
राजा भद्राश्वने कहा- भगवन्! आप सभी ब्राह्मणोंमें प्रधान एवं दीर्घजीवी हैं। मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपके शरीरकी यह विशेषता क्यों और कैसी है? महानुभाव! आप मुझे यह बतलानेकी कृपा करें।
अगस्त्यजी बोले-राजन्! मेरा यह शरीर अनेक अद्भुत कुतूहलोंका भण्डार है। बहुत कल्प बीत चुके, किंतु अभी यह यों ही पड़ा है। वेद और विद्यासे इसका भलीभाँति संस्कार हुआ है। राजन्! एक समयकी बात है-मैं सम्पूर्ण भूमण्डलपर घूम रहा था। घूमते-घूमते मैं उस महान् 'इलावृत' नामक वर्षमें पहुँचा, जो सुमेरुपर्वतके पार्श्वभागमें है। वहाँ मुझे एक सुन्दर सरोवर दिखायी दिया। उसके तटपर एक विशाल आश्रम था। उस आश्रममें मुझे एक तपस्वी दीख पड़े, जिनका शरीर उपवासके कारण शिथिल पड़ गया था तथा शरीरमें केवल हड्डियाँ ही शेष रह गयी थीं। वे वृक्षकी छाल लपेटे हुए थे। महाराज!
उन तपस्वीको देखकर मैं सोचने लगा-ये कौन हैं? फिर मैंने उनसे कहा-'ब्रह्मन् ! मैं आपके पास आया हूँ। मुझे कुछ देनेकी कृपा करें।' तव उन मुनिने मुझसे कहा-'द्विजवर! आपका स्वागत है। ब्रह्मन्! आप यहाँ ठहरिये, मैं आपका आतिथ्य करनेके लिये उद्यत हूँ।'
राजन्! उन तपस्वीकी यह बात सुनकर मैं आश्रममें चला गया। इतने में देखता हूँ कि वे ब्राह्मणदेवता तेजसे मानो संदीप्त हो रहे हैं। मैं भूमिपर बैठ गया, अब उनके मुखसे हुंकारकी ध्वनि निकली, जिससे पातालका भेदनकर पाँच कन्याएँ निकल आयीं। उनमेंसे एकके हाथमें सुवर्णका पृष्ठासन (पीढ़ा) था। उसने बैठनेके लिये वह आसन मुझे दे दिया। दूसरेके हाथमें जल था। वह उससे मेरे दोनों पैरोंको धोने लगी। अन्य दो कन्याएँ हाथमें पंखे लेकर मेरी दोनों ओर खड़ी होकर हवा करने लगीं। इसके पश्चात् उन महान् तपस्वीने फिर हुंकार किया। इस शब्दके होते ही तुरंत एक नौका सामने आ गयी, जिसका विस्तार एक योजन था। राजन् ! सरोवरमें उस नावको एक कन्या चला रही थी। वह उसे लेकर आ गयी। उस नावमें सैकड़ों सुन्दर कन्याएँ थीं। सबके हाथमें सोनेके कलश थे। राजन्! वे कन्याएँ आ गयीं-यह देखकर उन तपस्वीने मुझसे कहा-'ब्रह्मन् ! यह सारी व्यवस्था आपके स्नानके लिये की गयी है। महाशय! आप इस नावपर विराजकर स्नान करें।' नरेन्द्र ! फिर उन तपस्वीके कथनानुसार ज्यों ही मैंने नावमें प्रवेश किया कि इतने में ही वह नौका सरोवरमें डूब गयी। उस नावके साथ मैं भी जलमें डूब गया। तबतक सुमेरुगिरिके शिखरपर वे तपस्वी और उनका दिव्य पुर मुझे अपने-आप दिखायी पड़े। सात समुद्र, पर्वत-समूह तथा सात द्वीपोंसे युक्त यह पृथ्वी भी वहाँ दृष्टिगोचर हुई। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजन्! आज भी जब मैं यहाँ बैठा हूँ तो वह उत्तम लोक मुझे स्मरण हो रहा है। मेरे मनमें इस प्रकारकी चिन्ता हो रही है कि कब मैं उस उत्तम लोकमें पहुँचूँगा। राजन्! ऐसा परब्रह्म परमात्माका कौतुक है, जो मैंने तुम्हें सुना दिया। यही मेरे शरीरकी घटना है। अब तुम दूसरा क्या सुनना चाहते हो!