं, जिनकी संख्या पंद्रह है। पर्वतोत्तम एकशृङ्ग पर्वतपर प्रजाओंकी रक्षा करनेवाले चतुर्मुख ब्रह्माजीका निवासस्थान है। 'गज'नामक पर्वतपर महान् भूतसमुदायसे घिरी स्वयं भगवती पार्वती विराजती हैं। पर्वतप्रवर वसुधारपर चौरासी योजनके विस्तारसे मुनियों, सिद्धों और विद्याधरोंका एक श्रेष्ठ नगर है। उसके चारों ओर चहारदीवारी तथा बीचमें तोरण है। युद्ध करने में निपुण, पर्वतनामवाले अनेक गन्धर्व वहाँ निवास करते हैं। उनके राजाका नाम पिंगल है। वे राजाओंके भी राजा हैं। देवता और राक्षस पञ्चकूटपर तथा दानव 'शतशृङ्ग 'पर्वतपर रहते हैं। दानवों और यक्षोंकी पुरियाँ सौकी संख्यामें हैं। 'प्रभेदक पर्वतके पश्चिम भागमें देवताओं, दानवों और सिद्धोंकी पुरियाँ हैं। उस प्रभेदक गिरिके शिखरपर एक बहुत बड़ी शिला है। वहाँ प्रत्येक पर्वतपर चन्द्रमा स्वयं ही आते हैं। उसके पास ही उत्तर दिशामें "त्रिकूट' नामका एक पर्वत है। कभी-कभी ब्रह्माजीका वहाँ निवास होता है। ऐसे ही अग्निदेवका भी वहाँ निवास स्थान है। वहाँ अग्निदेवता मूर्तिमान् होकर रहते हैं और अन्य देवता उनकी उपासना करते हैं। उसके उत्तर 'शृङ्ग पर्वतपर देवताओंके भवन हैं। इसके पूर्वमें भगवान् नारायणका, बीचमें ब्रह्माका तथा पश्चिममें भगवान् शंकरका निवास स्थान है। वहीं यक्ष आदिकोंके बहुत-से नगर हैं। वहाँ तीस योजन विस्तारवाली एक नदी है, जिसका नाम 'नन्दजल' है। उसके उत्तर तटपर 'जातुच्छ' नामक एक ऊँचा पर्वत है। वहाँ सर्पोका राजा, जो नन्द नामसे प्रसिद्ध है, निवास करता है। उसके सौ भयंकर फन हैं। इस प्रकार इन आठ दिव्य पर्वतोंको जानना चाहिये। सोना-चाँदी, रन, वैदूर्य और मैनशिल आदि रंगसे क्रमशः वे पर्वत वर्ण धारण करते हैं। यह पृथ्वी लाख कोटि अर्थात् अगणित पर्वतोंसे पूर्ण है। उनपर सिद्ध और विद्याधरोंके अनेक आलय हैं। इसी प्रकार मेरुपर्वतके पार्श्वभागमें केसर, वलय, आलबाल और सिद्धलोक आदि हैं। यह पृथ्वी कमलकी आकृतिमें सुव्यवस्थित हुई है। सामान्यरूपसे सभी पुराणोंमें इसी क्रमका प्रतिपादन होता है।