63-पुत्रप्राप्ति-व्रत

अगस्त्यजी कहते हैं-महाराज! अब संक्षेपमें एक कल्याणप्रद व्रत बताता हूँ, उसे सुनो! इसका नाम पुत्रप्राप्ति-व्रत है। राजन्! भाद्रपदमासके कृष्णपक्षकी जो अष्टमी तिथि होती है, उस दिन उपवासपूर्वक व्रत करना चाहिये। सप्तमी तिथिके दिन संकल्प करके अष्टमी तिथिमें भगवान् श्रीहरिकी पूजाका विधान है। मनमें ऐसी भावना करे कि भगवान् नारायण कृष्णरूप धारण करके माताकी गोदमें बैठे हैं। माताओंका समुदाय उनकी सब और शोभा दे रहा है। अष्टमीकी प्रात:कालीन स्वच्छ वेलामें पहले कहे हुए विधानके अनुसार बडे यनसे भगवान्का अर्चन करना चाहिये। इस विधिके साथ गोविन्दका पूजन करनेके पश्चात् यव, तिल एवं घृतमिश्रित हव्य पदार्थसे हवन करना चाहिये। फिर भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको दही भोजन कराये और अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें दक्षिणा दे। तदनन्तर स्वयं भोजन करे। पहला ग्रास उत्तम तिलका होना चाहिये। फिर अपनी इच्छाके अनुसार दूसरा अन्न खाया जा सकता है। भोज्य-पदार्थ स्निग्ध एवं सरस वस्तुओंसे युक्त हो। साधक प्रतिमास इसी विधिके अनुसार व्रत करे। इसे कृष्णाष्टमीव्रत भी कहते हैं। इसके प्रभावसे जिसे पुत्र न हो, वह पुत्रवान् बन जाता है।

सुना जाता है-प्राचीन समयमें शूरसेन नामके एक प्रतापी राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। अतः उन्होंने हिमालय पर्वतपर जाकर तपस्या आरम्भ कर दी। परिणामस्वरूप उनके घर एक पुत्रकी उत्पत्ति हुई जिसका नाम वसुदेव हुआ। महाभाग वसुदेवने अनेक व्रत और यज्ञ किये। ऐसे पुत्रके प्राप्त हो जानेसे राजर्षि शूरसेनको उत्तम निर्वाणपद सुलभ हो गया।

राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हारे सामने कृष्णाष्टमीव्रतका संक्षिप्त वर्णन किया। यह व्रत एक वर्षतक करना चाहिये। वर्ष पूरा हो जानेपर ब्राह्मणको दो वस्त्र देनेका विधान है। राजन्! इसका नाम पुत्रव्रत है। इसे कर लेनेपर मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे निश्चय ही छूट जाता है।