
भगवान् रुद्र कहते हैं-मैंने आपलोगोंसे भद्राश्ववर्षका संक्षेपमें और केतुमालवर्षका कुछ विस्तारपूर्वक वर्णन किया। अब (निषधवर्षके) पर्वतराज नैषधके पश्चिममें रहनेवाले कुलपर्वतों, जनपदों और नदियोंका वर्णन करता हूँ। विशाख, कम्बल, जयन्त, कृष्ण, हरित, अशोक और वर्धमान-ये तो वहाँकै सात कुल-पर्वत हैं। इन पर्वतोंके बीच छोटे-छोटे पर्वतों एवं शिखरोंकी संख्या अनन्त है। वहाँके नगर-जनपद आदि भी इन पर्वतोंके नामोंसे ही प्रसिद्ध हैं। ये पर्वत हैं सौर, ग्रामान्तसातप, कृतसुराश्रवण, कम्बल, माहेय, कूटवास, मूलतप, क्रौञ्च, कृष्णाङ्ग, मणिपङ्कज, चूडमल, सोमीय, समुद्रान्तक, कुरकुञ्ज, सुवर्णतट, कुह, श्वेताङ्ग, कृष्णपाद, विद, कपिल, कर्णिक, महिष, कुब्ज, करनाट, महोत्कट, शुकनाक, सगज, भूम, ककुरञ्जन, महानाह, किकिसपर्ण, भौमक, चोरक, धूमजन्मा, अङ्गारज, जीवलौकित, वाचांसहांग, मधुरेय, शुकेय, चकेय, श्रवण, मत्तकाशिक, गोदावाय, कुलपंजाब, वर्जह और मोदशालक। इन पर्वतीय जनपदोंमें निवास करनेवाली प्रजा जिन पर्वतीय नदियोंका ही जल पीती है, वे नदियाँ हैं-रत्नाक्षा, महाकदम्बा, मानसी, श्यामा, सुमेधा, बहुला, विवर्णा, पुङ्खा, माला, दर्भवती, भद्रनदी, शुकनदी, पल्लवा, भीमा, प्रभञ्जना, काम्बा, कुशावती, दक्षा, काशवती, तुङ्गा, पुण्योदा, चन्द्रावती, सुमूलावती, ककुपद्मिनी, विशाला, करंटका, पीवरी, महामाया, महिषी, मानषी और चण्डा। ये तो प्रधान नदियाँ हैं, छोटी-छोटी दूसरी नदियाँ भी हजारोंको संख्यामें हैं।
भगवान् रुद्र कहते हैं-विप्रो! अब उत्तर और दक्षिणके वर्षों में जो-जो पर्वतवासी कहे जाते हैं, उनका मैं क्रमसे वर्णन करता हूँ, आपलोग सावधान होकर सुनें। मेरुके दक्षिण और श्वेतगिरिसे उत्तर सोमरसकी लताओंसे परिपूर्ण 'रम्यकवर्ष' है। (इस सोमके प्रभावसे) वहाँक उत्पन्न हुए मनुष्य प्रधान बुद्धिवाले, निर्मल और बुढ़ापा एवं दुर्गतिके वशीभूत नहीं होते। वहाँ एक बहुत बड़ा वटका भी वृक्ष है, जिसका रंग प्रायः लाल कहा गया है। इसके फलका रस पीनेवाले मनुष्योंकी आयु प्रायः दस हजार वर्षोंकी होती है और वे देवताओंके समान सुन्दर होते हैं। श्वेतगिरिके उत्तर और त्रिशृङ्गपर्वतके दक्षिणमें हिरण्मय नामक वर्ष है। वहाँ एक नदी है, जिसे हैरण्यवती कहते हैं। वहाँ इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले कामरूपी पराक्रमी यक्षोंका निवास है। वहाँके लोगोंकी आयु प्रायः ग्यारह हजार वर्षोंकी होती है, पर कुछ लोग पन्द्रह सौ वर्षोंतक ही जीवित रहते हैं। उस देशमें बड़हर और कटहलके वृक्षोंकी बहुतायत है। उनके फलोंका भक्षण करनेसे ही वहाँके निवासी इतने दिनोंतक जीवित रहते हैं। त्रिशृङ्गपर्वतपर मणि, सुवर्ण एवं सम्पूर्ण रत्नोंसे युक्त शिखर क्रमशः उसके उत्तरसे दक्षिण समुद्रतक फैले हुए हैं। वहाँके निवासी उत्तरकौरव कहलाते हैं। वहाँ बहुत-से ऐसे वृक्ष हैं जिनसे दूध एवं रस निकलते हैं। उन वृक्षोंसे वस्त्र और आभूषण भी पाये जाते हैं। वहाँकी भूमि मणियोंकी बनी है तथा रेतोंमें सुवर्णखण्ड मिले रहते हैं। स्वर्गसुख भोगनेवाले पुरुष पुण्यकी अवधि समाप्त हो जानेपर यहाँ आकर निवास करते हैं। इनकी आयु तेरह हजार वर्षोंकी होती है। उसी द्वीपके पश्चिम चन्द्रद्वीप है। देवलोकसे चार हजार योजनकी दूरी पार करनेपर यह द्वीप मिलता है। हजार योजनकी लम्बाई-चौडाईमें इसकी सीमा है। उसके बीचमें 'चन्द्रकान्त' और 'सूर्यकान्त' नामसे प्रसिद्ध दो प्रस्रवणपर्वत हैं। उनके बीच में 'चन्द्रावर्ता' नामकी एक महान् नदी है, जिसके किनारे बहुसंख्यक वृक्ष हैं और जिसमें अनेक छोटी-छोटी नदियाँ आकर मिलती हैं। 'कुरुवर्ष'की उत्तरी अन्तिम सीमापर यह नदी है। समुद्रकी लहरें प्रायः यहाँ आती रहती हैं। यहाँसे पाँच हजार योजन आगे जानेपर 'सूर्यद्वीप' मिलता है। वह वृत्ताकारमें हजार योजनके क्षेत्रफलमें फैला हुआ है। उसके मध्यभागमें सौ योजन विस्तारवाला तथा उतना ही ऊँचा श्रेष्ठ पर्वत है। उस पर्वतसे 'सूर्यावर्त' नामकी एक नदी प्रवाहित होती है। वहाँ भगवान् सूर्यका निवासस्थान है। वहाँकी प्रजा सूर्योपासक एवं दस हजार वर्ष आयुवाली तथा सूर्यके ही समान वर्णकी होती है। सूर्यद्वीप'से चार हजार योजनकी दूरीपर पश्चिममें भद्राकारनामक द्वीप है। यह द्वीप समुद्री देशमें है। इसका क्षेत्रफल एक सहस्र योजन है। वहाँ पवनदेवका रत्नजटित दिव्य मन्दिर है। जिसे लोग 'भद्रासन' कहते हैं। पवनदेव अनेक प्रकारका रूप धारणकर यहाँ निवास करते हैं। यहाँकी प्रजा तपे हुए सुवर्णके समान वर्णवाली होती है और इनकी आयु प्रायः पाँच हजार वर्षों की होती है।