61-काम-व्रत

अगस्त्यजी कहते हैं-राजेन्द्र ! अब मैं कामव्रत' कहता हूँ, सुनो। इस व्रतके प्रभावसे मनमें उठी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं। यह व्रत पौषमासके शुक्लपक्षमें होता है तथा यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। इसमें पञ्चमी तिथिके दिन भोजनकर षष्ठीके दिन फलाहारपर रह जाय। अथवा यह भी नियम है कि बुद्धिमान् पुरुष षष्ठीके दिन दोपहरमें फलाहार करे और रातमें मौन होकर ब्राह्मणोंके साथ शुद्ध भात खाय या केवल फलाहारपर ही व्रत करे। षष्ठीको परा दिनभर उपवास रहकर सप्तमी तिथिमें पारणा करनी चाहिये। इसमें भगवान् कार्तिकेयकी पूजाकर हवन करना चाहिये। इस प्रकार एक वर्षपर्यन्त व्रत करे। षडानन, कार्तिकेय, सेनानी, कृत्तिकासुत, कुमार और स्कन्द-इन नामोंसे विष्णु ही प्रतिष्ठित हैं। अतः उनके इन नामोंसे ही उनकी पूजा करनी चाहिये। व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणको भोजन कराये और षण्मुखकी सुवर्णमयी प्रतिमा ब्राह्मणको दे। वस्त्रसहित प्रतिमा ब्राह्मणको देते समय व्रती इस प्रकार प्रार्थना करे-'भगवान् कार्तिकेय! आपकी कृपासे मेरी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो जायें।' फिर ब्राह्मणको लक्ष्य कर कहे-'ब्राह्मण देवता! मैं भक्तिपूर्वक यह प्रतिमा देता हूँ, आप कृपापूर्वक इसे स्वीकार करें।' इस प्रकारके दानमात्रसे व्रतीके इस जन्मकी समस्त कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं। संतानहीनको पुत्र, धनकी इच्छावालेको धन तथा राज्य छिन जानेवालेको राज्य सुलभ हो सकता है-इसमें कुछ भी अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। महाराज! इस व्रतका पूर्व समयमें ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए राजा नलने अनुष्ठान किया था। उस समय वे ऋतुपर्णके राज्यमें निवास करते थे। नृपवर! प्राचीन कालके बहुतसे अन्य प्रधान नरेशोंने भी हाथसे राज्य निकल जानेपर कामनासिद्धिके लिये इस व्रतका आचरण किया था।