80-मेरुपर्वतकी नदियाँ

भगवान् रुद्र कहते हैं-मेरुपर्वतके दक्षिण दिशामें बहुत-से पहाड़ एवं नदियाँ हैं। यह सिद्धोंकी आवासभूमि है। शिशिर और पतङ्ग नामक पर्वतके मध्यभागमें एक स्वच्छ भूमि है। वहाँ दिव्य एवं मुक्त स्त्रियाँ रहती हैं और वहाँके वृक्ष भी गलित पत्र हो गये हैं। वहीं इक्षुक्षेप नामक शिखर है, जिसकी वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। उस शिखरपर बहुत सुन्दर गूलरके वृक्षोंका एक वन है, जिसकी पक्षी समुदाय सदा सेवा करता है। उस वनके वृक्षपर जब फल लगते हैं तो वे ऐसे सुशोभित होते हैं, मानो महान् कछुवे हों। सिद्धादि आठ प्रकारकी देवयोनियाँ उस वनमें सदा निवास करती और उस वनकी रक्षा करती हैं। उस स्थानपर स्वच्छ एवं स्वादिष्ठ जलवाली अनेक नदियाँ प्रवाहित होती हैं, जहाँ कर्दमप्रजापतिका आश्रम है। वह सौ योजन परिमाणके एक वृत्ताकार वनसे घिरा है। वहीं ताम्राभ और पतङ्ग-पर्वतके मध्यभागमें एक महान् सरोवर है, जो दो सौ योजन लम्बा और सौ योजन चौड़ा है

उसके चारों ओर प्रात:कालीन सूर्यके तुल्य हजारों पत्तोंसे परिपूर्ण कमल उस सरोवरकी शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ अनेक सिद्ध और गन्धर्वोका निवास है। उसके बीचमें एक महान् शिखर है, जिसकी लम्बाई तीन सौ योजन और चौड़ाई सौ योजन है। अनेक धातु और रत्न उसको सुशोभिता करते रहते हैं। उसके ऊपर एक बहुत लम्बीचौड़ी सड़क है, जिसके अगल-बगल में रत्नोंसे बनी हुई चहारदीवारियाँ हैं। उस सड़कके पास ही पुलोम विद्याधरका पूर है, जिसके परिवारके व्यक्तियोंकी संख्या एक लाख है। इसी प्रकार विशाख और श्वेतनामक पर्वतोंके मध्यभागमें भी एक नदी है, जिसके पूर्वीतटपर एक बड़ा विशाल आम्रका वृक्ष है। उस वृक्षको सोनेके समान चमकनेवाले, उत्तम गन्धोंसे युक्त तथा महान् घड़ेकी आकृतिवाले असंख्य फल सब ओरसे मनोहर बना रहे हैं। वहाँ देवताओं और गन्धर्वोका निवास है।

वहाँ सुमूल और वसुधार-ये दो प्रसिद्ध पर्वत हैं। इनके बीचमें तीन सौ योजन चौड़ी और पाँच सौ योजन लम्बी रिक्त भूमि है, जहाँ एक बिल्वका वृक्ष है। इससे भी बड़े घड़ेकी आकृतिवाले असंख्य फल गिरते रहते हैं। उन फलोंके रससे उस भूमिकी मिट्टी गीली हो जाती है और बिल्वफल खानेवाले गुह्यक लोग उस स्थलकी रक्षा करते हैं।

इसी प्रकार वसुधार और रत्नधार पर्वतोंके मध्यभागमें एक किंशुक अर्थात् पलाशका दिव्य वन है। वह वन सौ योजन चौड़ा और तीन सौ योजन लम्बा है। जब वह गन्धयुक्त वन फूलता है तब उसके पुष्पोंकी सुगन्धसे सौ योजनकी भूमि सुवासित हो जाती है। वहाँ जलकी कभी कमी नहीं होती और सिद्ध लोग वहाँ सदा निवास करते हैं। वहाँ भगवान् सूर्यका एक विशाल मन्दिर है। प्रजाओंकी रक्षा करनेवाले तथा जगत्के जनक भगवान् सूर्य वहाँ प्रतिमास अवतरित होते हैं, अतः देवतालोग वहाँ पहुँचकर उनकी स्तुति-नमस्कार आदिद्वारा आराधना करते हैं।

इसी प्रकार पञ्चकूट और कैलासपर्वतोंके बीचमें हंसपाण्डुर' नामसे प्रसिद्ध एक भूमिखण्ड है, जिसकी लम्बाई हजार योजन और चौड़ाई सौ योजन है। क्षुद्र प्राणी उसे लाँघने में असमर्थ हैं। वह भूभाग मानो स्वर्गकी सीढ़ी है। अब हम मेरुकी पश्चिम दिशाके पर्वतों एवं नदियोंका वर्णन करते हैं। सुपार्श्व और शिखिशैलसंज्ञक पर्वतोंके मध्यमें 'भौमशिलातल' नामक एक मण्डल है। वह चारों तरफ सौ योजनतक फैला है। वहाँकी भूमि सदा तपती रहती है, जिससे कोई इसे छू नहीं सकता। उसके बीचमें तीस योजनतक फैला हुआ अग्निदेवका स्थान है। वहाँ भगवान् नारायण लोकका संहार करनेके विचारसे 'संवर्तक' नामक अग्निका रूप धारणकर बिना लकड़ीके ही सर्वदा प्रज्वलित रहते हैं। यहीं कुमुद और अञ्जन-ये दोनों श्रेष्ठ शैल हैं। उनके बीचमें 'मातुलुङ्गस्थली' सुशोभित होती है। इसका विस्तार सौ योजन है। वहाँ जानेमें सभी प्राणी असमर्थ हैं। पीले रंगवाले फलोंसे उसकी बड़ी शोभा होती है। वहाँ सिद्ध पुरुषोंसे सम्पन्न एक पवित्र तालाब है। यहीं बृहस्पतिका भी एक वन है। ऐसे ही पिंजर और गौर नामवाले दो पर्वतोंके बीचमें छोटी-छोटी अनेक नदियाँ हैं। भँवरोंसे व्याप्त बड़े-बड़े कमल उन द्रोणियोंकी शोभा बढ़ाते हैं । वहाँ भगवान् नारायणका देवमन्दिर है। इसी प्रकार शुक्ल तथा पाण्डुर नामसे विख्यात महान् पर्वतोंके बीचमें तीस योजन चौड़ा तथा नब्बे योजन लम्बा एक पर्वतीय भाग है, जिसमें एक ही शिला है और वृक्ष एक भी नहीं है। वहाँ एक ऐसी बावली है, जिसका जल कभी तनिक भी नहीं हिलता। उसमें एक वृक्ष तथा एक 'स्थलपद्मिनी' है, जो अनेक प्रकारके कमलोंसे आवत है। वह वृक्ष उस वापीके मध्यभागमें है और वहीं पाँच योजन प्रमाणवाला एक बरगदका भी वृक्ष है। वहाँ भगवान् शंकर नीले वस्त्र धारण करके पार्वतीके साथ निवास करते हैं, जिनकी यक्ष, भूत आदि सदा आराधना करते हैं। 'सहस्रशिखर' और 'कुमुद'-इन दोनों पर्वतोंके बीचमें 'इक्षुक्षेप' नामक शिखर है, जो बीस योजन चौड़ा और पचास योजन लम्बा है। उस ऊँचे शिखरपर बहुतसे पक्षी निवास करते हैं। अनेक वृक्षोंके मधुर रसवाले फलोंसे उसकी विचित्र शोभा होती है। वहाँ चन्द्रमाका महान् आश्रम है, जिसका निर्माण दिव्य वस्तुओंसे हुआ है। ऐसे ही शङ्खकूट और ऋषभके मध्यभागमें 'पुरुषस्थली' है। इसी प्रकार कपिञ्जल और नागशैल नामसे प्रसिद्ध पर्वतोंके मध्यभागमें सौ योजन चौड़ी और दो सौ योजन लम्बी एक अधित्यका है, जहाँ बहुत-से यक्ष निवास करते हैं। वह स्थली दाख और खजूरके वृक्षोंसे व्याप्त है। इसी प्रकार पुष्कर और महादेवसंज्ञक पर्वतोंके बीचमें साठ योजन चौड़ा और सौ योजन लम्बा एक बड़ा उपवन है, जिसका नाम 'पाणितल' है। वृक्षों और लताओंका यहाँ एक प्रकार सर्वथा अभाव-सा है।