
पृथ्वी बोलीं-भगवन्! अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके शरीरसे जो आठ भुजाओंवाली गायत्री नामकी माया प्रकट हुईं और जिन्होंने चैत्रासुरके साथ युद्धकर उसका वध किया, उन्हीं देवीने देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके विचारसे 'नन्दा' नाम धारण किया तथा उन्हीं देवीने महिषासुरका भी वध किया। वही देवी 'वैष्णवी' नामसे विख्यात हुई। भगवन्! यह सब कैसे क्या हुआ? आप मुझे बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह कहते हैं-वसुंधरे! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें इन्हीं देवीने मन्दरगिरिपर महिषासुर नामक दैत्यका वध किया। फिर उनके द्वारा विन्ध्यपर्वतपर नन्दारूपसे चैत्रासुर मारा गया। अथवा ऐसा समझना चाहिये कि वे देवी ज्ञानशक्ति हैं और महिषासुर मूर्तिमान् अज्ञान है।
देवि! अब मैं पाँच प्रकारके पातकोंका ध्वंस करनेवाला उपाय कहता हूँ, सुनो। भगवान् विष्णु देवताओंके भी देवता हैं। उनका यजन करनेसे पुत्र और धन प्राप्त होते हैं। इस जन्ममें जो पुरुष दरिद्रता, व्याधि और कुष्ठ-रोगसे दु:खी है, जिनके पास लक्ष्मी नहीं है, पुत्रका अभाव है, वह इस यज्ञके प्रभावसे तुरंत ही धनवान्, दीर्घायु, पुत्रवान् एवं सुखी हो जाता है। इसमें प्रधान कारण मण्डलमें विराजमान लक्ष्मीदेवीके साथ भगवान् नारायणका दर्शन ही है। भगवान् नारायण परम देवता हैं। देवि! विधानपूर्वक जो उनका दर्शन करता है और कार्तिक महीनेके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन आचार्य-प्रदत्त मन्त्रका उच्चारण करते हुए उन देवताका यजन करता है, अथवा सम्पूर्ण द्वादशी तिथियोंके दिन या संक्रान्ति एवं सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहणके अवसरपर गुरुके आदेशानुसार जो उनकी पूजा एवं दर्शन करता है, उसपर श्रीहरि तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं। उसके पाप दूर भाग जाते हैं। साथ ही उसपर अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-तीनों वर्ण भक्तिके अधिकारी हैं। गुरुको चाहिये जाति, शौच और क्रिया आदिके द्वारा एक वर्षतक उनकी परीक्षा करे। एक वर्षतक शिष्य गुरुमें श्रद्धा रखते हुए उनमें भगवान् विष्णुकी भावना करके अचल भक्ति करे। वर्ष पूरा हो जानेपर वह गुरुसे प्रार्थना करे-'भगवन् ! आप तपस्याके महान् धनी पुरुष विराजमान हैं और मेरे सामने प्रत्यक्ष हैं। हम चाहते हैं कि आपकी कृपासे संसाररूपी समुद्रको पार करानेवाला ज्ञान प्राप्त हो जाय। साथ ही संसारमें सुख देनेवाली लक्ष्मी भी हमें अभीष्ट हैं।'
विद्वान् पुरुष गुरुकी पूजा भी विष्णुके समान करे। श्रद्धालु पुरुष कार्तिकमासकी शुक्ला दशमी तिथिको द्धवाले वृक्षका मन्त्रसहित दन्तकाष्ठ ले और उससे मुँह धोये। फिर रात्रिभोजनके बाद साधक देवेश्वर भगवान् श्रीहरिके सामने सो जाय। रातमें जो स्वप्न दिखायी पड़े, उसे गुरुके सामने व्यक्त करना चाहिये और गुरुको भी इन स्वप्नोंमें कौन-सा शुभ है और कौन-सा अशुभ-इसपर विचार करना चाहिये। फिर एकादशीके दिन उपवास रहकर स्नान करके व्रती पुरुष देवालयमें जाय। वहाँ गुरुको चाहिये कि निश्चित की हुई भूमिपर मण्डल बनाकर उसपर सोलह पंखुड़ियोंवाला एक कमल तथा सर्वतोभद्र चक्र लिखे अथवा सफेद वस्त्रसे आठ पत्रवाला कमल बनाकर उसपर देवताओंको अङ्कित करे। उस चक्रको फिर यत्नसे उजले वस्त्रसे ऐसा आवेष्टित करे कि वह वस्त्र नेत्रबन्ध अर्थात् उस मण्डल-देवताकी प्रसन्नताका भी साधन बन जाय। वर्णके अनुक्रमसे शिष्योंको मण्डपमें प्रवेश करनेके लिये गुरु आज्ञा दें। शिष्यको हाथमें फूल लेकर प्रवेश करना चाहिये। नौ भागोंवाले मण्डलमें क्रमशः पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर और ईशान आदि दिशाओंमें लोकपालसहित इन्द्र, अग्निदेव, यमराज, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर और रुद्रकी स्थापना तथा पूजा करे। मध्यभागमें परम प्रभु श्रीविष्णुकी अर्चना करनी चाहिये।
पुनः कमलके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर पत्रोंपर बलराम, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा समस्त पातकोंकी शान्ति करनेवाले वासुदेवकी स्थापना एवं पूजा करनी चाहिये। ईशानकोणमें शङ्खकी, अग्निकोणमें चक्रकी, दक्षिणमें गदाकी और वायव्यकोणमें पद्मकी स्थापना एवं पूजा करनी चाहिये। ईशानकोणमें मूसलकी एवं दक्षिणमें गरुडकी तथा देवेश विष्णुके वामभागमें बुद्धिमान् पुरुष लक्ष्मीकी स्थापना एवं पूजा करे। प्रधान देवताके सामने धनुष और खड्गकी स्थापना करे। नवें दलमें श्रीवत्स और कौस्तुभमणिकी कल्पना करनी चाहिये। फिर आठ दिशाओंमें विधानके अनुसार आठ कलश स्थापितकर बीचमें नवें प्रधान विष्णुकलशकी स्थापना करनी चाहिये। फिर उन कलशोंपर आठ लोकपालों तथा भगवान् विष्णुकी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये। साधकको यदि मुक्तिकी इच्छा हो तो विष्णुकलशसे, लक्ष्मीकी इच्छा हो तो इन्द्रकलशसे, प्रभूत संतानकी इच्छा हो तो अग्निकोणके कलशसे, मृत्युपर विजय पानेकी इच्छा हो तो दक्षिणके कलशसे, दुष्टोंका दमन करनेकी इच्छा हो तो निर्ऋतिकोणके कलशसे, शान्ति पानेकी इच्छा हो तो वरुणकलशसे, पापनाशकी इच्छा हो तो वायव्यकोणके कलशसे, धन-प्राप्तिकी इच्छा हो तो उत्तरके कलशसे तथा ज्ञानकी इच्छा एवं लोकपाल-पद पानेकी कामना हो तो वह रुद्रकलशसे स्नान करे। किसी एक कलशके जलसे स्नान करनेपर भी मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है। यदि साधक ब्राह्मण है तो उसे अव्याहत ज्ञान होता है। नवों कलशोंसे स्नान करनेसे तो मनुष्य पापमुक्त होकर साक्षात् भगवान् विष्णुके तुल्य सर्वतः परिपूर्ण हो जाता है।
पूजाके अन्तमें गुरुकी आज्ञासे सबकी प्रदक्षिणा करे। फिर गुरुदेव प्राणायामसहित आग्नेयी एवं वारुणी-धारणाद्वारा विधिपूर्वक शिष्यका अन्तःकरण शुद्धकर उसे सोमरससे आप्यायितकर दीक्षाके प्रतिज्ञा-वचन सुनायें। इस प्रकार ब्राह्मणों, वेदों, विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, आदित्य, अग्नि, लोकपाल, ग्रहों, वैष्णव-पुरुषों और गुरुके सम्मान करनेवाले पुरुषको दीक्षाद्वारा शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।
दीक्षाके अन्तमें प्रज्वलित अग्निमें-'ॐ नमो भगवते सर्वरूपिणे हुं फट् स्वाहा'-इस सोलह अक्षरवाले मन्त्रद्वारा हवनकी विधि है। गर्भाधा आदि संस्कारों में जैसी हवनकी क्रियाएँ होती हैं वैसी ही यहाँ भी कर्तव्य हैं। हवनके बाद र्या दीक्षा-प्राप्त शिष्य किसी देशका राजा हो तो वः गुरुके लिये हाथी-घोड़ा, सुवर्ण, अन्न और गाँआदि अर्पण करे। यदि दीक्षित साधक मध्यम श्रेणीका व्यक्ति है तो वह साधारण दक्षिणा दे।
दीक्षाके अन्तमें साधक पुरुष यदि वराहपुराण सुनता है तो उससे सभी वेद, पुराण औ सम्पूर्ण मन्त्रोंके जपका फल प्राप्त होता है पुष्कर-तीर्थ, प्रयाग, गङ्गा-सागर-सङ्गम, देवालय कुरुक्षेत्र, वाराणसी, ग्रहण तथा विषुवयोगमें उत्तम जप करनेवालेको जो फल होता है, उससे दून फल जो दीक्षित पुरुष इस वराहपुराणको सुनत है, उसे प्राप्त होता है। प्राणियोंको धारण करनेवाली पृथ्वी देवि! देवता लोग भी ऐसे कामना करते हैं कि कब ऐसा सुअवसर प्राप्त होगा, जब भारतवर्षमें हमारा जन्म होगा और हम दीक्षा प्राप्तकर किसी प्रकारसे षोडशकलात्मक वराहपुराण सुन सकेंगे तथा इस देहक त्यागकर उस परम स्थानको जायेंगे, जहाँसे पुनः वापस नहीं होना पड़ता।
अन्न-दानके विषयमें महात्मा वसिष्ठ एवं श्वेतका संवादात्मक एक बहुत पुराना इतिहाससच्ची कथा कही जाती है। वसुंधरे! इलावृतवर्षमें श्वेत नामके एक महान् तपस्वी राजा थे। उन नरेशने हरे-भरे वृक्षोंवाले वनसहित यह पृथ्वी दान करनेके विचारसे तपोनिधि वसिष्टजीसे कहा-'भगवन्! मैं ब्राह्मणोंको यह समूची पृथ्वी दान करना चाहता हूँ। आप मुझे आज्ञा देनेकी कृपा करें।' इसपर वसिष्ठजीने कहा-'राजन्! अन्न सभी समयमें (पुण्यफलके स्वरूप) सुख देनेवाला है। अतः तुम सदा अन्नदान करो।
जिसने अन्नदान कर दिया, उसके लिये भूतलपर दूसरा दान कोई शेष न रहा। सम्पूर्ण दानोंमें अन्नदान ही श्रेष्ठ है। अन्नसे ही प्राणी जीवन धारण करते और बढ़ते हैं, अतः राजन्! तुम प्रयत्नपूर्वक अन्नदान करो।' किंतु राजा श्वेतने वैसा न कर बहुत-से हाथी-घोड़े, रत्न, वस्त्र, आभूषण, धनधान्यसे पूर्ण अनेक नगर एवं खजानेमें जो धन था, उसे ही ब्राह्मणोंको बुलाकर दान किया।
एक समयकी बात है उत्तम धर्मके ज्ञाता राजा श्वेतने सम्पूर्ण पृथ्वीपर विजय प्राप्त करके अपने पुरोहित वसिष्ठजीसे, जो जपकर्ताओंमें सर्वोत्तम माने जाते हैं, कहा-'भगवन्! मैं एक हजार अश्वमेध-यज्ञ करना चाहता हूँ। फिर राजा श्वेतने उनकी अनुमतिसे यज्ञकर ब्राह्मणोंको बहुत-से सोना, चाँदी और रत्न दानमें दिये, किंतु उन राजाने उस समय भी अन्न और जलका दान नहीं किया; क्योंकि वे अन्न और जलको तुच्छ वस्तु समझते थे। अन्तमें कालधर्मके वश होकर जब वे परलोक पहुँचे तो वहाँ उन्हें भूख और विशेषकर प्यास सताने लगी। अतः वे अप्सराओंसहित
स्वर्गको छोड़कर श्वेतपर्वतपर पहुंचे। उनके पूर्वजन्मका शरीर उस समय भस्म हो गया था। अत: भूखे राजा श्वेतने अपनी हड्डियोंको एकत्रकर चाटना प्रारम्भ किया। फिर विमानपर चढ़कर वे स्वर्गमें गये। इसी प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जानेके बाद उत्तम व्रती उन राजा श्वेतको महात्मा वसिष्ठने अपनी हड़ियाँ चाटते हुए देखा। उन्होंने पूछा-'राजन्! तुम अपनी हड्डी क्यों चाट रहे हो?' महात्मा वसिष्ठके ऐसी बात कहनेपर राजा श्वेतने उन मुनिवरसे ये वचन कहे-'भगवन्! मुझे क्षुधा सता रही है। मुनिवर ! पूर्वजन्ममें मैंने अन्न और जलका दान नहीं किया, अतः इस समय मुझे भूख-प्यास कष्ट दे रही है।' राजा श्वेतके ऐसा कहनेपर मुनिवर वसिष्ठजीने पुनः उनसे कहा'राजेन्द्र ! मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ? अदत्तदानका फल किसी प्राणीको नहीं मिलता। रत्न और सुवर्णका दान करनेसे मनुष्य सम्पत्तिशाली तो बन सकता है, पर अन्न और जल देनेसे उसकी सभी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं; वह सर्वथा तृप्त हो जाता है। राजन्! तुम्हारी समझमें अन्न अत्यन्त तुच्छ वस्तु थी। अत: तुमने उसका दान नहीं किया।
राजा श्वेत बोले-अब मेरी, जिसने अन्नदान नहीं किया, तृप्ति कैसे होगी? यह मैं सिर झुकाकर आपसे पूछता हूँ, महामुने! बतानेकी कृपा कीजिये।
वसिष्ठजीने कहा-अनघ! इसका एक उपाय है, उसे सुनो। पूर्वकल्पमें विनीताश्व नामके एक बड़े प्रसिद्ध राजा हो चुके हैं, उन नरेशने कई अश्वमेध-यज्ञ किये। यज्ञोंमें ब्राह्मणोंको बहुत-सी गौएँ, हाथी और धन दिये, तुच्छ समझकर अन्नका दान नहीं किया। इसके बाद बहुत समय बीत जानेपर वे मरकर स्वर्ग पहुँचे और वहाँ वे राजा भी तुम्हारी ही तरह भूखसे दु:खका अनुभव करने लगे। फिर सूर्यके समान प्रकाशमान विमानपर
चढ़कर वे स्वर्गसे मर्त्यलोकमें नीलपर्वतपर गङ्गा नदीके तटपर, जहाँ उनका निधन हुआ था, पहुँचे
और अपने शरीरको चाटने लगे। उन्होंने वहीं अपने 'होता' पुरोहितको देखकर पूछा-'भगवन्! मेरी क्षुधा मिटनेका उपाय क्या है?' होताने उत्तर दिया-'राजन्! आप 'तिलधेनु', 'जलधेनु', 'घृतधेनु' तथा 'रसधेनु' का दान करें-इससे क्षुधाका क्लेश तुरंत शान्त हो जायगा। जबतक सूर्य तपते हैं, चन्द्रमा प्रकाश पहुँचाते हैं, तबतकके लिये इससे आपकी क्षुधा शान्त हो जायगी।' ऐसी बात कहनेपर राजाने मुनिसे फिर इस प्रकार पूछा।
विनीताश्व बोले-ब्रह्मन् ! तिलधेनु'-दानका विधान क्या है? विप्रवर! मैं यह भी पूछता हूँ कि उसका पुण्य स्वर्गमें किस प्रकार भोगा जाता है, आप कृपया यह सब हमें बतलायें।
होता बोले-राजन्! 'तिलधेनु'का विधान सुनो। (मानशास्त्रके अनुसार) चार कुडवका एक 'प्रस्थ' कहा गया है, ऐसे सोलह प्रस्थ तिलसे धेनुका स्वरूप बनाना चाहिये। इसी प्रकार चार 'प्रस्थ'का एक बछड़ा भी बनाना चाहिये। चन्दनसे उस गायकी नासिकाका निर्माण करे और गुड़से उसकी जीभ बनायी जाय। इसी प्रकार उसकी पूँछ भी फूलकी बनाकर फिर घण्टा और आभूषणसे अलंकृत करना चाहिये।
ऐसी रचना करके सोनेके सींग बनवाये। उसकी दोहनी काँसेकी और खुर सोनेके हों, जो अन्य धेनुओंकी विधिमें निर्दिष्ट है। तिलधेनुके साथ मृगचर्म वस्त्ररूपमें सर्वोषधिसहित मन्त्रद्वारा पवित्रकर उसका दान करना सर्वोत्तम है। दानके समय प्रार्थना करे-तिलधेनो! तुम्हारी कृपासे मेरे लिये अन्नजल एवं सब प्रकारके रस तथा दूसरी वस्तुएँ भी सुलभ हों। देवि! ब्राह्मणको अर्पित होकर तुम हमारे लिये सभी वस्तुओंका सम्पादन करो।'
ग्रहीता ब्राह्मण कहे कि 'देवि! मैं तुम्हें श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर रहा हूँ, तुम मेरे परिवारका भरणपोषण करो। देवि! तुम मेरी कामनाओंको पूरी करो। तुम्हें मेरा नमस्कार है।' राजन् ! इस प्रकार प्रार्थनाकर तिलधेनुका दान करना चाहिये। ऐसा करनेसे सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होती हैं। जो व्यक्ति
श्रद्धाके साथ इस प्रसङ्गको सुनता या तिलधेनुका दान करता है अथवा दूसरेको दान करनेकी प्रेरणा करता है, वह समस्त पापोंसे छूटकर विष्णुलोकमें जाता है। गोमयसे मण्डल बनाकर गोचर्म* * (सप्तहस्तेन दण्डेन त्रिंशद्दण्डान्निवर्तनम् । दश तान्येव गौचर्म दत्त्वा स्वर्गे महीयते॥ इस (पद्म उत्त० ३३।८-९, मार्क०पुरा० ४९ । ३९, शातातप १ । १५)-के वचनानुसार-सात हाथका दण्ड, तीस दण्डका निवर्तन और दस निवर्तनका 'गोचर्म'मान होता है।
जितनी भूमिमें धेनुके आकारकी तिलधेनु होनी चाहिये।)