
भगवान् वराह कहते हैं-महाभागे! मेरे द्वारा निर्दिष्ट विधानके अनुसार जो कर्म करताकराता है, उसे किस प्रकार सफलता प्राप्त होती है, अब मैं यह बतलाता हूँ, सुनो। मेरा भक्त एकाग्रचित्त, सुस्थिर होकर अहंकारका परित्याग कर दे एवं अपने चित्तको सदा मुझमें समाहितकर क्षमाशील, जितेन्द्रिय होकर रहे। वह द्वादशी तिथिको फल-मूल अथवा शाकका आहार करे, अथवा पयोव्रती एवं सर्वथा शाकाहारपर रहनेवाला हो। षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी, अमावास्या, चतुर्दशीइन तिथियोंमें वह संयमपूर्वक ब्रह्मचर्यका पालन करे। इस प्रकार योगविधानपूर्वक मेरी उपासना करनेवाला दृढव्रती पवित्रात्मा व्यक्ति धर्मसे सम्पन्न होकर विष्णुलोकको जाता है। वहाँ उसकी अठारह भुजाएँ होती हैं और उनमें वह धनुष, तलवार, बाण तथा गदा धारणकर सारूप्य मोक्ष प्राप्त करता है। उसे ग्लानि, बुढ़ापा, मोह और रोग नहीं होते। वे छाछठ हजार वर्षांतक मेरे लोकमें निवास करते हैं।
अब दुःखका स्वरूप बताता हूँ, उसे सुनो। उचित उपचार करनेसे दुःखसे मुक्ति अथवा उस क्लेशका विनाश सम्भव है। जो मानव सदा अहंकार एवं मोहसे आच्छादित है और मेरी शरणमें नहीं आता, अन्न सिद्ध हो जानेपर जो स्वयं पहले 'बलिवैश्वदेव' कर्म नहीं करता तथा जो सर्वभक्षी, सब कुछ बेचनेमें तत्पर तथा मझे नमस्कार करनेसे भी विमुख है और मुझे प्राप्त करनेका प्रयत्न नहीं करता, भला इससे बढ़कर दूसरा दुःख और क्या होगा? जो बलिवैश्वदेवके समय आये हुए अतिथिको भोजन अर्पण न कर स्वयं खा लेता है, देवता उसके अन्नको ग्रहण नहीं करते। संसारकी विषम परिस्थितिमें यथाप्राप्त वस्तुसे जो असंतुष्ट रहकर दूसरेकी स्त्री आदिपर बुरी दृष्टि डालता है एवं दूसरोंको कष्ट पहुँचाता है, वह महान् मूर्ख है। जो मानव सत्कर्मोंका अनुष्ठान न करके घरमें ही आलस्यसे पड़ा रहता है, वह समयानुसार कालके चंगुल में फँस जाता है, यह महान् दु:खका विषय है। कुछ पुरुष अपने कर्मों के प्रभावसे सुन्दर रूप
प्राप्त करते हैं और कुछ दूसरे कुरूप होते हैं। कुछ विद्वान् पुण्यात्मा, गुणोंके ज्ञाता और सम्पूर्ण शास्त्रोंके पारगामी होते हैं और कितने बोलने में भी असमर्थ, सर्वथा गूंगे। कितनोंके पास धन है, परंतु वे किसीको न तो देते हैं और न स्वयं ही उसका उपभोग करते हैं-इस प्रकार वे दरिद्र ही बने रहते हैं, फिर भला उस दारिद्र्यकी तुलनामें और कोई दूसरा दुःख क्या हो सकता है।* • ( गोस्वामी तुलसीदासजीने भी कहा है-'नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।' इत्यादि (रामचरितमानस ७।१२०१७) )
किसी पुरुषकी दो स्त्रियाँ हैं, उन दोनोंमेंसे पति एककी तो प्रशंसा करता है और दूसरीको हीन मानता है, तो उस भाग्यहीना स्त्रीके लिये इससे बढ़कर अन्य दुःख क्या होगा? यह सब पूर्वके ही कर्मोका तो फल है। सुमध्यमे! ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य इस प्रकार द्विजाति होकर भी जो पापकर्मों में ही सदा रचेपचे रहें और जिन्हें पञ्चतत्त्वोंसे निर्मित मनुष्यशरीर प्राप्त हो फिर भी वे मुझे पानेमें असफल रहें तो इससे बढ़कर दुःख क्या होगा? भद्रे ! तुमने जो पापका प्रसङ्ग मुझसे पूछा, वह पाप सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें बाधक है; अतः दुःखप्राप्ति करानेवाले प्राक्तन (पूर्वजन्मके) एवं तत्कालीन कर्मों और दु:खोंका स्वरूप मैंने तुम्हें बताया।शुभ कर्मके विषयमें तुमने जो प्रश्न किया है, कल्याणि! इस विषयमें निर्णीत तत्त्व मैं तुम्हें बताता हूँ, वह भी सुनो। जो शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करके उसका श्रेय मेरे भक्तोंको निवेदन कर देता है, उसके पास दुःखका आना सम्भव नहीं है। जो मेरी पूजा करके नैवेद्य अर्पण किये हुए अन्नको बाँटकर फिर बचे हुएको प्रसाद मानकर स्वयं ग्रहण करता है, उससे बढ़कर संसारमें सुखी कौन है?
वसुंधरे! मेरे कहे हुए नियमके अनुसार तीनों कालोंमें संध्या आदि उत्तम कर्म करके जो जीवन व्यतीत करता है, जगत्को आश्रय देनेवाली पृथ्वि! जो देवता, अतिथि और दु:खी मानवोंके लिये अन्न देकर फिर स्वयं उसे ग्रहण करता है, जिसके यहाँ आया हुआ अतिथि कभी निराश नहीं लौटता अर्थात् जिस किसी प्रकारसे उसे कुछ-न-कुछ अर्पितकर उसे सत्कृत करता है, जो प्रत्येक मासमें एकादशीव्रत और अमावास्याको श्राद्धकर्म करता है, जिससे पितृगण परम तृप्त होते हैं, जो भोजन तैयार हो जानेपर उसमें हव्यान्न डालता है और उसे समान स्वादसे भक्षण करता है-भला उससे बढ़कर संसारमें कोई दूसरा सुख क्या हो सकता है? देवि! जिसकी दो भार्याएँ हैं और दोनोंमें जिसकी बुद्धि विकाररहित है,जो दोनोंको समान दृष्टिसे देखता है, जो पवित्रात्मा पुरुष सदा हिंसारहित कर्म करता है अर्थात् हिंसामें जिसकी कभी प्रवृत्ति नहीं होती, वह परम शुद्ध पुरुष मन्त्र-सुख भोगनेके लिये ही संसारमें आया है। दूसरेकी सुन्दर स्त्रीको देखकर जिसका चित्तः चलायमान नहीं होता और जो मोती आदि रत्नों तथा सुवर्णको मिट्टीके ढेलेके समान देखता है,भला उससे बढ़कर सुखी कौन है? हाथी और घोड़ोंसे परिपूर्ण युद्धस्थलमें जो योद्धा अपने प्राणोंका परित्याग करता है, संयोग-वियोगमें सदा अनासक्त रहकर जो कुत्सित कर्मोका परित्याग करता है एवं स्वयं भगवद्भजन करते हुए संतुष्ट रहकर जीवन धारण करता है, उससे बढ़कर भला संसारमें सुखी कौन है?
वसुंधरे! स्त्रियोंके लिये पतिकी सेवा ही व्रत है, ऐसा समझकर जो स्त्री अपने स्वामीको सदा संतुष्ट रखती है, धनी होकर भी जो पण्डित पुरुष जितेन्द्रिय और पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको वशमें रखे हुए है, जो अपमानको सहता है तथा दुःखमें उद्विग्न नहीं होता, इच्छा अथवा अनिच्छासे भी जो मेरे उत्तम क्षेत्रमें प्राणोंको छोड़ता है, जो पुरुष माता और पिताकी सदा पूजा करता है तथा देवताकी भाँति नित्यप्रति उनका दर्शन करता है, तो इस सुखसे बढ़कर संसारमें अन्य कोई सुख नहीं है। सम्पूर्ण देवताओंमें जो मेरी ही भावना करके पूजा करता है, उससे मैं तिरोहित नहीं होता हूँ और न वह मुझसे ही तिरोहित होता है। भद्रे! तुमने जो सम्पूर्ण लोकोंके हितसाधनके लिये पूछा था, वह पवित्र एवं निर्णीत वस्तुतत्त्व मैंने तुम्हारे सामने व्यक्त कर दिया।