
पृथ्वी बोली-प्रभो! 'कोकामुख' तीर्थकी अद्भुत महिमा सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। माधव! अब मैं यह जानना चाहती हूँ कि किस धर्म, तप अथवा कर्मक अनुष्ठानसे मनुष्य आपका दर्शन पा सकते हैं? प्रभो! कृपया प्रसन्न होकर आप मुझसे यह सारा प्रसङ्ग बतलाइये, यह मेरी प्रार्थना है।
भगवान् वराह बोले-देवि! पावस-ऋतुके बाद जलाशयोंके जल स्वच्छ हो जाते हैं, जब आकाश और चन्द्रमण्डल निर्मल दीखने लगते हैं, उस समय न अधिक शीत रहता है और न गर्मी। जब हंसोंका कलरव आरम्भ हो जाता है, कुमुद, रक्त कमल, नीले एवं अन्य कमलोंकी सुरभि सर्वत्र फैलने लगती है, उस समय कार्तिक मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथि मुझे अत्यन्त प्रिय है। उस अवसरपर जो मेरी पूजा करता है, मैं उसका फल बताता हूँ, सुनो-वसुंधरे! मेरा वह भक्त कल्पपर्यन्त धनी-लक्ष्मीका पात्र बना रहता है, जो दूसरे देवताके उपासकके लिये असम्भव है। माधवि! उस अवसरपर साधकको चाहिये कि मेरी आराधना कर इस स्तोत्रका पाठ करे। स्तोत्रका भाव यह है-'जगत्प्रभो! ब्रह्मा, रुद्र और ऋषि जिसकी पूजा एवं वन्दना करते हैं, लोकनाथ! उन आपकी आराधना करनेके उपयुक्त यह द्वादशी तिथि प्राप्त हुई है। आपसे मैं प्रार्थना करता हूँ, आप उठिये और निद्राका परित्याग कीजिये। मेघ चले गये, चन्द्रमाकी कलाएँ पूर्ण हो गयी हैं। शरद्-ऋतुमें विकसित होनेवाले पुष्प मैं आपको समर्पित करूँगा। अब आप जागनेकी कृपा करें। यशस्विनि ! इस प्रकार द्वादशीको पुष्पाञ्जलि अर्पित कर मेरी उपासना करनेवाले भक्तोंको परमगति प्राप्त होती है।
शिशिर-ऋतुमें वनस्पतियाँ नवीन हो जाती हैं। उस समयके पुष्पोंसे मेरी अर्चना करनेके लिये पृथ्वीपर घुटनोंके बल बैठकर हाथोंमें फूल
लेकर मेरा उपासक कहे-'तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाले प्रभो! आप संसारके स्रष्टा हैं। यह शिशिर-ऋतु भी आपका ही स्वरूप है। यह शीत-समय सबके लिये दुस्तर एवं दुःसह है। इस समय मैं आपकी आराधना करता हूँ। आप इस संसारसे मेरा उद्धार करनेकी कृपा कीजिये।'
वसुंधरे! जो पुरुष भक्तिसहित इस भावनाके साथ शिशिर-ऋतुमें मेरी पूजा करता है, उसे परम सिद्धि प्राप्त होती है। अब मैं तुम्हें एक दूसरी बात बताता हूँ, तुम उसे सुनो। मार्गशीर्ष
और वैशाख मास भी मुझे बहुत प्रिय हैं। उन मासोंमें मुझे पुष्पादि अर्पण करनेसे जो फल प्राप्त होता है, उसे मैं बतलाता हूँ। जो भाग्यशाली व्यक्ति मुझे पवित्र गन्ध-पुष्पादि पदार्थ अर्पित करता है, वह नौ हजार नौ सौ वर्षोंतक विष्णुलोकमें स्थिरतापूर्वक सुखसे निवास करता है-इसमें कोई संदेह नहीं। एक-एक गन्धयुक्त पुष्प-पत्र (या तुलसीपत्र*(•भगवनाज्ञापय इमं बहुतरं नित्यं वैशाखं चैव कार्तिकम् ॥ गृहाण गन्धपत्राणि धर्ममैवं प्रवर्धय ॥ नमो नारायणायेत्युक्त्वा गन्धयां प्रदापयेत् (१२३ । ३६-३७)। यहाँ यह ध्यान देनेकी बात है कि मूल वराहपुराणमें 'तुलसी' नहीं 'गन्धपत्र' शब्द ही प्रयुक्त है। हाजरा आदि कुछ विद्वानोंकी दृढ़ मान्यता है कि जिन पुराणोंमें 'तुलसी' शब्द नहीं है, वे अत्यधिक प्राचीन हैं। वेदोंमें भी 'तुलसी' शब्द नहीं है। )) देनेका यह महान् फल है। सदा श्रद्धासे सम्पन्न होकर चन्दन एवं पुष्पोंसे मेरी पूजा करनी चाहिये। जो पुरुष नियमपूर्वक रहकर कार्तिक, मार्गशीर्ष एवं वैशाखइन तीन महीनोंकी द्वादशी तिथियोंके दिन खिले हुए पुष्पोंकी वनमाला तथा चन्दन आदिको मुझपर चढ़ाता है, उसने मानो बारह वर्षोंतक मेरी पूजा कर ली। कार्तिक मासकी द्वादशी तिथिमें साखू वृक्षके फूल तथा चन्दनसे मेरी पूजा करनेका विधान है। भद्रे! इसी प्रकार मार्गशीर्ष मासमें चन्दन एवं कमलके पुष्पको एक साथ मिलाकर जो मुझे अर्पण करता है, उसे महान् फल प्राप्त होता है। - पृथ्वीदेवी भगवान्की बातोंको सुनकर हँस पड़ीं। पुनः वे नम्रतापूर्वक बोलीं-'प्रभो! वर्षमें तीन सौ साठ दिन तथा बारह मास होते हैं। उनमें आप केवल दो ही महीनोंकी द्वादशी तिथिकी ही मुझसे क्यों प्रशंसा करते हैं?' जब पृथ्वीदेवीने भगवान् वराहसे यह प्रश्न किया तब वराहभगवान्ने मुस्कुराते हुए कहा-देवि! जिस कारण ये दोनों मास मुझे अधिक प्रिय हैं, वह धर्मयुक्त वचन सुनो! तिथियोंमें द्वादशी तिथि सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है, क्योंकि इसकी उपासनासे सम्पूर्ण यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी अधिक फल प्राप्त होता है। हजारों ब्राह्मणोंको दान देनेका जो फल होता है, वह इस कार्तिक और वैशाख मासकी द्वादशीमें एकको ही दान देनेसे प्राप्त हो जाता है। क्योंकि इस कार्तिक मासकी द्वादशीके दिन मैं जगता हूँ और वैशाख मासकी द्वादशीमें सर्वशक्तिसम्पन्न हो जाता हूँ। वसुंधरे! इसके योगसे विपुल चिन्ता समाप्त हो जाती है। इसीसे मैंने इसकी महिमाका वर्णन किया है। इसलिये मेरे भक्त पुरुषको चाहिये कि मनको संयत रखकर वैशाख और कार्तिक मासकी द्वादशीके दिन हाथमें चन्दन, गन्ध और (तुलसी)पत्र लिये हुए इस मन्त्रका उच्चारण करे । मन्त्रका अर्थ यह है-'भगवन् ! ये वैशाख और कार्तिक मास सदा सभी मासोंमें श्रेष्ठ माने जाते हैं। इस अवसरपर आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं चन्दन और तुलसीपत्रोंको अर्पित करूँ और आप इन्हें स्वीकार करें। साथ ही मुझमें धर्मकी वृद्धि कीजिये।' फिर'ॐ नमो नारायणाय' कहकर चन्दन एवं तुलसीपत्र अर्पित करना चाहिये। अब मैं गन्धयुक्त पत्र-पुष्पोंके गुण और उन्हें चढ़ानेके फलका वर्णन करता हूँ। मानव पवित्र होकर हाथमें चन्दन, गन्ध (तुलसी)पत्र और फूल लेकर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का उच्चारण करते हुए उन्हें अर्पित करे। साथ ही यह मन्त्र कहे-'भगवन्! आप मुझे आज्ञा देनेकी कृपा करें। इन सुन्दर फूलों और मलयचन्दनसे मैं आपकी अर्चना करना चाहता हूँ। प्रभो! आपको मेरा नमस्कार है। इसे स्वीकार करें; मेरा मन परम पवित्र हो जाय-यह आपसे प्रार्थना है।' मेरे कर्ममें संलग्न रहनेवाला पुरुष, इन गन्ध-पुष्पोंको मुझे देता हुआ जो फल प्राप्त करता है, वह यह है कि उसका न पुनर्जन्म होता है और न मरण। उसके पास ग्लानि और क्षुधा भी नहीं फटक पाती। वह देवताओंके वर्षसे एक हजार वर्षतक मेरे लोकमें स्थान पाता है। चन्दनयुक्त एक-एक पुष्प अर्पित करनेका ऐसा फल है।