66-68-राजा भद्राश्वका प्रश्न और नारदजीके द्वारा विष्णुके आश्चर्यमय स्वरूपका वर्णन

राजा भद्राश्वने कहा-मुने! यदि आपको भी कोई विशेष आश्चर्यजनक बात दीखी या विदित हुई हो तो वह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये। इसके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्सुकता है।

अगस्त्यजी कहते हैं-राजन्! भगवान् जनार्दनही आश्चर्यरूप (समस्त आश्चर्योके भण्डार या मूर्तिमान्) हैं। मैंने इनके अनेक आश्चर्योंको देखा है। राजन्! पूर्व समयकी बात है। एक बार नारदजी श्वेतद्वीपमें गये। वहाँ उन्हें ऐसे परम तेजस्वी पुरुषोंके दर्शन हुए. जिनके हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और कमल शोभा पा रहे थे। तो नारदजीके मुँहसे सहसा 'यही सनातन विष्णु हैं, यही विष्णु हैं, ये विष्णु हैं' ये शब्द निकले। फिर नारदजीके मनमें यह विचार आया कि मैं प्रभुकी आराधना किस प्रकार करूँ? ऐसा विचार कर नारदजीने परम प्रभु भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया। सहस्र दिव्य वर्षों से भी अधिक समयतक उनके ध्यान करनेपर भगवान् प्रसन्न होकर प्रकट हुए और बोले-'महामुने! तुम वर माँगो; कहो, तुम्हें मैं क्या दूँ?'

नारदजी बोले-जगत्प्रभो! मैंने एक हजार दिव्य वर्षांतक आपका ध्यान किया है। अच्युत! इतनेपर यदि आप मुझपर प्रसन्न हो गये हों तो मुझे कृपया अपनी प्राप्तिका उपाय बतलाइये।

देवाधिदेव विष्णुने कहा-द्विजवर! जो मनुष्य 'पुरुषसूक्त' तथा वैदिक संहिताका पाठ करते हुए मेरी उपासना करते हैं, वे मुझे शीघ्र ही प्राप्त करते हैं। पञ्चरात्रद्वारा निर्दिष्ट मार्गसे जो मानव मेरा यजन करते हैं, उन्हें भी मैं प्राप्त हो जाता हूँ। द्विजके लिये तो पञ्चरात्रका नियम बताया गया है, दूसरोंको मेरे नाम-लीला, धाम, क्षेत्र, तीर्थ, मन्दिरोंकी यात्रा एवं दर्शन करना चाहिये।नारद! सत्त्वगुणवाले पुरुष मुझे पानेके अधिकारी हैं। कलियुगमें रजोगुण-तमोगुणकी ही विशेषता रहेगी। नारद! यह दुर्लभ पञ्चरात्र-शास्त्रका मेरी कृपासे ही ज्ञान होगा। द्विजवर! वेदका अध्ययन, पञ्चरात्र-पाठ तथा यज्ञ एवं भक्ति-ये मुझे प्राप्त करानेके साधन हैं। मैं इनके द्वारा सुलभ होता हूँ, अन्यथा करोड़ वर्षोंतक यत्न करनेपर भी मनुष्य मुझे नहीं प्राप्त कर सकता।

इस प्रकार परम प्रभु भगवान नारायणने नारदजीसे कहा और वे उसी क्षण अन्तर्धान हो गये।

राजा भद्राश्वने पूछा-भगवन्! पहले जिन गोरी एवं काली स्त्रियोंकी बात आयी है, वे कौन थीं? उनका सीता और कृष्णा कैसे नाम पड़ गया? ब्रह्मन् ! सात प्रकारके पवित्र पुरुष कौन हुए? उस पुरुषने अपना बारह प्रकारका रूप कैसे बना लिया? दो देह और छः सिरका क्या तात्पर्य है?

अगस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! जो गोरी और काली-ये दो देवियाँ थीं, इनका परस्पर बहनका नाता है। दोनोंके दो वर्ण हैं-एकका शुक्ल और दूसरीका कृष्ण। कृष्णाको रात्रिदेवी कहा जाता है। राजन् । पुरुष एक होते हुए भी सात प्रकारके रूपोंसे सुशोभित हैं। जो बारह प्रकारके दो शरीर तथा छ: सिरकी बात कही गयी है उनका तात्पर्य संवत्सरसे जानना चाहिये। उत्तरायण और दक्षिणायन-ये दो गतियाँ उनके शरीर तथा वसन्त आदि छः ऋतुएँ मुँह हैं। सूर्य दिनके और चन्द्रमा रात्रिके अधिष्ठाता हैं। राजन्! इन्हीं विष्णुसे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है। अतएव उन भगवान् विष्णुको ही परमदेवता जानना चाहिये। वैदिक क्रियासे हीन व्यक्ति उन परम प्रभु परमात्माको देखने में सर्वथा असमर्थ है।

राजा भद्राश्वने पूछा-मुने! परमात्माका चारों युगोंमें कैसा स्वरूप जानना चाहिये? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र-इन चारों वर्णोंका प्रत्येक युगमें कैसा आचार होता है?

अगस्त्यजी कहते हैं-राजन्! सत्ययुगमें वैदिक कर्म करके यज्ञोंद्वारा देवताओंकी पूजा करनेवाले दिव्य पुरुषोंसे पृथ्वी सुशोभित रहेगी। ऐसा ही समय त्रेतायुगमें भी रहेगा। महाराज! द्वापरयुगमें सत्त्वगुण और रजोगुणकी बहुलता होगी। फिर महाराज युधिष्ठिर राजा होंगे। इसके पश्चात् कलिस्वरूप तमोगुणका विस्तार होगा। राजन्! कलियुगके आ जानेपर ब्राह्मण अपने मार्गसे च्युत हो जायेंगे। राजेन्द्र! क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन सबकी जाति प्रायः नष्ट-सी हो जायगी। इनमें सत्य और शौचका नितान्त अभाव हो जायगा। फिर तो संसार नष्टप्राय हो जायगा। वर्ण एवं धर्म सर्वदाके लिये दूर चले जायेंगे।

नरेन्द्र! बहुत समयसे चिरकालार्जित पाप तथा वर्णसंकर जातिके पुरुषके साथ रहनेसे ब्राह्मणद्वारा जो पाप बनता है, इससे दस बार प्रणवसहित गायत्रीके जप करने तथा तीन सौ बार प्राणायाम करनेसे वह उस पापसे छुटकारा पा जाता है। प्रायश्चित्तोंसे ब्रह्महत्या-जैसे पाप भी छूट जाते हैं, शेष पापोंसे छूटनेकी तो बात ही क्या है? अथवा जो श्रेष्ठ ब्राह्मण सर्वोत्तम रूपधारी भगवान् श्रीहरिको जानकर ध्यान आदिसे उनकी पूजा करता है, वह उन पापोंसे लिप्त नहीं हो सकता। वेदका अध्ययन करनेवाला ब्राह्मण सौ बार किये हुए पापोंसे भी लिप्त नहीं होता। जिसके द्वारा भगवान् विष्णुका स्मरण, वेदका अध्ययन, द्रव्यका दानरूपमें वितरण तथा भगवान् श्रीहरिका यजन होता रहता है, वह ब्राह्मण तो सदा शुद्ध ही है। वह तो विरुद्ध धर्मवालेका भी उद्धार कर सकता है। राजन्! तुमने जो पूछा था, वह सब मैंने बतला दिया। महाराज! मनु आदि महानुभावोंने जिसे बड़े विस्तारसे कहा है, उसीका मैंने यहाँ संक्षेप रूपसे वर्णन किया है।