
भगवान् रुद्र कहते हैं-विप्रवर! अब मैं जम्बूद्वीपका यथार्थ वर्णन करूँगा। साथ ही समुद्रों
और द्वीपोंकी संख्या एवं विस्तारका भी वर्णन करूँगा। उन सब द्वीपोंमें जितने वर्ष और नदियाँ हैं, उनका तथा पृथ्वी आदिके विस्तारका प्रमाण. सूर्य एवं चन्द्रमाकी पृथक् गतियाँ, सातों द्वीपोंके भीतर वर्तमान हजारों छोटे द्वीपोंके नाम-रूपका वर्णन, जिनसे यह जगत् व्याप्त है, उनकी पूरी संख्या बतानेके लिये तो कोई भी समर्थ नहीं है। फिर भी मैं सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहोंके साथ उन सात द्वीपोंका वर्णन करूँगा, जिनके प्रमाणोंको मनुष्य तर्कद्वारा प्रतिपादन करते हैं। वस्तुतः जो भाव सर्वथा अचिन्त्य हैं, उनको तर्कसे सिद्ध करनेकी चेष्टा नहीं करनी चाहिये। जो वस्तु प्रकृतिसे परे है, वही अचिन्त्यका लक्षण है-उसे अचिन्त्य-स्वरूप समझना चाहिये। अब मैं जम्बूद्वीपके नौ वर्षोंका तथा अनेक योजनोंमें फैले हुए उसके मण्डलोंका यथार्थ वर्णन करता हूँ, तुम उसे सुनो। चारों तरफ फैला हुआ यह जम्बूद्वीप लाख योजनोंका है। अनेक योजनवाले पवित्र बहुत-से जनपद इसकी शोभा बढ़ाते हैं। यह सिद्ध और चारणोंसे व्याप्त है तथा पर्वतोंसे इसकी शोभा अत्यन्त मनोहर जान पड़ती है। अनेक प्रकारकी सुन्दर धातुएँ इसका गौरव बढ़ा रही हैं। शिलाजीतआदिके उत्पन्न होनेसे इसकी महिमा चरम सीमापर पहुँच गयी है। पर्वतीय नदियोंसे चारों तरफ यह चमचमा रहा है। ऐसे विस्तृत एवं श्रीसम्पन्न भूमण्डलवाले जम्बूद्वीपमें नौ वर्ष चारों ओर व्याप्त हैं। यह ऐसा सुन्दर द्वीप है, जहाँ सम्पूर्ण प्राणियोंको प्रकट करनेवाले भगवान् श्रीनारायण विराजते हैं। इसके विस्तारके अनुसार चारों ओर समुद्र हैं तथा पूर्वमें उतने ही लम्बे-चौड़े ये छ: वर्ष पर्वत हैं। इसके पूर्व और पश्चिम-दो तरफ लवणसमुद्र हैं। वहाँ बर्फसे व्याप्त हुआ हिमालय, सुवर्णसे भरा हेमकूट तथा अत्यन्त सुख देनेवाला महान् निषध नामक पर्वत है। चार वर्णवाले सुवर्णयुक्त सुमेरुपर्वतका वर्णन तो मैं पहले ही कर चुका हूँ, जो कमलके समान वर्तुलाकार है। उसके चारों भाग बराबर हैं और वह बहुत ऊँचा है। उसके पार्श्व भागोंमें परमब्रह्म परमात्माकी नाभिसे प्रकट हुए तथा प्रजापति नामसे प्रसिद्ध एवं गुणवान् ब्रह्माजी विराजते हैं। इस जम्बूद्वीपके पूर्व भागमें श्वेतवर्णवाले प्राणी हैं, जो ब्राह्मण हैं। जो दक्षिणकी ओर पीतवर्ण हैं, उन्हें वैश्य माना जाता है। जो पश्चिमकी ओर भृङ्गराजके पत्रकी आभावाले हैं, उनको शूद्र कहा गया है। इस सुमेरुपर्वतके उत्तर भागमें संचय करनेके इच्छुक जो प्राणी हैं तथा जिनका वर्ण लाल है, उन्हें क्षत्रियकी संज्ञा प्राप्त हुई है। इस प्रकार वर्गों की बात कही जाती है। स्वभाव, वर्ण और परिमाणसे इसकी गोलाईका वर्णन हुआ है। इसका शिखर नीलम एवं वैदूर्य मणिके समान है। वह कहीं श्वेत, कहीं शुक्ल और कहीं पीले रंगका है। कहीं वह धतूरेके रंगके समान हरा है और कहीं मोरके पंखकी भाँति चितकबरा। इन
सभी पर्वतोंपर सिद्ध और चारणगण निवास करते हैं। इन पर्वतोंके बीचमें नौ हजार लम्बा-चौड़ा 'विष्कम्भ' नामका पर्वत कहा जाता है। इस महान् सुमेरुपर्वतके मध्य भागमें इलावृत वर्ष है। इसीसे उसका विस्तार चारों ओर फैला हुआ हजार योजन माना जाता है। उसके मध्यमें धूम्ररहित आगकी भाँति प्रकाशमान महामेरु है। सुमेरुकी वेदीके दक्षिणका आधा भाग और उत्तरका आधा भाग उसका (महामेरुका) स्थान माना जाता है। वहाँ जो ये छः वर्ष हैं, उनकी वर्ष-पर्वतकी संज्ञा है। इन सभी वर्षोंके आगे एक योजनका अवकाश है । वर्षों की लम्बाई-चौड़ाईदो-दो हजार योजनकी है। उन्हींके परिमाणसे जम्बूद्वीपका विस्तार कहा जाता है। एक-एक लाख योजन विस्तारवाले नील और निषध नामके दो पर्वत हैं। उनके अतिरिक्त श्वेत, हेमकूट, हिमवान् और शृङ्गवान् नामक पर्वत हैं। जम्बूद्वीपके प्रमाणसे निषधपर्वतका वर्णन किया गया है। हेमकूट निषधसे हीन है, वह उसके बारहवें भागके ही तुल्य है। वह हिमवान् पर्वत पूर्वसे पश्चिमतक फैला हुआ है। द्वीपके मण्डलाकार होनेसे कहीं कम और कहीं अधिक हो जानेकी बात कही जाती है। वर्षों और पर्वतोंके प्रमाण जैसे दक्षिणके कहे जाते हैं, वैसे ही उत्तरमें भी हैं। उनके मध्यमें जो मनुष्योंकी बस्तियाँ हैं, उनके नाम अनुवर्ष हैं । वे वर्ष विषम स्थानवाले पर्वतोंसे घिरे हुए हैं। उन अगम्य वर्षोंको अनेक प्रकारकी नदियोंने घेर रखा है। उन वर्षों में विभिन्न जातिवाले प्राणी निवास करते हैं। ये हिमालयसम्बन्धी वर्ष हैं, जहाँ भरतकी संतान सुशोभित होती है।
हेमकूटपर जो उत्तम वर्ष है, उसे किम्पुरुष कहते हैं। हेमकूटसे आगेके वर्षका नाम निषध और हरिवर्ष है। हरिवर्षसे आगे और हेमकूटके पासके भू-भागको इलावृतवर्ष कहा जाता है। इलावृतके आगेके वर्षों का नाम नील और रम्यक सुना गया है। रम्यकसे आगे श्वेतवर्ष और हिरण्यमयवर्षों की प्रतिष्ठा है। हिरण्यमयवर्षसे आगे शृङ्गवन्त और कुरुवर्षों का अवस्थान है। ये दोनों वर्ष धनुषाकार दक्षिण और उत्तरतक झुके हैंऐसा जानना चाहिये। इलावृतके चारों कोने बराबर हैं। यह प्राय: द्वीपके चतुर्थांश भागमें है। निषधकी वेदीके आधे भागको उत्तर कहा गया है। इनके दक्षिण और उत्तर दिशाओंमें तीन-तीन वर्ष हैं। उन दोनों भागोंके मध्यमें मेरुपर्वत है। उसीको इलावृतवर्ष जानना चाहिये। प्रमाणमें वह चौंतीस हजार योजन बताया गया है। उसके पश्चिम गन्धमादन नामका प्रसिद्ध पर्वत है। ऊँचाई और लम्बाई-चौड़ाईमें प्रायः माल्यवान् पर्वतसे उसकी तुलना होती है। उक्त निषध और गन्धमादन-इन दोनों पर्वतोंके मध्यभागमें सुवर्णमय मेरुपर्वत है। सुमेरुके चारों भागोंमें समुद्रकी खानें हैं। इसके चारों कोण समान स्थितिमें हैं। वहाँ सभी धातुओंकी मेद एवं हड्डियाँ उनके अवतार लेने में सहयोगी नहीं हैं। छ: प्रकारके योगैश्वर्योंके कारण वे विभु कहलाते हैं। सनातन कमलकी उत्पत्तिका निमित्तकारण वे ही हैं। उस कमलपर स्थित चतुर्मुख ब्रह्मा भी उन परब्रह्म परमात्माके ही रूप हैं, कोई अन्य शक्ति नहीं। कमलकी आकृति धारण करनेवाली तथा वनों एवं हृदोंसे सम्पन्न पृथ्वी इन्हीं परब्रह्म परमात्मासे उत्पन्न जिसपर संसार स्थान पाता है, उस कमलके विस्तारका स्पष्ट रूपसे मैंने वर्णन किया। द्विजवरो! अब क्रमशः विभाग करके उनके विशेष गुणोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। सुमेरुपर्वतके पार्श्वभागोंमें पूर्वमें श्वेतपर्वत, दक्षिणमें पीत, पश्चिममें कृष्णवर्ण और उत्तरमें रक्तवर्णका पर्वत है। पर्वतोंका राजा मेरुपर्वत शुक्लवर्णवाला है, उसकी कान्ति प्रचण्ड सूर्यके समान है तथा वह धूमरहित अग्निकी भाँति प्रदीप्त होता रहता है एवं चौरासी हजार योजन ऊँचा है। वह सोलह हजार योजनतक नीचे गया है और सोलह हजार योजन ही उसका पृथ्वीपर विस्तार है। उसकी आकृति शराव (उभरे हुए ढकने)-की भाँति गोल है। इसके शिखरका ऊपरी भाग बत्तीस योजनके विस्तारमें है और छानबे योजनकी दूरीमें चारों तरफ यह फैला है। यह उसके मण्डलका प्रमाण है। वह पर्वत महान् दिव्य ओषधियोंसे सम्पन्न तथा प्रशस्त रूपवाले सम्पूर्ण शोभनीय भवनोंसे आवृत है। इसपर सम्पूर्ण देवता, गन्धर्वो, नागों, राक्षसों तथा अप्सराओंका समुदाय आनन्दका अनुभव करता है। प्राणियोंके सृजन करनेवाले ब्रह्माजीका भव्य भवन भी इसीपर शोभा पाता है। इसके पश्चिममें भद्राश्व, भारत और केतुमाल हैं। उत्तरमें पुण्यवान् कुरुओंसे सुशोभित कुरुवर्ष है। पद्मरूप उस मेरुपर्वतकी कर्णिकाएँ चारों ओर मण्डलाकार फैली हैं। योजनोंके प्रमाणसे मैं उसके दैर्घ्यका विस्तार बताता हूँ, उसके मण्डलकी लम्बाईचौड़ाई हजारों योजनकी है। कमलकी आकृतिवाले उस मेरुपर्वतके केशर-जालोंकी संख्याएँ उनहत्तर कही गयी हैं। वह चौरासी हजार योजन ऊँचा है। वह लम्बाईमें एक लाख योजन और चौड़ाई में अस्सी हजार योजन है। वहाँ चौदह योजनके विस्तारमें चार पर्वत हैं। कमल-पुष्पकी आकृतिवाले उस मेरुपर्वतके भी नीचे चार पंखुड़ियाँ हैं। उनका प्रमाण चौदह हजार योजन है। उस कमलकी सुप्रसिद्ध कर्णिकाओंका तुम्हारे सामने जो मैंने परिचय दिया है, अब संक्षेपसे मैं उसका वर्णन करता हूँ। तुम चित्तको एकाग्र करके सुनो।
द्विजवरो! कमलकी आकृतिवाले उस मेरुपर्वतकी कर्णिकाएँ सैकड़ों मणिमय पत्रोंसे विचित्र रूपसे सुशोभित हो रही हैं। उनकी संख्या एक हजार है। मेरुगिरिमें एक हजार कन्दराएँ हैं। इस पर्वतराजमें वृत्ताकार एवं कमलकर्णिकाओंकी तरह विस्तृत एक लाख पत्ते हैं। उसपर मनोवती नामकी श्रीब्रह्माजीकी रमणीय सभा है और अनेक ब्रह्मर्षि उसके सदस्य हैं। महात्मा, ब्रह्मचारी, विनयी, सुन्दर व्रतोंके पालक, सदाचारी, अतिथिसेवी गृहस्थ, विरक्त और पुण्यवान् योगीपुरुष उस सभाके सभासद हैं। इसमें ही मेरा निवास है। इस सभामण्डलका परिमाण चौदह हजार योजन है। वह रत्न और धातुओंसे सम्पन्न होनेके कारण बड़ा सुन्दर और अद्भुत प्रतीत होता है। उसपर अनगिनत रत्न-मणिमय तोरणयुक्त मन्दिर हैं। ऐसे दिव्य मन्दिरोंसे वह पर्वत चारों तरफसे घिरा है। वहाँ तीस हजार योजन विस्तृत चक्रपाद नामसे विख्यात एक श्रेष्ठ पर्वत है। उस चक्रपाद नामक पर्वतसे दस योजन विस्तारवाली एक नदी, जिसे ऊर्ध्ववाहिनी कहते हैं, अमरावतीपुरीसे आकर उसकी उपत्यकाओंमें प्रवाहित होती है। विप्रवरो! उस नदीकी प्रतिमाके सामने सूर्य एवं चन्द्रमाके ज्योतिपुञ्ज भी फीके पड़ जाते हैं। सायं और प्रात:कालकी संध्याके समय जो उसका सेवन करते हैं, उन्हें ब्रह्माजीकी प्रसन्नता प्राप्त होती है।