118 - वसन्त आदि ऋतुओंमें भगवान्की पूजा करनेकी विधि और माहात्म्य

 

 

भगवान् वराह कहते हैं-वसुंधरे ! फाल्गुन मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन पवित्र होकर शान्त मनसे भगवान् श्रीहरिकी पूजा करनेका विधान है। इस वसन्त ऋतुमें क्रमश: कुछ श्वेत, कुछ पाण्डुरङ्गके जो अत्यन्त प्रशंसनीय गन्धसे युक्त सुन्दर पुष्प हैं, उनके द्वारा प्रसन्न-अन्त:करण होकर मन्त्रद्वारा पूजा करनी चाहिये। सभी वस्तुएँ भगवान्से सम्बन्ध रखनेवाली एवं पवित्र हों। पूजाके पहले 'ॐ नमो नारायणाय' कहकर बादमें यह मन्त्र पढ़े

(* ॐनमोऽस्तु देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधर । नमोऽस्तु ते लोकनाथ प्रवीराय नमोऽस्तु ते ॥) (१२४।५) -जिसका भाव है, 'देवेश्वर! आप ॐकारस्वरूप हैं। शङ्ग, चक्र एवं गदासे आपकी भुजाएँ शोभा पाती हैं। जगत्प्रभो! आप महान् पराक्रमी पुरुष हैं। आपके लिये मेरा बारंबार नमस्कार है। प्रभो! वसन्त-ऋतुमें वृक्ष फूलोंसे लदे हैं। सर्वत्र गन्धयुक्त रस भरा है। अब आप इस पुष्प-युक्त वृक्ष, वन और पर्वतों तथा मुझपर अपनी कृपादृष्टि डालनेकी दया कीजिये।

सुमध्यमे ! जो पुरुष फाल्गुन मासमें इस प्रकार मेरी पूजा करता है, उसे दु:खमय संसारमें आनेका संयोग नहीं प्राप्त होता, अपितु वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। अब तुम जो श्रेष्ठ वैशाख मासके शुक्लपक्षकी द्वादशीके फलकी बात मुझसे पूछ चुकी हो, उसे कहता हूँ, सुनो। शालवृक्ष तथा अन्य भी बहुत-से वृक्ष जब फूलोंसे परिपूर्ण हो जायँ तो साधक उनके फूलोंको हाथमें लेकर मेरी आराधनाके लिये तत्पर हो जाय। उस अवसरपर मेरे प्रह्लाद, नारद आदि भागवतोंको भी पूज्य मानकर पूजा करे। माधवि! ऋषिलोग वेदोंमें कहे हए मन्त्रोंद्वारा सदा मेरी स्तुति करते हैं। अप्सराओंद्वारा गीतों, वाद्यों एवं नृत्योंसे मैं सुपूजित होता रहता हूँ। अलौकिक दिव्य पुरुष मुझ पुराणपुरुषोत्तमका स्तवन करनेमें संलग्न रहते हैं। मैं सम्पूर्ण प्राणियोंका आराध्यदेव एवं सम्पूर्ण लोकोंका स्वामी हूँ। अत: सिद्ध, विद्याधर, किन्नर, यक्षपिशाच, उरग, राक्षस, आदित्य, वसु, रुद्रगण, मरुद्गण, विश्वेदेवता, अश्विनीकुमार, ब्रह्मा, सोम, इन्द्र, अग्नि, नारद-पर्वत, असित-देवल, पुलह, पुलस्त्य, भृगु, अङ्गिरा, मित्रावसु और परावसुये सब-के-सब मेरी स्तुतिमें सदा तत्पर रहते हैं।

उसी समय महान् ओजस्वी देवताओंके मुखसे निकली हुई प्रतिध्वनिको सुनकर भगवान् नारायणने पृथ्वीसे कहा-'महाभागे! देखो! देवसमुदाय वेदध्वनि कर रहा है। उनके मुखसे निकले हुए इस महान् शब्दको क्या तुम नहीं सुन रही हो?' इसपर पृथ्वीने भगवान् नारायणसे कहा-'भगवन्! आप जगत्की सृष्टि करने में परम कुशल हैं। देवतालोग वराहके रूपमें विराजमान आप प्रभुके दर्शनको आकाक्षा करते हैं, क्योंकि वे आपके द्वारा ही बनाये गये हैं।'

इसपर भगवान् नारायणने पृथ्वीको उत्तर दिया-'वसुंधरे! मैं अपने मार्गका अनुसरण

 

करनेवाले उन देवताओंसे पूर्ण परिचित हूँ। एक हजार दिव्य वर्षोंतक मैंने केवल लीलामात्रसे तुम्हें अपने एक दाँतके ऊपर धारण कर रखा है। ब्रह्मासहित आदित्य, वसु एवं रुद्रगण तथा स्कन्द और इन्द्र आदि देवता मुझे देखनेके लिये यहाँ आना चाहते हैं। वसुंधरा अब प्रभुके चरणोंपर गिर गयी। वह कहने लगी-'भगवन्! मैं रसातलमें पहुँच गयी थी। आपने ही मेरा वहाँसे उद्धार किया है। मैं आपकी शरणमें आयी हूँ। आपमें मेरी अचल श्रद्धा है। आप सर्वसमर्थ एवं मेरे लिये परम आश्रय हैं। भगवन् ! मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि कर्मका स्वरूप क्या है? किस कर्मके प्रभावसे आप प्राप्त होते हैं तथा नर-जन्मकी सफलता किसमें है? भगवन्! शेष ऋतुओंमें किन पुष्पोंसे किस प्रकार आपकी पूजा करनेसे अथवा किस कर्मसे आप प्रसन्न होते हैं, उसे भी बतानेकी कृपा कीजिये।

श्रीवराह भगवान् बोले-वसुंधरे! मोक्षमार्गमें अटल रहनेवाले मेरे भक्तोंने जिसका जप किया है, अब मैं उस मन्त्रका वर्णन करता हूँ, सुनो। उसमें ऐसी शक्ति है कि इसके निरन्तर पाठ करनेसे मेरी अवश्य तुष्टि होती है। मन्त्रका भाव यह है'भगवन्! आप सम्पूर्ण मासोंमें मुख्य माधव (वैशाख) मास हैं, अत: 'माधव' नामसे आपकी भी प्रसिद्धि है। वसन्त ऋतुमें चन्दन, रस और पुष्पादिसे अलंकृत आपकी प्रतिष्ठित प्रतिमाका दर्शन करके पुण्य प्राप्त करना चाहिये। जो सातों लोकोंमें शूरवीर और नारायण नामसे प्रसिद्ध हैं, ऐसे आप प्रभुका यज्ञोंमें निरन्तर यजन किया जाता है।' इस प्रकार ग्रीष्म ऋतुमें भी मेरे कथनका पालन करते हुए सम्पूर्ण विधियोंका आचरण करना चाहिये। उस समय भगवान्में श्रद्धा रखनेवाले सम्पूर्ण प्राणियोंको प्रिय आगे कहे जानेवाले मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। मन्त्रका भाव यह है-'भगवन् ! सम्पूर्ण मासोंमें प्रधानरूपसे आप ज्येष्ठ मासका रूप धारण करके शोभा पा रहे हैं। इस ग्रीष्म ऋतुमें विराजमान आप प्रभुका दर्शन करना चाहिये, जिसके फलस्वरूप सारा दुःख दूर हो जाय।'

वरारोहे! इसी प्रकार तुम भी ग्रीष्म ऋतुमें मेरी पूजा करो। इससे प्राणी जन्म और मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता तथा उसे मेरा लोक प्राप्त होता है। वसुंधरे! भूमण्डलपर शाल आदि जितने भी फूलवाले वृक्ष हैं तथा उस समय जितने गन्धपूर्ण उपलब्ध पुष्प हैं, उन सबसे मझ श्रीहरिकी अर्चना करनेकी विधि है। ऐसे ही वर्षा-ऋऋतुके श्रावण आदि मासोंमें भी मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले कर्मोका अनुष्ठान करना चाहिये।

देवि! अब दूसरा वह कर्म तुम्हें बता रहा हूँ, जिसके प्रभावसे संसारसे मुक्ति मिल सकती है। कदम्ब, मुकुल, सरल और अर्जुन आदि देववृक्ष हैं। मेरी प्रतिमाकी स्थापना करके विधिनिर्दिष्ट कर्मके अनुसार इन वृक्षोंके फूलोंसे 'ॐ नमो नारायणाय' कहकर मेरा आदरपूर्वक अर्चन करना चाहिये। फिर प्रार्थना करे-'लोकनाथ! मेघके समान आपकी कान्ति है। आप अपनी महिमामें स्थित हैं। ध्यानमें परायण रहनेवाले आश्रित जन आपके जिस रूपका दर्शन करते हैं, वे इस वर्षा-ऋतुमें योगनिद्रामें अभिरुचि रखनेवाले एवं मेघ-वर्णसे सुशोभित आप प्रभुके दिव्य स्वरूपका दर्शन करें। आषाढ़ मासकी शुक्ल द्वादशी तिथिके दिन इस विधानसे जो पुरुष शान्ति प्रदान करनेवाले मेरे इस पवित्र कर्मका अनुष्ठान करता है, वह जन्म और मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाता है। देवि! ये ऋतुओंके अनुसार उत्तम कर्म हैं, जिनका मैंने तुमसे वर्णन किया है। महाभागे! यह वृत्त सर्वथा गोपनीय है। इसके प्रभावसे मेरे कर्मपरायण रहनेवाले मनुष्य संसारसागरको तर जाते हैं। देवता भी इसे नहीं जानते; क्योंकि मैं भगवान् नारायण यहाँ स्वयं वराहके रूपमें विराजमान हूँ। इस प्रकारके ज्ञानका उन्हें भी अभाव है। यह विषय दीक्षा-हीन, मूर्ख, चुगली करनेवाले, निन्दित शिष्य एवं शास्त्रके अर्थोंमें दोषारोपण करनेवालेसे नहीं कहना चाहिये। गोघाती एवं धूर्तों के बीच भी इसका कथन अनुचित है; क्योंकि उनके मध्य इसको कहनेसे लाभके बदले हानि ही होती है। जो भगवान्में श्रद्धा रखनेवाले हैं तथा जिन्होंने धार्मिक दीक्षा ली है, उनके सामने ही इसकी व्याख्या करनी चाहिये।

 

119 - माया-चक्रका वर्णन तथा मायापुरी (हरिद्वार)-का माहात्म्य

 

 

सूतजी कहते हैं-पवित्र व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाली भगवती वसुंधराने छः ऋतुओंके वैष्णव-कृत्योंका वर्णन सुनकर भगवान् नारायणसे पुनः पूछा-'भगवन्! आपने मङ्गल एवं पवित्रमय जिन विषयोंका वर्णन किया है, जिनकी स्वर्गादि लोकों तथा मेरे भूलोकमें प्रसिद्धि हो चुकी है, वे आपके-वैष्णव-धर्मके कृत्य मेरे मनको आनन्दित कर रहे हैं। माधव! आपके मुखारविन्दसे निकले हुए इन कर्मोंको सुनकर मेरी बुद्धि निर्मल हो गयी। पर मेरे मनमें एक सूक्ष्म कौतूहल उत्पन्न हो गया है। मेरा हित करनेके विचारसे उसे आप बतलानेकी कृपा कीजिये। भगवन् ! आप अपनी जिस मायाका सर्वदा वर्णन किया करते हैं, उसका स्वरूप क्या है तथा उसे 'माया' क्यों कहा जाता है? मैं इसे तथा इसके आन्तरिक रहस्योंको जानना चाहती हूँ।' इसपर मायापति भगवान् नारायण हँसकर बोले-'पृथ्वी देवि! तुम जो मुझसे यह मायाकी बात पूछ रही हो, इसे न पूछने में ही तुम्हारी भलाई है। तुम व्यर्थमें यह कष्ट क्यों मोल लेना चाहती हो? इसे देखनेसे तो तुम्हें कष्ट ही होगा। ब्रह्मासहित रुद्र एवं इन्द्र आदि देवता भी आजतक मुझे तथा मेरी मायाको जाननेमें असफल रहे हैं," फिर तुम्हारी तो बात ही क्या? विशालाक्षि! जब मेघ पानी बरसाते हैं तो जलसे सारा जगत् भर उठता है। पर कभी वही सारा देश फिर शुष्कबंजर बन जाता है। कृष्णपक्षमें चन्द्रदेव क्षीण होते हैं और शुक्लपक्षमें बढ़ते हैं, यह सब मेरी मायाका ही तो प्रभाव है। सुन्दरि! अमावास्याकी रात्रिमें चन्द्रमा दृष्टिगोचर नहीं होते, हेमन्त ऋतुमें कुएँका जल गर्म हो जाता है-विचारकी दृष्टिसे देखें तो यह सब मेरी माया ही है। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतुमें जल ठंडा हो जाता है। पश्चिम दिशामें जाकर सूर्य अस्त हो जाते हैं। पुनः वे प्रातःकाल पूरबमें उदित होते हैं। प्राणियोंके शरीरमें रक्त और शुक्र-इन दोनोंका समावेश रहता है, वस्तुत: यह सब मेरी माया ही तो है। सुन्दरि! प्राणी गर्भमें आता है, उसे वहाँ सुख और दुःखका अनुभव होता है, पुन: उत्पन्न हो जानेपर उसे वह बात भूल जाती है। अपने कर्ममें रचापचा जीव अपने स्वरूपको भूल जाता है, उसकी स्पहा समाप्त हो जाती है, वस्ततः यह सब मेरी मायाका ही प्रताप है। कर्मके प्रभावसे जीव दूसरी जगह पहुँच जाता है। शुक्र और रक्तके संयोगसे जीवधारियोंकी उत्पत्ति होती है, दो भुजाएँ, दो पैर, बहुत-सी अंगुलियाँ, मस्तक, कटि, पीठ, पेट, दाँत, ओंठ, नाक, कान, नेत्र, कपोल, ललाट और जीभ इत्यादिसे संगठित प्राणीकी उत्पत्ति मेरी मायाका ही चमत्कार है। वही प्राणी जब खातापीता है तो जठराग्निके द्वारा उसका पाचन होता है। तत्पश्चात् जीवके शरीरसे वही अधोमार्गसे बाहर निकल जाता है, यह सब मेरी प्रबल मायाकी ही करामात है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इन पाँच विषयोंमें अन्न खानेसे प्रवृत्ति होती है, ये सभी कार्य मेरी मायाकी ही देन है।

देवि! कुछ जल आकाशस्थ बादलोंमें लटके रहते हैं और कुछ जलराशि भूमिपर नदी, सरोवर आदिमें रहती है। पर जिन नदियों आदिमें इस जलकी प्रतिष्ठा है, वे नदियाँ भी कभी बढ़ती और कभी घटती हैं-यह सब मेरी मायाका ही प्रभाव है। वर्षा-ऋतुमें सभी नदियोंमें अथाह जल हो जाता है, बावलियाँ और तालाब जलसे भर जाते हैं, पर ग्रीष्म ऋतुमें वे ही सब सूख जाते हैं, यह सब मेरी मायाका ही तो बल है। मेघ 'लवणसमुद्र से खारा जल लेकर मधुर जलके रूपमें उसे भूलोकमें बरसाते हैं, यह मेरी मायाका ही प्रभाव है। रोगसे दुःखी हुए कितने प्राणी रसायन तथा ओषधियाँ खाते हैं और उस ओषधिके प्रभावसे नीरोग हो जाते हैं, किंतु कभी उसी ओषधिके देनेपर प्राणीकी मृत्यु भी हो जाती है, उस समय मैं ही कालका रूप धारण कर ओषधिकी शक्तिका हरण कर लेता हूँ, यह सब मेरी मायाका ही प्रभाव है। पहले गर्भकी रचना होती है, इसके उपरान्त पुरुष उत्पन्न हो जाता है, फिर युवावस्था होती है, बुढ़ापा भी आ जाता है, जिसमें सभी इन्द्रियोंकी शक्ति समाप्त हो जाती है-यह सब मेरी मायाका बल है। भूमिमें बीज गिराया जाता है और उससे अङ्करकी उत्पत्ति हो जाती है। तत्पश्चात् वह अङ्कर अद्भुत पत्तोंसे सम्पन्न हो जाता है-यह विचित्रता मेरी मायाका ही स्वरूप है। एक ही बीज गिरानेसे वैसे ही अनेक अन्नके दाने निकल जाते हैं, वस्तुत: मैं ही अपनी मायाके सहयोगसे उसमें अमृत शक्तिकी उत्पत्ति कर देता हूँ।

जगत्को विदित है कि गरुड़ मुझ भगवान् विष्णुका वहन करते हैं। वस्तुतः मैं ही स्वयं गरुड़ बनकर वेगसे अपने-आपको वहन करता हूँ। जितने देवता जो यज्ञका भाग पाकर संतुष्ट होते हैं, उस अवसरपर मैं ही अपनी इस मायाका सृजनकर उन अखिल देवताओंको तृप्त करता हूँ, किंतु सभी प्राणी यही जानते हैं कि ये देवता ही सदा यज्ञका भाग ग्रहण करते हैं। पर वस्तुत: मैं ही मायाकी रचना कर देवताओंके लिये यज्ञ कराता हूँ।बृहस्पतिजी यज्ञ कराते हैं-यह जानकर संसारमें सभी लोग उनकी सेवा करते हैं। पर आङ्गिरसी मायाका सृजन करना और देवताओंके लिये यज्ञकी व्यवस्था करना मेरा ही काम है। सम्पूर्ण संसार जानता है कि वरुण देवताकी कृपासे समुद्रकी रक्षा होती है, किंतु वरुणसे सम्बन्ध रखनेवाली इस मायाका निर्माण कर मैं ही महान् समुद्रकी रक्षा करता हूँ। सारा विश्व यही जानता है कि कुबेरजी धनाध्यक्ष हैं। परंतु रहस्य यह है कि मैं ही मायाका आश्रय लेकर कुबेरके भी धनकी रक्षा करता हूँ। 'इन्द्रने ही वृत्रासुरको मारा था,' इस प्रकारकी बात संसार जानता है, किंतु वज्रसे वस्तुत: मैंने ही उसे मारा था। सूर्य, ध्रुव आदि तपते हैं-ऐसी बात सर्वविदित है किंतु तथ्य यह है कि इनमें मेरा ही तेज है। संसारमें लोग कहते हैं, अरे! जल कहाँ चला गया? पर बात यह है कि बड़वानलका रूप धारणकर सम्पूर्ण जलका शोषण मैं ही करता हूँ। मायासे ओत-प्रोत वायुरूप बनकर मेघोंको संचालित करना मेरा ही कार्य है। अमृतका निवास कहाँ है? इस गहन विषयको देवता भी नहीं जानते हैं, पर तथ्य यह है कि मेरी मायाके शासनसे वह ओषधिमें निवास करता है। संसार जानता है कि राजा ही प्रजाओंकी रक्षा करता है। किंतु तथ्य यह है कि राजाका रूप धारण करके मैं ही स्वयं पृथ्वीका पालन करता हूँ। युगकी समाप्तिके अवसरपर ये जो बारह सूर्य उदित होते हैं, उनमें मैं ही अपनी शक्तिका आधान करके वह कार्य सम्पन्न करता रहता हैं। वसंधरे! संसारमें मायाकी सृष्टि करना मुझपर निर्भर है। देवि! सूर्य अपने किरणसे सम्पूर्ण जगत्में निरन्तर ताप पहुँचाता है। ऐसी स्थितिमें किरणमयी मायाकी सृष्टि करना और सम्पूर्ण संसारमें उसका प्रसारण करना मेरे ही हाथका खेल है। जिस समय संवर्तक मेघ मूसल-जैसी धाराओंसे जल बरसाते हैं, उस अवसरपर मायाका आश्रय लेकर संवर्तक मेघोंद्वारा मैं ही समस्त जगत्को जलसे भर देता हूँ। वरारोहे ! मैं जो शेषनागकी शय्यापर सोता हूँ, यह मेरी मायाका ही पराक्रम है। शेषनागका रूप धारण करना और उनपर शयन करना यह सब एकमात्र मेरी योगमायाका ही कार्य है। वसुंधरे! वाराही मायाका आश्रय लेकर मैंने तुम्हें ऊपर उठाया था-क्या तुम यह भूल गयी?

तुम भी वैष्णवी मायाका लक्ष्य हुई हो, क्या इस बातको नहीं जानती हो। सुश्रोणि! सत्रह बार तो तुम मेरे दाढ़ोंपर नित्य प्रलयकालमें आश्रय पा चुकी हो। उस समय मेरे द्वारा मायाका सृजन हुआ था और तुम 'एकार्णव'-समुद्र में डूब रही थी। मैं मायाके ही योगसे जलमें रहता हूँ। ब्रह्मा और रुद्रका सृजन करना और भरण-पोषण करना मेरी ही मायाका कार्य है। फिर भी मेरी मायासे मोहित. हो जानेके कारण वे मेरी इस मायाको नहीं जानते हैं। पितरोंका समुदाय जो सूर्यके समान तेजस्वी है, वह भी वस्तुतः मैं ही हूँ तथा पितृमयी मायाका आश्रय लेकर पितरोंका रूप धारण कर मैं ही पितृभाग कव्यको ग्रहण करता हूँ। अधिक क्या, एक दूसरी विचित्र बात सुनो, जो एक बार एक (पुरुष) ऋषि भी मायाद्वारा स्त्रीके स्वरूप (योनि)में परिणत (परिवर्तित) कर दिये गये थे।

पृथ्वी बोली-भगवन्! उस ऋषिने कौनसा अपकर्म किया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें स्त्रीकी योनि प्राप्त हुई? इस बातसे तो मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आप यह सारा प्रसङ्ग बतानेकी कृपा कीजिये। उस ब्राह्मणश्रेष्ठने फिर स्त्रीरूप धारण कर कौन-से पापयुक्त कर्म किये, यह सब भी विस्तारसे बतायें। पृथ्वीकी बात सुनकर श्रीभगवान् अत्यन्त प्रसन्न हो गये और मधुर वचनमें कहने लगे, देवि! यह विषय अत्यन्त गूढ और महत्त्वपूर्ण है। सुन्दरि! तुम यह धर्मयुक्त कथा सुनो। देवि! मेरी माया ज्ञान एवं विश्वकी सभी वस्तुओंको आच्छादित किये है, उसकी बात सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस मायाके प्रभावसे सोमशर्मा नामक ऋषि भी प्रभावित हुए थे। इससे वे उत्तम, मध्यम और अधम-अनेक प्रकारको स्थितियोंके चक्करमें घूमते रहे। फिर मेरी मायाकी प्रेरणासे उन्हें पुनः ब्राह्मणत्व सुलभ हुआ। सोमशर्मा उत्तम ब्राह्मण होकर भी स्त्रीकी योनिमें परिवर्तित हो गये, यद्यपि उसमें भी उनके द्वारा कोई विकृत कर्म नहीं हुआ और न कोई अपराध ही किया। वसुंधरे! बात यह है कि वे (सोमशर्मा) सदा मेरी आराधना, उपासनादि कर्मों में ही लगे रहते थे। वे निरन्तर मेरी रमणीय आकृति-मेरे सुन्दर स्वरूपका ही चिन्तन करते रहते। भामिनि! इस प्रकार पर्याप्त समयतक उनकी भक्ति, तपश्चर्या, अनन्यभावसे स्तुति करते रहनेपर मैं उनपर प्रसन्न हुआ। देवि! मैंने उस समय उन्हें अपने स्वरूपका दर्शन कराया और कहा-'ब्राह्मणदेवता! मैं तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट हूँ, तुम मुझसे जो चाहो वर माँग लो। रत्न, सुवर्ण, गौएँ तथा अकण्टक राज्य-जो कुछ तुम्हारे हृदयमें हो माँगो, मैं सब कुछ तुम्हें दे सकता हूँ। अथवा विप्रवर, उस स्वर्गका सुख, जहाँ वाराङ्गनाएँ तथा आनन्दका अनुभव करनेकी अनन्त सामग्रियाँ हैं तथा जो सुवर्णके भाण्डोंसे सुशोभित एवं धन और रत्नोंसे परिपूर्ण है, जहाँ अप्सराएँ दिव्य रूप धारण किये रहती हैं, उसे ही माँग लो। अथवा जो भी इष्ट वस्तु तुम्हारे ध्यानमें आती हो, वह सब मेरे वरसे तुम्हें सुलभ हो सकती है।'

वसुंधरे! उस समय मेरी बात सुनकर उन श्रेष्ठ ब्राह्मणने भूमिपर पड़कर मुझे साष्टाङ्ग प्रणाम किया और मधुर शब्दोंमें कहने लगे-'देव! आप मुझपर यदि रुष्ट न हों तो मैं आपसे जो वर माँग रहा हूँ, वही दीजिये। भगवन् ! आपके द्वारा निर्दिष्ट वरदानों-सुवर्ण, गौएँ, स्त्री, राज्य, ऐश्वर्य एवं अप्सराओंसे सुशोभित स्वर्ग आदिसे माधव! मेरा कोई भी प्रयोजन नहीं है। मैं तो केवल आपकी मायाका-जिसकी सहायतासे आप सारी क्रीडाएँ करते हैं, रहस्य ही जानना चाहता हूँ।'

वसुंधरे! ब्राह्मणकी बात सुनकर मैंने कहा'द्विजवर! मायासे तुम्हारा क्या प्रयोजन है? ब्राह्मणदेव! तुम अनुचित तथा अकार्यकी कामना कर रहे हो।' पर मेरी मायासे प्रेरित होकर उस ब्राह्मणने मुझसे पुनः यही कहा–'भगवन्! आप यदि मेरे किसी कर्म अथवा तपस्यासे तनिक भी संतुष्ट हैं तो मुझे बस वही वर दें (अर्थात् अपनी मायाका ही दर्शन करायें)।'अब मैंने उस तपस्वी ब्राह्मणसे कहा'द्विजवर! तुम 'कुब्जाम्रक'*(*यह 'ऋषिकेश का ही अन्यतम (एक दूसरा) नाम है। इसका वर्णन वराहपु० अ० ५५, १२५-२६, महाभारत 31८४१४०, कूर्मपुराण ३४।३४, ३६।१०, पद्मपुराण, स्वर्गखण्ड २८।४० तथा 'अर्चावतारस्थलवैभवदर्पण' पृ० १०० आदिपर भी है) (-'नन्दलाल दे।)

तीर्थमें जाओ और वहाँ गङ्गामें स्नान करो, इससे तुम्हें मायाका दर्शन होगा।' देवि! मेरी इस बातको सुनकर ब्राह्मणने मेरी प्रदक्षिणा की और दर्शनकी अभिलाषासे वह ऋषिकेश चला गया। वहाँ उसने बड़ी सावधानीसे अपनी कुण्डी, दण्ड और भाण्डको गङ्गातटपर एक ओर रखकर विधिपूर्वक तीर्थकी पूजा की और उसके बाद वह गङ्गामें स्नान करनेके लिये उतरा। वह स्नानार्थ अभी डूबा ही था और उसके अङ्ग बस भींग ही रहे थे कि इतने में देखता है कि वह किसी निषादके घरमें उसकी स्त्रीके गर्भमें प्रविष्ट हो गया है। उस समय गर्भके क्लेशसे जब उसे असह्य वेदना होने लगी तो वह अपने मनमें सोचने लगा-'मेरे द्वारा अवश्य ही कोई बुरा कर्म बन गया है, जिससे मैं इस निषादीके गर्भमें आकर नरक-यातना भोग रहा हूँ। अहो! मेरी तपस्या एवं जीवनको धिक्कार है, जो इस हीन स्त्रीके गर्भ में वास कर रहा हूँ और नौ द्वारों तथा तीन सौ हड्डियोंसे पूर्ण विष्ठा और मूत्रसे सने रक्त-मांसके कीचड़में पड़ा हुआ हूँ। यहाँकी दुर्गन्ध असह्य है तथा कफ, पित्त, वायुसे उत्पन्न रोगों-दुःखोंकी तो कोई गणना ही नहीं। बहुत कहनेसे क्या प्रयोजन? मैं इस गर्भमें महान् दुःख पा रहा हूँ? अरे! देखो तो कहाँ तो वे भगवान् विष्णु, कहाँ मैं और कहाँ वह गङ्गाजीका जल? किसी प्रकार इस गर्भसे मेरा छुटकारा हो जाय तो फिर मैं उसी भक्तिकार्य-गङ्गा-स्नानादिमें लग जाऊँगा।' इस प्रकार सोचते-सोचते वह ब्राह्मण शीघ्र ही निषादीके गर्भसे बाहर आया। पर भूमिपर गिरते ही उसने जो गर्भमें निश्चय किया था, वह सब विस्मृत हो गया। अब वह धन-धान्यसे परिपूर्ण निषादके घरमें एक कन्याके रूपमें रहने लगा। भगवान् विष्णुकी मायासे मुग्ध होनेके कारण पूर्वकी कुछ भी बातें उसे याद न रहीं। इस प्रकार बहुत दिन बीत गये। फिर उस कन्याका विवाह हुआ। मायाके प्रभावसे ही उसके बहुतसे पुत्र और पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। अब कन्यारूपमें वह (ब्राह्मण) सभी भक्ष्य एवं अभक्ष्य वस्तुओंको भी खा लेता तथा पेय एवं अपेय वस्तुएँ भी पी लेता। वह निरन्तर (मत्स्यादि) जीवोंकी हिंसामें निरत रहता तथा कर्तव्याकर्तव्यज्ञानसे भी शून्य हो गया।

वसुंधरे! इस प्रकार जब निषादी स्त्रीरूपमेंरहते उस ब्राह्मणके पचास वर्ष बीत गये, तब मैंने उसे पुनः स्मरण किया। वह (निषादीरूप ब्राह्मण) घड़ा लेकर विष्ठालिप्त वस्त्रोंको धोनेके लिये पुनः गङ्गाके तटपर गया और उसे एक ओर रखकर स्नान करनेके लिये गङ्गाके जलमें प्रविष्ट हुआ। कड़ी धूपसे संतप्त होनेके कारण उसका शरीर पसीनेसे लथपथ-सा हो रहा था। अतः उसकी इच्छा हुई कि सिर डुबाकर स्नान कर लूँ। पर ऐसा करते ही वह तपस्याका धनी (निषादीरूप) ब्राह्मण उसी क्षण पूर्ववत् तपस्वी बन गया। स्नान करके बाहर निकलते ही उसकी दृष्टि पूर्वके रखे हुए दण्ड, कमण्डलु और वस्त्रोंपर पड़ी, जिन्हें देखते ही उसे पहले-जैसा ज्ञान उत्पन्न हो गया। पूर्व समयमें उस ब्राह्मणने जिस प्रकार विष्णुकी माया जाननेकी कामना की थी, वह भी उसे याद हो आयी; गङ्गासे बाहर निकलकर अब उसने अपने वस्त्र पहने और लज्जित होकर वह वहीं पुनः बालुकापर बैठकर योग एवं तपके विषयमें विचार करने लगा और कहने लगा-'अरे! मुझ पापीद्वारा कितने निन्दनीय अकार्य कर्म बन गये।'इस प्रकार उसने अपनेको निन्दनीय मानकर बहुत धिक्कारा और कहने लगा -'साधु पुरुषोंद्वारा निन्दित कर्म करनेवाले मुझको धिक्कार है। मैं सदाचारसे सर्वथा भ्रष्ट हो गया था, जिस कारण मुझे निषादकी योनिमें जाना पड़ा। इस कुलमें उत्पन्न होनेपर मैंने कितने ही भक्ष्य और अभक्ष्य वस्तुओंका सेवन किया और सभी प्रकारके जीवोंका वध किया, अभक्ष्य-भक्षण तथा अपेय वस्तुओंका पान किया और न बेचने योग्य वस्तुओंका विक्रय किया, मुझे वाच्यावाच्यका भी ध्यान न रहा। निषादके सम्पर्कसे मैंने अनेक पुत्रों

और पुत्रियोंकी भी उत्पत्ति की। किस दुष्कर्मके फलस्वरूप मुझे निषादकी पत्नी होना पड़ा, यह भी विचार करने योग्य है।'

वसुंधरे! इधर तो वह ब्राह्मण इस प्रकार यहाँ ऐसा सोच रहा था, उधर निषाद क्रोध एवं दुःखसे पागल हो रहा था। वह उसी समय अपने पुत्रोंसे घिरा अपनी भार्याको खोजता हुआ हरिद्वार पहुँचा और वहाँ प्रत्येक तपस्वीसे अपनी उस स्त्रीके विषयमें पूछने लगा। फिर वह विलाप-सा करता हुआ कहने लगा-'प्रिये! तुम मुझे तथा अपने सभी पुत्रोंको छोड़कर कहाँ चली गयी? अभी दूध पीनेवाली तुम्हारी छोटी बालिका भूखसे व्याकुल होकर रो रही है। फिर वह वहाँ उपस्थित तपस्वियोंसे पूछने लगा'तपस्वियो! मेरी पत्नी जल लेनेके लिये हाथमें घड़ा लेकर गङ्गाके तटपर आयी थी। क्या आपलोगोंने उसे देखा है? उस समय सभी मनुष्य जो हरिद्वारमें आये हुए थे, वे उस तपस्वी ब्राह्मण तथा उसके घड़ेको यथापूर्व उपस्थित देख रहे थे। इसके पश्चात् दुःखसे संतप्त उस निषादने जब अपनी प्रिय भार्याको नहीं देखा तो उसकी दृष्टि वस्त्र और घड़ेपर पड़ी। अब वह अत्यन्त करुण विलाप करने लगा-'अहो! मेरी स्त्रीके ये वस्त्र और घड़ा तो नदीके तटपर ही पड़े हैं, किंतु गङ्गामें स्नान करनेके लिये आयी हुई मेरी पत्नी नहीं दिखायी पड़ रही है। लगता है, जब वह बेचारी दुःखी अबला स्नान कर रही होगी उस समय जिह्वालोलुप किसी ग्राहने उसे पानीमें पकड़ लिया होगा अथवा वह पिशाचों, भूतों या राक्षसोंका आहार बन गयी। प्रिये! मैंने कभी जाग्रत् या स्वप्नमें भी तुमसे कोई अप्रिय बात नहीं कही। लगता है किसी रोगसे वह उन्मत्तसी होकर गङ्गाके तटपर चली आयी थी। पूर्वजन्ममें मैंने कौन-सा पापकर्म किया था, जो मेरे इस महान् संकटका कारण बन गया, जिसके फलस्वरूप मेरी पत्नी मेरे देखते-ही-देखते आँखोंसे ओझल हो गयी और अब उसका कहीं कुछ पता नहीं चल रहा है। फिर वह प्रलापमें कहने लगा-'प्रिये! तुम सदा मेरे चित्तका अनुसरण करती रही हो। सुभगे! मेरे पास आ जाओ। देखो, ये बालक डर गये हैं, इधर-उधर भटक रहे हैं और इन्हें अनाथ-जैसे क्लेशोंका सामना करना पड़ता है। सुन्दरि! तुम मुझे तथा इन तीन नन्हे-नन्हे बालकोंको तो देखो! चारों कन्याएँ और सभी बच्चे बड़ा कष्ट पा रहे हैं, इनपर ध्यान दो। मेरे ये छोटे-छोटे पुत्र तुम्हें पानेके लिये लालायित हो रो रहे हैं। मुझ पापीकी इन संतानोंकी तुम रक्षा करो। मुझे भी क्षुधा सता रही है, मैं प्याससे भी अत्यन्त व्याकुल हूँ। तुम्हें इसका पता होना चाहिये।'

(भगवान् वराह कहते हैं-) कल्याणि! उस समय जो ब्राह्मण स्त्रीका जन्म पाकर निषादकी पत्नी बना था और जो अब मेरी उस मायासे मुक्त होकर बैठा हुआ था, निषादके इस प्रकार कहनेपर लज्जाके साथ उससे कहने लगा-'अब तुम जाओ। तुम्हारी वह भार्या यहाँ नहीं है। वह तुम्हारा सुख और संयोग लेकर चली गयी और अब कभी न लौटेगी।' इधर वह निषाद जहाँ-तहाँ भटककर विलाप ही करता रहा। अब उस ब्राह्मणका हृदय करुणासे भर गया और कहने लगा-'जाओ, अब क्यों इतना कष्ट पा रहे हो। अनेक प्रकारके आहार हैं, उनसे बच्चोंकी रक्षा करना। ये बच्चे दयाके पात्र हैं। तुम कभी भी इनका परित्याग मत करना।' । संन्यासीकी बात सुनकर उनके सामने दुःख एवं शोकसे भरे हुए निषादने उनसे मधुर वाणीमें कहा-'निश्चय ही आप प्रधान मुनिवरोंमें भी श्रेष्ठ एवं धर्मात्माओंमें भी परम धर्मात्मा पुरुष हैं। विप्रवर! तभी तो आपके मीठे वचनोंसे मुझे सान्त्वना मिल गयी। उस समय निषादकी बात सुनकर श्रेष्ठ व्रतका पालन करनेवाले मुनिके मनमें भी दुःख एवं शोक छा गया। उन्होंने मधुर वचनमें कहा-'निषाद! तुम्हारा कल्याण हो। अब विलाप करना बंद करो। मैं ही तो तुम्हारी प्रिय पत्नी बना था। वही मैं यहाँ गङ्गातटपर आया और स्नान करते हुए मैं एक मुनिके रूपमें परिवर्तित हो गया।'

फिर तो संन्यासीकी बात सुनकर निषादकी भी चिन्ताएँ दूर हो गयीं। उसने उन श्रेष्ठ ब्राह्मणसे कहा-'विप्रवर! आप यह क्या कह रहे हैं, आजतक कभी ऐसी घटना नहीं घटी है। अथवा ऐसी घटना तो सर्वथा असम्भव है कि कोई स्त्री होकर पुनः पुरुष हो जाय।' अब दुःखके कारण ब्राह्मणके मनमें भी घबराहट उत्पन्न हो गयी। उस गङ्गाके तटपर ही ब्राह्मणने निषादसे मीठी बात कही-'धीवर! अब यथाशीघ्र इन बालकोंको लेकर अपने देशमें चले जाइये और क्रमानुसार सभी बच्चोंपर यथायोग्य स्नेह रखकर इनकी देखभाल रखिये।'

ब्राह्मणके इस प्रकार कहनेपर भी निषाद वहाँसे नहीं गया, उसने मीठे स्वरमें उनसे पूछा'विप्रवर। आपके द्वारा कौन-सा पाप बन गया था, जिससे आप स्त्री बन गये थे और अब फिर पुरुष हो गये? यह मुझे बतानेकी कृपा करें।' इसपर ऋषिने कहा-'मैं हरिद्वार तीर्थके तटवर्ती क्षेत्रों में भ्रमण करता और एक ही बार भोजन कर जगदीश्वर जनार्दनकी पूजा करता रहता था। उन प्रभुके दर्शनकी आकाङ्क्षासे मैंने बहुत-से उत्तम धर्म-कर्म किये। बहुत समय बीत जानके पश्चात् मुझे भगवान् श्रीहरिने दर्शन दिया और मुझसे वर माँगनेको कहा। मैंने प्रार्थना की-'प्रभो! आप भक्तोंपर कृपा करनेवाले सर्वव्यापक पुरुष हैं। आप मुझे अपनी मायाका दर्शन कराइये।' इसपर भगवान् विष्णुने कहा था-'ब्राह्मणदेव! माया देखनेकी इच्छा छोड़ दो।' किंतु मैंने बारबार उनसे वही आग्रह किया, तब भगवान्ने कहा-'अच्छा, नहीं मानते हो तो 'कुब्जाम्रक' क्षेत्र (ऋषिकेश)-में जाओ। वहाँ गङ्गामें स्नान करनेपर तुम्हें माया दिखलायी पड़ेगी और वे अन्तर्धान हो गये। मैं भी माया-दर्शनकी लालसासे गङ्गातटपर गया और वहाँ अपने दण्ड, कमण्डलु एवं वस्त्रको यत्नसे एक ओर रखकर स्नान करनेके लिये निर्मल जलमें पैठा। इसके बाद मैं कुछ भी न जान सका कि कहाँ क्या है और क्या हो रहा है? तत्पश्चात् मैं किसी मल्लाहिनके उदरसे कन्याके रूपमें उत्पन्न होकर तुम्हारी पत्नी बन गया। वही मैं आज फिर किसी कारण जब गङ्गाके जलमें पैठकर स्नान करने लगा तो पहले-जैसे ही ऋषिके रूपमें परिणत हो गया हूँ। निषाद ! देखो, पहले-जैसे ही यहाँ मेरी कुण्डी और मेरे वस्त्र भी विराजमान हैं। पचास वर्षांतक

मैं तुम्हारे घरमें रह चुका हूँ, परंतु मेरे पास जो दण्ड एवं वस्त्र थे, जिन्हें गङ्गाके तटपर मैंने रखा था, अभी जीर्ण-शीर्ण नहीं हुए हैं और न वे गङ्गाके प्रवाहोंद्वारा प्रवाहित ही हुए हैं। ब्राह्मणके इस प्रकार कहते ही वह निषाद सहसा गायब हो गया। उसके साथ जो बालक थे, वे भी तिरोहित हो गये। देवि! यह देखकर वह ब्राह्मण भी चकित होकर पुनः तपमें संलग्न हो गया। उसने अपनी भुजाओंको ऊपर उठाकर साँसकी गति भी रोक ली और केवल वायुके आहारपर रहने लगा। इस तरह अपराह्न हो गया। इस प्रकार कुछ समय तपस्या कर जब वह जलसे बाहर आया तो श्रद्धापूर्वक पूजाके लिये कुछ पुष्पोंको तोड़कर विधिपूर्वक भगवान्की पूजा करनेके लिये वीरासनसे बैठ गया। अब बहुत-से प्रधान तपस्वी ब्राह्मणोंने जो वहाँ गङ्गामें स्नान करनेके लिये आये थे, उसे घेर लिया और उससे कहने लगे-'द्विजवर! आपने आज पूर्वाह्नमें अपने दण्ड, कमण्डलु और अन्य उपकरण यहाँ रख दिये थे और स्नान कर मल्लाहोंके पास गये थे, फिर क्या आप यह स्थान भूलकर कहीं अन्यत्र चले गये थे? आपके आनेमें इतनी देर कैसे हुई?'

देवि! जब उस मुनिने ब्राह्मणोंकी बात सुनी तो वह मौन हो गया। साथ ही बैठकर वह मनही-मन ब्राह्मणोंद्वारा निर्दिष्ट बातपर सोचने लगा। "एक ओर तो उधर पचास वर्षका समय व्यतीत हो गया है और इधर अमावस्या भी आज ही है। ये सब ब्राह्मण मुझसे कह रहे हैं 'तुमने पूर्वाह्नमें अपने वस्त्रोंको यहाँ स्नानके लिये रखा तो अब अपराह्नमें इन्हें लेने क्यों आये हो? तुम्हें इतनी देर कैसे हो गयी,' यह सब क्या बात है?" देवि! ठीक इसी समय मैंने ब्राह्मणको पुनः अपना रूप दिखलाया और कहा-'ब्राह्मणदेव! आप कुछ घबड़ाये-से क्यों दीखते हैं? क्या आपने कुछ विशेष बात देखी है? आप कुछ मुझे व्यग्न-से दीख रहे हैं। अस्तु ! जो कुछ हो, अब आप पूर्ण सावधान हो जाइये!'

मेरे इस प्रकार कहनेपर उस ब्राह्मणने अपना मस्तक भूमिपर टेक दिया और दु:खी होकर बार-बार दीर्घ श्वास लेता हुआ कहने लगा "जगद्गुरो! ये ब्राह्मण मुझसे कह रहे हैं कि 'तुमने पूर्वाहकी वेलामें वस्त्र, दण्ड और कमण्डल आदि वस्तुएँ यहाँ रखीं और फिर अपराहमें यहाँ आये हो? क्या तुम इस स्थानको भूल गये थे?' माधव! इधर समस्या यह है कि निषादकी योनिमें कन्यारूपसे उत्पन्न होकर मैं एक निषादकी स्त्रीके रूपमें पचास वर्षांतक रहा। उस शरीरसे उस कुकर्मी निषादद्वारा मेरे तीन पुत्र और चार पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। फिर एक दिन जब मैं गङ्गामें स्नान करनेके लिये यहाँ आकर तटपर अपना वस्त्र रखकर निर्मल जलमें स्नान करने लगा और डुबकी लगायी तो पुनः मुझे मुनियोंद्वारा अभिलषित तपस्वीका रूप प्राप्त हो गया। माधव! मैं तो सदा आपकी सेवामें लगा रहता था, किंतु पता नहीं, मेरे किस विकृत कर्मका ऐसा फल हो गया, जिसके परिणामस्वरूप मुझे निषादके यहाँ नरककी यातना भोगनी पड़ी? मैंने तो केवल माया-दर्शनका वर माँगा था, परंतु मेरे ध्यानमें और कोई पाप नहीं आता, जिसके फलस्वरूप आपने मुझे नरकमें गिरा दिया।"

वसुंधरे! उस समय वह ब्राह्मण बड़ी करुणाके साथ ग्लानि प्रकट कर रहा था। इसपर मैंने उससे कहा-"ब्राह्मणश्रेष्ठ! आप चिन्ता न करें। मैंने आपसे पहले ही कहा था कि ब्राह्मणदेवता! आप मुझसे अन्य वर माँग लें; किंतु आपने मुझसे वरके रूपमें माया-दर्शनकी ही याचना की। द्विजवर! आपने वैष्णवी माया देखनेकी इच्छा की थी, उसे ही तो देखा है। विप्रवर! दिन, अपराहू, पचास वर्ष और निषादका घर-तत्त्वत: यह सब कहीं कुछ भी नहीं है। यह सब केवल वैष्णवी मायाका ही प्रभाव है। आपने कोई भी अशुभ कर्म नहीं किया है। आश्चर्यमें पड़कर आप जो पश्चात्ताप कर रहे हैं, वह सब भी मायाके अतिरिक्त कुछ नहीं है। न तुम्हारे द्वारा किया हुआ अर्चन भ्रष्ट हुआ है, न तुम्हारी तपस्या ही नष्ट हुई है। द्विजवर! पूर्वजन्ममें तुमने कुछ ऐसे कर्म अवश्य किये थे, जिसके फलस्वरूप यह परिस्थिति तुम्हें प्राप्त हुई। हाँ! पूर्वजन्ममें तुमने मेरे एक शुद्ध ब्राह्मण भक्तका अभिवादन नहीं किया था। यह उसीका फल है कि तुम्हें इस दुःखपूर्ण प्रारब्धका भोग भोगना पड़ा। मेरे शुद्ध भक्त मेरे ही स्वरूप हैं। ऐसे ब्राह्मणोंको जो लोग प्रणाम करते हैं, वे वस्तुत: मुझे ही प्रणाम करते हैं और वे तत्त्वतः मुझे जान जाते हैं-इसमें कोई संदेह नहीं। जो ब्राह्मण मेरे दर्शनकी अभिलाषा करते हैं, वे ब्राह्मण मेरे भक्त, शुद्धस्वरूप एवं पूज्य हैं। विशेषरूपसे कलियुगमें मैं ब्राह्मणका ही रूप धारण करके रहता हूँ, अतएव जो ब्राह्मणका भक्त है, वह नि:संदेह मेरा ही भक्त है। ब्राह्मण! अब तुम सिद्ध हो चुके हो, अत: अपने स्थानपर पधारो। जिस समय तुम अपने प्राणोंका त्याग करोगे, उस समय तुम मेरे उत्तम स्थानश्वेतद्वीपको प्राप्त करोगे, इसमें कोई संदेह नहीं।" वरारोहे ! इस प्रकार कहकर मैं वहीं अन्तर्धान हो गया और उस ब्राह्मणने फिर कठोर तपस्या आरम्भ की। अन्तमें वह 'मायातीर्थ'** यह 'मायातीर्थ' या 'मायापुरी'-'हरिद्वार' का ही नामान्तर है। में अपना शरीर त्यागकर श्वेतद्वीपमें पहुंचा, जहाँ वह धनुष, बाण, तलबार और तूणीर (तरकस) धारणकर मेरा सारूप्य प्राप्तकर मुझ मायाके आश्रयदातका सदा दर्शन करता रहता है। अत: वसुंधरे! तुम्हें भी इस मायासे क्या प्रयोजन? माया देखनेकी इच्छा करना ठीक नहीं। देवता, दानव और राक्षस भी मेरी मायाका रहस्य नहीं जानते। वसुंधरे! यह 'माया-चक्र' नामक मायाकी आश्चर्यमयी कथा मैंने तुम्हें सुनायी। यह आख्यान पुण्यासे युक्त तथा सुखप्रद है। जो पुरुष भक्तोंके सामने इसकी व्याख्या करता है और भक्तिहीनों तथा शास्त्रोंमें दोषदृष्टि रखनेवालोंसे नहीं कहता, उसकी जगन्में प्रतिष्ठा होती है। देनि! जो व्रती पुरुष इसका प्रातःकाल उठकर पठ करता है, उसने मानो बारह वर्षोंतक तपपूर्वक मेरे सामने इसका पाठ किया। वसुंधरे! इस महान् आख्यानको जो सदा श्रवण करता है, उसकी बुद्धि कभी मायासे लिप्त नहीं होती और न उसे निकृष्ट योनियोंमें ही जाना पड़ता है।