64-65-शौर्य एवं सार्वभौम-व्रत

अगस्त्यजी कहते हैं-राजन्! अब मैं एक दूसरे शौर्यव्रतका वर्णन करता हूँ; जिसे करनेसे अत्यन्त भीरु व्यक्तिमें भी तत्क्षण महान् शौर्यका प्राकट्य होता है। इस व्रतको आश्विनमासके शुक्लपक्षमें नवमी तिथिके दिन करना चाहिये। सप्तमी तिथिके दिन संकल्प करके अष्टमी तिथिके दिन भातका परित्याग करना चाहिये और नवमी तिथिके दिन पक्वान्न खानेका विधान है। राजन्! सर्वप्रथम भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। इस व्रतमें महातेजस्वी, महाभागा, भगवती महामाया दुर्गाकी भक्तिके साथ आराधना करनी चाहिये। इस प्रकार जबतक एक वर्ष पूरा न हो जाय, तबतक विधिपूर्वक यह व्रत करना उचित है। व्रत समाप्त हो जानेपर बुद्धिमान् पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार कुमारी कन्याओंको भोजन कराये। यदि अपने पास शक्ति हो तो सुवर्ण और वस्त्र आदिसे उन कन्याओंको अलंकृतकर भोजन कराना चाहिये। इसके पश्चात् उन भगवती दुर्गासे क्षमा माँगे और प्रार्थना करे-'देवि! आप मुझपर प्रसन्न हो जायँ।' इस प्रकार व्रत करनेपर राजा, जिसका राज्य हाथसे निकल गया है, अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार मूर्खको विद्या और भीरु व्यक्तिको शौर्यकी प्राप्ति होती है।

अगस्त्यजी कहते हैं-राजन् । अब मैं संक्षेपमें सार्वभौम नामक व्रत बतलाता हूँ, जिसका सम्यक प्रकार आचरण करनेसे व्यक्ति सार्वभौम राजा हो जाता है। इसके लिये कार्तिकमासके शुक्लपक्षकी दशमी तिथिको उपवास रहकर रातमें भोजन करना चाहिये। तदनन्तर दसों दिशाओंमें शुद्ध बलि दे, फिर चित्र-विचित्र फूलोंद्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी भक्तिके साथ पूजाकर दिशाओंकी ओर लक्ष्य करते हुए इस उत्तम व्रतका आचरण करनेवाला पुरुष इस प्रकार प्रार्थना करे, 'देवियो! आप मेरे जन्म-जन्ममें सर्वार्थ सिद्धि प्रदान करें। ऐसा कहकर शुद्ध चित्तसे उन देवियोंके लिये बलि दे। तदनन्तर रातमें पहले भलीभाँति सिद्ध किया हुआ दधिमिश्रित अन्न भोजन करे। फिर बादमें इच्छानुसार गेहूँ या चावलसे बना हुआ भोजन प्रतिवर्ष व्रत करता है, वह दिग्विजयी होता है। फिर जो मनुष्य मार्गशीर्षमासके शुक्लपक्षमें एकादशी तिथिके दिन निराहार रहकर विधिके अनुसार व्रत करता है, उसे यह धन प्राप्त होता है, जिसके लिये कुबेर भी लालायित रहते हैं।

एकादशी तिथिके दिन निराहार रहकर द्वादशी तिथिके दिन भोजन करना-यह महान् वैष्णवव्रत है। चाहे शुक्लपक्ष हो या कृष्णपक्षदोनोंका फल बराबर है। राजन्! इस प्रकार किया हुआ व्रत कठिन-से-कठिन पापोंको भी नष्ट कर देता है। त्रयोदशी तिथिको व्रत रहकर रातमें चार घड़ीके बाद भोजन करनेसे 'धर्मव्रत' होता है। चतुर पुरुषको फाल्गुन शुक्लपक्षकी त्रयोदशी तिथिसे प्रारम्भकर चैत्र कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथितक रौद्रव्रत करना चाहिये। राजन्! माघ माससे आरम्भकर वर्ष समाप्त होनेतक जो नक्तव्रत किया जाता है, उसका नाम पितृव्रत है। इस व्रतमें शुद्ध पञ्चमी तिथिके दिन तथा अमावास्याको रात्रिमें भोजन करनेका विधान है। नरेन्द्र ! इस तिथिव्रतको जो पुरुष पंद्रह वर्षांतक करता है, उसका फल उस फलका बराबरी कर सकता है, जो एक हजार अश्वमेध-यज्ञ और सौ राजसूय यज्ञ करनेसे मिलता है। राजेन्द्र! मानो उस पुरुषने एक कल्पमें बताये हुए सभी व्रतोंको कर लिया। इनमेंसे एक-एक व्रतमें वह शक्ति है कि व्रतीके पापोंको सदा नष्ट करता रहता है। फिर यदि कोई श्रेष्ठ पुरुष इन सभी व्रतोंका आचरण कर सके तो राजन्। वह पवित्रात्मा पुरुष सम्पूर्ण शुद्ध लोकोंको प्राप्त कर ले, इसमें क्या आश्चर्य है?