107- कपिला-माहात्म्य, 'उभयतोमुखी' गोदान, हेम-कुम्भदान और पुराणकी प्रशंसा

 

पुरोहित होताजी कहते हैं-महाराज! अब मैं कपिलाके भेद तथा उभयमुखी गोदानका वर्णन करता हूँ, जिसे पूर्वकालमें पृथ्वीके पूछनेपर भगवान् वराहने कहा था।

पृथ्वीने पूछा-प्रभो! आपने जिस कपिला गौकी बात कही है तथा आपके द्वारा जिसका उत्पादन हुआ है, वह हेमधेनु सदा पुण्यमयी है। प्रभो! उसके कितने और क्या लक्षण हैं तथा स्वयम्भू ब्रह्माजीने स्वयं कितने प्रकारकी कपिलाएँ बतलायी हैं? माधव! दान करनेपर यह कपिला गौ किस प्रकारका पुण्य प्रदान कर सकती है? जगद्गुरो! विस्तारपूर्वक यह प्रसङ्ग मैं आपसे सुनना चाहती हूँ।

भगवान् वराह कहते हैं-देवि! यह प्रसङ्गपवित्र एवं पापोंका नाश करनेवाला है। इसे भलीभाँति बतलाता हूँ, सुनो। इसके सुननेमात्रसे ही पुरुष अखिल पापोंसे मुक्त हो जाता है। वरानने! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने सम्पूर्ण तेजोंका सार एकत्रकर यज्ञोंमें अग्निहोत्रकी सम्पन्नताके लिये कपिला गौका निर्माण किया था। वसुंधरे! कपिला गौ पवित्रोंको पवित्र करनेवाली, मङ्गलोंका मङ्गल तथा पुण्योंमें परम पुण्यमयी है। तप इसीका रूप है, व्रतोंमें यह उत्तम व्रत, दानोंमें यह उत्तम दान तथा निधियोंमें यह अक्षय निधि है। पृथ्वीमें गुप्तरूपसे या प्रकटरूपसे जितने पवित्र तीर्थ हैं एवं सम्पूर्ण लोकोंमें ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य प्रभृति द्विजातियोंद्वारा सायंकाल और प्रातःकाल अग्निहोत्र आदि हवनकी जो भी क्रियाएँ

 

 

हैं, वे सभी कपिला गायके घृत, क्षीर तथा दहीसे होती हैं। विधिपूर्वक मन्त्रोंका उच्चारणकर इनमें व्याप्त घृतसे जो हवन करता या अतिथिको पूजा करता है, वह सूर्यके समान प्रकाशमान विमानोंपर चढ़कर सूर्यमण्डलके मध्यभागसे होते हुए विष्णुलोकमें जाता है। अनन्तरूपिणी कपिला धेनुमें सिद्धि और बुद्धि देनेकी पूर्ण योग्यता है। सम्पूर्ण लक्षणोंसे लक्षित जिन कपिला धेनुओंका पहले वर्णन किया गया है, वे सभी महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं। उनकी कृपासे निश्चय ही मानवोंका उद्धार हो जाता है। जिनमें कपिलाके एक भी लक्षण घटित हो, ऐसी स्थितिमें सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली कपिलाधेनुको सर्वोत्तम कहा गया है। ऐसी कपिलाके पुच्छ, मुख और रोम सब अग्निके समान माने जाते हैं। वह अग्निमयी कपिलादेवी 'सुवर्णाख्या' बतायी जाती है। जो ब्राह्मण प्रबल इच्छाके कारण हीन व्यक्तिसे ऐसी कपिलाधेनु दानमें लेकर उसका दूध पीता है तो इस निन्दित कर्मके कारण उस अधम ब्राह्मणको पतितके समान समझना चाहिये। जो ब्राह्मण हीन व्यक्तियोंसे कपिलाका दान लेता है उसके पितर उसी समयसे अपवित्र स्थानमें पड़ जाते हैं। ऐसे ब्राह्मणसे बात भी नहीं करनी चाहिये और एक आसनपर भी नहीं बैठना चाहिये। वसुंधरे! ब्राह्मण-समाज दूरसे ही ऐसे प्रतिग्राही ब्राह्मणका त्याग कर दे। यदि ऐसे प्रतिग्राही ब्राह्मणसे वार्तालाप हो गया या एक आसनपर बैठ गया तो उस बैठनेवाले ब्राह्मणको प्राजापत्य एवं कृच्छ्रव्रत करना चाहिये, तब उसकी शुद्धि होती है। अन्य करोड़ों विस्तृत दानोंकी क्या आवश्यकता? एक कपिला गौका दान ही साधारण हजार गौओंके दानके समान है। श्रोत्रिय, दरिद्र, शद्ध आचारवाले तथा अग्निहोत्री ब्राह्मणको एक भी कपिला गौ देना सर्वोत्तम है।

गृहाश्रमी पुरुषको चाहिये कि दान देनेके लिये जल्दी ही प्रसव करनेवाली धेनुका पालन करे। जिस समय वह कपिला धेनु आधा प्रसव करनेकी स्थितिमें हो जाय, उसी समय उसे ब्राह्मणको दान कर देना चाहिये। जब उत्पन्न होनेवाले बछड़ेका मुख योनिके बाहर दीखने लगे और शेष अङ्ग अभी भीतर ही रहे, अर्थात् अभी पूरे गर्भका उसने मोचन (बाहर) नहीं किया, तबतक वह धेनु सम्पूर्ण पृथ्वीके समान मानी जाती है। वसुंधरे! ऐसी गायका दान करनेवाले पुरुष ब्रह्मवादियोंसे सुपूजित होकर ब्रह्मलोकमें उतने करोड़ वर्षांतक निवास करते हैं, जितनी कि धेनु और बछड़ेके रोमोंकी संख्याएँ होती हैं। सोनेके सींग, चाँदीके खुरसे सम्पन्न करके कपिला गौ ब्राह्मणके हाथमें दे। दान करते समय उस धेनुका पुच्छ ब्राह्मणके हाथपर रख दे। हाथपर जल लेकर शुद्ध वाणीमें ब्राह्मणसे संकल्प पढ़वावे। जो पुरुष इस प्रकार (उभयमुखी गौका) दान करता है, उसने मानो समुद्रसे घिरी हुई पर्वतों और वनोंसे तथा रत्नोंसे परिपूर्ण समूची पृथ्वीका दान कर दिया-इसमें कोई संशय नहीं। ऐसा मनुष्य इस दानसे निश्चय ही पृथ्वी-दानके तुल्य फलका भागी होता है। वह अपने पितरोंके साथ आनन्दित होकर भगवान् विष्णुके परम धाममें पहुँच जाता है। ब्राह्मणका धन छीननेवाला, गोघाती अथवा गर्भपात करनेवाला पापी, दूसरोंको ठगनेवाला, वेदनिन्दक, नास्तिक, ब्राह्मणोंका निन्दक और सत्कर्ममें दोषदृष्टि रखनेवाला महान् पापी समझा जाता है। किंतु ऐसा घोर पापी भी बहुतसे सुवर्णों से युक्त उभयमुखी गौके दानसे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। श्रेष्ठ भावोंवाली पृथ्वी देवि! दाताको चाहिये कि उस दिन खीरका भोजन करे अथवा दूधके ही सहारे रहे। गोदानके समय ब्राह्मणसे प्रार्थना करे-'मैं यह उभयमुखी गाय देता हूँ आप इसे स्वीकार करें। इसके प्रभावसे मेरा इस लोक तथा परलोकमें निश्चय ही कल्याण हो।' फिर गायसे प्रार्थना करे-'अपने वंशकी वृद्धिके लिये मैंने तुम्हें दानमें दिया। तुम सदा मेरा कल्याण करो।' दान लेते समय ब्राह्मण उभयमुखी धेनुसे प्रार्थना करे–'धेनो! अपने कुटुम्बकी रक्षाके लिये मैं दानरूपमें तुम्हें स्वीकार कर रहा हूँ। देवताओंकी धात्रि! तुम्हें नमस्कार। रुद्राणि! तुम्हें बार-बार नमस्कार। तुम्हारी कृपासे मेरा निरन्तर कल्याण हो। आकाश तुम्हारा दाता और पृथ्वी गृहीत्री है। आजतक कौन इसे किसके लिये देने में समर्थ हो सका है!' वसुंधरे! ऐसा कह लेनेपर दाता ब्राह्मणको विदा करे और ब्राह्मण उस धेनुको अपने घर ले जाय।

वसुंधरे! इस प्रकार प्रसवके समय गायका जो दान करता है, उसने मानो सात द्वीपोंवाली पृथ्वीका दान कर दिया, इसमें कोई संशय नहीं। चन्द्रमाके समान मुखवाली, सूक्ष्म मध्य भागवाली, तपाये हुए सुवर्णवर्णकी कपिला गौकी प्रसव करते समय सम्पूर्ण देवसमुदाय निरन्तर स्तुति करता है। जो व्यक्ति प्रातःकाल उठकर समाहितचित्तसे तीन बार भक्तिपूर्वक इस कल्प'गोदान-विधान' को पढ़ता है, उसके वर्षभरके किये हुए पाप उसी क्षण इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे वायुके झोंकेसे धूलके समूह। जो पुरुष श्राद्धके अवसरपर इस परम पावन प्रसङ्गका पाठ करता है, उस बुद्धिमान् पुरुषके अन्तरमें दिव्य संस्कार भर जाते हैं और पितर उसकी वस्तुओंको बड़े प्रेमसे ग्रहण करते हैं। अमावास्या तिथिमें ब्राह्मणोंके सम्मुख जो इसका पाठ करता है, उसके पितर सौ वर्षके लिये तप्त हो जाते हैं। जो पुरुष मन लगाकर निरन्तर इसका श्रवण करता है, उसके सौ वर्षों के भी किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं।

पुरोहित होताजी कहते हैं-राजेन्द्र! इस परम प्राचीन गोदान-महिमाके रहस्यको भगवान् वराहने पृथ्वीको सुनाया था। सम्पूर्ण पापोंको शान्त करनेवाला यह पूरा प्रसङ्ग मैंने तुम्हें सुना दिया। माघमासके शुक्लपक्षकी द्वादशीके दिन तिलधेनुका दान करना चाहिये। इसके फलस्वरूप दाता सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न होकर अन्तमें भगवान् विष्णुके पदको प्राप्त करता है। महाराज! श्रावणमासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन सुवर्णके साथ प्रत्यक्ष धेनुका दान करना चाहिये। राजेन्द्र! ऐसे तो सभी समयमें सब प्रकारकी धेनुओंका दान करना उत्तम है, पर इस दानसे सब प्रकारके पाप शान्त हो जाते हैं और दाताको भुक्ति-मुक्ति सुलभ हो जाती है। यह प्रसङ्ग बड़ा विस्तृत है, जिसे मैंने तुमसे संक्षेपमें ही बतलाया है। धेनुओंका दान मनुष्यों के लिये सब प्रकारकी कामनाएँ पूर्ण करनेवाला है। राजेन्द्र ! जो ऐसा कुछ भी नहीं करता, वह भूखसे अत्यन्त पीड़ित होता रहता है।

 

 

राजन्! इस समय कार्तिकका महीना चल रहा है। इसमें भौतिक रत्नों और ओषधियोंसे युक्त 'ब्रह्माण्ड' का दान करना चाहिये। देवता, दानव और यक्ष सब ब्रह्माण्डके ही अन्तर्गत हैं। यह सम्पूर्ण बीजों और रसोंसे समन्वित है। इसे हेममय बताया गया है। कार्तिक शुक्लपक्षकी द्वादशीके दिन अथवा विशेष करके पूर्णमासीके अवसरपर इस रत्नसहित ब्रह्माण्डाकृतिको श्रेष्ठ पुरोहितको भक्तिके साथ दान करे। राजन्! ब्रह्माण्डभरमें जितने तीर्थ हैं तथा जितने दान हैं, वे सभी इस ब्रह्माण्डदाता पुरुषके द्वारा सम्पन्न हो गये-ऐसा समझना चाहिये। संक्षेपसे यह प्रसङ्ग तुम्हें बता दिया। राजन्! जो पुरुष हजारों दक्षिणाओंसे सम्पन्न होनेवाला यज्ञ करता है, वह तो ब्रह्माण्डके किसी एक देशकी पूजा करता है, पर जो पुरुष इस सारे ब्रह्माण्डकी अर्चनाकर, सामग्री दान करता है, उसके द्वारा मानो सभी हवन, पाठ और कीर्तन विधिपूर्वक सम्पन्न हो गये।'

इस प्रकारकी बात सुनकर राजाने उसी समय एक सुवर्ण-कुम्भमें ब्रह्माण्डकी कल्पनाकर विधिपूर्वक उन ऋषिको ब्रह्माण्डका दान किया और उसके फलस्वरूप वह राजा सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न हो स्वर्गको चला गया। अतएव राजेन्द्र ! तुम भी यह दान करके सुखी हो जाओ। वसिष्ठजीके ऐसा कहनेपर उस राजाने भी ऐसा ही किया। फिर उन्हें वह परम सिद्धि प्राप्त हुई, जिसे पाकर मनुष्य कभी सोच नहीं करता।[विशेष द्रष्टव्य-वराहपुराणके ये 'तिलधेनु' आदि दानके ९९ से ११२ तकके अध्याय 'कृत्यकल्पतरु', 'अपरार्क', 'हेमाद्रि दानखण्ड', नीलकण्ठ भट्टके 'दानमयूख', रघुनन्दनके 'दानतत्त्व' तथा अन्योंकी 'दानचन्द्रिका', 'दानकौमुदी', वल्लालसेनके 'दानसागर' आदिमें प्रायः सर्वथा इसी क्रमसे इन्हीं श्लोकोंमें प्राप्त होते हैं। इनमें 'अपरार्क' का तथा 'कत्यकल्पतरु' के रचयिता पं० लक्ष्मीधरका समय १०वीं एवं ११वीं शती है। उस समय इस पुराणकी कितनी प्रतिष्ठा थी, यह इससे सूर्यालोककी तरह सुस्पष्ट हो जाता है।]

भगवान् वराह कहते हैं-देवि! यह संहिता सम्पूर्ण इच्छाओंको पूर्ण करनेवाली है। इसका तुम्हारे सामने वर्णन कर दिया। वरारोहे! "वराह' नामसे प्रसिद्ध इस संहितामें अखिल पातकोंको नष्ट करनेकी शक्ति है। सर्वज्ञ परम प्रभुसे ही इसका उद्भव हुआ था। तत्पश्चात् ब्रह्माजी इसके विशेषज्ञ हुए। ब्रह्माजीने इसे अपने पुत्र पुलस्त्यजीको बताया। पुलस्त्यजीने परशुरामजीको, परशुरामजीने अपने शिष्य उनको और उग्रने मनुको इसकी शिक्षा दी। यह तो पूर्वकल्पकी बात हुई। अब भविष्यकी बात सुनो। धराधरे! तुम्हारी कृपासे कपिल आदि सिद्ध पुरुष तपस्या करके इसे जानने में समर्थ होंगे। इसी क्रमसे फिर इसका ज्ञान वेदव्यासको होगा। व्यासदेवके शिष्य रोमहर्षणि नामसे विख्यात होंगे। वे शुनकके पुत्र शौनकसे इसका कथन करेंगे, इसमें कुछ संदेह नहीं। कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजी सबके गुरु होंगे। वे अठारह पुराणोंके ज्ञाता हैं, जो इस प्रकार कहे गये हैं-पहला ब्रह्मपुराण, दूसरा पद्मपुराण, तीसरा वायुपुराण, चौथा शिवपुराण, पाँचवाँ भागवतपुराण, छठा नारदपुराण, सातवाँ मार्कण्डेयपुराण, आठवाँ अग्निपुराण, नवाँ भविष्यपुराण, दसवाँ ब्रह्मवैवर्तपुराण, ग्यारहवाँ लिङ्गपुराण, बारहवाँ वराहपुराण, तेरहवाँ स्कन्दपुराण, चौदहवाँ वामनपुराण, पंद्रहवाँ कूर्मपुराण, सोलहवाँ मत्स्यपुराण, सत्रहवाँ गरुडपुराण और अठारहवाँ ब्रह्माण्डपुराण। वसुंधरे! जो पुरुष कार्तिकमासकी द्वादशी तिथिके दिन भक्तिपूर्वक इसका पठन एवं व्याख्यान करता है, वह यदि संतानहीन हो तो उसे अवश्य ही पुत्रकी प्राप्ति होती है। प्राणियोंको आश्रय देनेवाली देवि! जिसके घरमें यह लिखा हुआ प्रसङ्ग सदा पूजित होता है, उसके यहाँ स्वयं भगवान् नारायण विराजते हैं। जो भक्तिके साथ निरन्तर इसका श्रवण करता है तथा सुनकर भगवान् आदिवराहसे सम्बन्ध रखनेवाले इस 'वराहपुराण' की पूजा करता है, उसने मानो सनातन भगवान् विष्णुकी पूजा कर ली। वसुंधरे! इसे सुनकर इस ग्रन्थ तथा भगवान्की गन्ध-पुष्पमाला और वस्त्रोंसे पूजन तथा भोजन-वस्त्रद्वारा ब्राह्मणोंका सम्मान करना चाहिये। यदि राजा हो तो अपनी शक्तिके अनुसार बहुतसे ग्राम देकर इस पुस्तकवराहपुराणकी पूजा करे। ऐसा करनेवाला मानव सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर भगवान् विष्णुके सायुज्यको प्राप्त कर लेता है।

 

 

 

108- पृथ्वीद्वारा भगवान्की विभूतियोंका वर्णन

 

 

नैमिषारण्यके ऋषिसत्रमें सूतजीने कहा कि एक बार श्रीसनत्कुमारजी भ्रमण करते हुए पृथ्वीसे आकर मिले और पूछा-देवि! जिनके आधारपर तुम अवलम्बित हो तथा जिन वराहभगवान्से तुमने पुराणका श्रवण किया है, उसे तत्त्वपूर्वक कहनेकी कृपा करो। ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारकी बात सुनकर पृथ्वीने उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

पृथ्वी बोली-विप्रेन्द्र! भगवद्विभूतिका यह विषय अत्यन्त गोपनीय है। जिस समय संसारमें चन्द्रमा, अग्नि, सूर्य और नक्षत्र-इन सभीका अभाव था, सभी दिशाएँ स्तम्भित थीं, किसीको कुछ भी ज्ञान नहीं था, न पवनकी गति थी, न अग्नि और विद्युत् ही अपना प्रकाश फैला सकते थे, उस समय परम प्रभु परमात्माने मत्स्यका अवतार धारणकर रसातलसे वेदोंका उद्धार किया। फिर उन्होंने कूर्मका अवतार धारणकर अमृत प्रकट किया। हिरण्यकशिपु वर पाकर दृप्त (गर्वीला) हो गया था, उस समय भगवान्ने नरसिंहका अवतार धारणकर उसका संहार करके प्रह्लाद तथा विश्वकी रक्षा की। इसी प्रकार उन्होंने परशराम तथा रामका अवतार धारणकर रावणादि दुष्टोंका संहार किया और भगवान् वामनद्वारा बलि बाँधे गये।

फिर सृष्टिके आरम्भमें जब मैं समुद्रमें डूबी जा रही थी, तब मैंने भगवान्से प्रार्थना की'जगत्प्रभो! आप सम्पूर्ण विश्वके स्वामी हैं। देवेश! आप मुझपर प्रसन्न होइये। माधव! भक्तिपूर्वक मैं आपकी शरणमें पहुँची हूँ, आप कृपा करें। सूर्य, चन्द्रमा, यमराज और कुबेरइन रूपोंमें आप ही विराजमान हैं। इन्द्र, वरुण, अग्नि, पवन, क्षर-अक्षर, दिशा और विदिशा आप ही हैं। हजारों युग-युगान्तरोंके समाप्त हो जानेपर भी आप सदा एकरस स्थित रहते हैं। पृथ्वी-जल-तेज-वायु और आकाश-ये पाँच महाभूत तथा शब्द-स्पर्श-रूप-रस और गन्धये पाँच विषय आपके ही रूप हैं। ग्रहोंसहित सम्पूर्ण नक्षत्र तथा कला, काष्ठा और मुहूर्त आपके ही परिणाम हैं। सप्तर्षिवृन्द, सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिश्चक्र और ध्रुव-इन सबमें आप ही प्रकाशित होते हैं। मास-पक्ष, दिन-रात, ऋतु और वर्ष-ये सब भी आप ही हैं। नदियाँ, समुद्र, पर्वत तथा सर्पादि जीवोंके रूपमें परम प्रसिद्ध आप ही सत्तावान् हैं। मेरु-मन्दराचल, विन्ध्य, मलय-दर्दुर, हिमालय, निषध आदि पर्वत और प्रधान आयुध सुदर्शन चक्र-ये सब आपके ही रूप हैं। आप धनुषोंमें शिवजीके धनुष-'पिनाक' हैं, योगोंमें उत्तम 'सांख्य' योग हैं। लोकोंके लिये आप परम परायण भगवान् श्रीनारायण हैं। यज्ञोंमें आप 'महायज्ञ' हैं और यूपों (यज्ञस्तम्भों)-में आप स्थिर रहनेकी शक्ति हैं। वेदोंमें आपको 'सामवेद' कहा जाता है। आप महाव्रतधारी पुरुषके अवयव वेद और वेदाङ्ग हैं। गरजना, बरसना आपके द्वारा ही होता है। आप ब्रह्मा हैं। विष्णो! आपके द्वारा अमृतका सृजन होता है, जिसके प्रभावसे जनता जीवन धारण कर रही है। श्रद्धा-भक्ति, प्रीति, पुराण और पुरुष भी आप ही हैं। धेय और आधेय-सारा जगत्, जो कुछ इस समय वर्तमान है, वह आप ही हैं। सातों लोकोंके स्वामी भी आपको ही कहा जाता है। काल, मृत्यु, भूत, भविष्य, आदि-मध्य-अन्त, मेधाबुद्धि और स्मृति आप ही हैं। सभी आदित्य आपके ही रूप हैं। युगोंका परिवर्तन करना आपका ही कार्य है। आपकी किसीसे तुलना नहीं की जा सकती, अतः आप अप्रमेय हैं। आप नागोंमें 'शेष' तथा सर्पोमें 'तक्षक' हैं। उद्वहप्रवह, वरुण और वारुणरूपसे भी आप ही विराजते हैं। आप ही इस विश्वलीलाके मुख्य सूत्रधार हैं। सभी गृहोंमें गृह-देवता आप ही हैं। सबके भीतर विराजमान, सबके अन्तरात्मा और मन आप ही हैं। विद्युत् और वैद्युत एवं महाद्युति-ये आपके ही अङ्ग हैं। वृक्षोंमें आप वनस्पति तथा आप सत्क्रियाओंमें श्रद्धा हैं। आप ही गरुड बनकर अपने आत्मरूप (श्रीहरि)-को वहन करते हैं और उनकी सेवामें परायण रहते हैं। दुन्दुभि और नेमिघोषसे जो शब्द होते हैं, वे आपके ही रूप हैं। निर्मल आकाश आपका ही रूप है। आप ही जय और विजय हैं। सर्वस्वरूप, सर्वव्यापी, चेतन और मन भी आप ही हैं। ऐश्वर्य आपका स्वरूप है। आप पर एवं परात्मक हैं। विष एवं अमृत भी आपके ही रूप हैं। जगद्वन्द्य प्रभो! आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है। लोकेश्वर! मैं डूबी जा रही हूँ, आप मेरी रक्षा करें।'

यह भगवान् केशवकी स्तुति है। व्रतमें दृढ़ स्थिति रखनेवाला जो पुरुष इसका पाठ करता है, वह यदि रोगोंसे पीड़ा पा रहा हो तो उसका दुःख दूर हो जाता है। यदि बन्धनमें पड़ा हो तो उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। अपुत्री पुत्रवान् बन जाता है। दरिद्रको सम्पत्ति सुलभ हो जाती है। विवाहकी कामनावाले अविवाहित व्यक्तिका विवाह हो जाता है। कन्याको सुन्दर पति प्राप्त होता है। महान् प्रभु भगवान् माधवकी इस स्तुतिका जो पुरुष सायं और प्रात: पाठ करता है, वह भगवान् विष्णुके लोकमें चला जाता है। इस विषयमें कुछ भी अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। भगवानकी कही हुई ऐसी वाणीकी जबतक परिचर्चा होती रहती है, तबतक वह पुरुष स्वर्गलोकमें सुख पाता है।