91-92-त्रिशक्ति-माहात्म्यमें 'सृष्टि', 'सरस्वती' तथा 'वैष्णवी' देवियोंका वर्णन

भगवान् वराह कहते हैं-सुन्दर अङ्गोंसे शोभा पानेवाली वसुंधरे! उस 'सृष्टिदेवी 'का दूसरा विधान भी बहुत विस्तृत है, उसे बताता हूँ, सुनो-परमेष्ठी रुद्रके द्वारा जो वह तीन शक्तिवाली देवी बतायी गयी है, उसके प्रकरणमें सर्वप्रथम श्वेत वर्णवाली सृष्टिदेवीका प्रसङ्ग आया है। वह सम्पूर्ण अक्षरोंसे युक्त होनेपर भी "एकाक्षरा' कहलाती है। यह देवी कहीं तो 'वागीशा' और कहीं 'सरस्वती' कही जाती है और कहीं वह 'विश्वेश्वरी' और 'अमिताक्षरा' नामसे भी प्रसिद्ध है। कुछ स्थलोंमें उसीको 'ज्ञाननिधि' अथवा 'विभावरी' देवी भी कहते हैं। अथवा वरानने ! जितने भी स्त्रीवाची नाम हैं, वे सभी उसके नाम हैं, ऐसा समझना चाहिये।

विष्णुके अंशवाली 'वैष्णवी' देवीका वर्ण लाल है। उनकी आँखें बड़ी-बड़ी हैं तथा उनका रूप अत्यन्त मनोहर है। ये दोनों शक्तियाँ तथा तीसरी जो रुद्रके अंशसे अभिव्यक्त रौद्रीशक्ति है, भगवान् रुद्रको जाननेवालेके लिये एक साथ सिद्ध हो जाती है। देवी वसुंधरे! यह सर्वरूपमयी देवी एक ही है, परंतु (वह एक ही यहाँ इस प्रकार) तीन भेदोंसे निर्दिष्ट है। सुन्दरि! मैंने तुम्हारे सामने इसी सनातनी सृष्टि देवीका वर्णन किया है। स्थावर-जङ्गममय यह अखिल जगत् उस सृष्टि देवीसे ओतप्रोत है। जो यह सृष्टि देवी है, जिससे आदिकालमें अव्यक्तजन्मा ब्रह्माकी सृष्टिका सम्बन्ध हुआ था, उसकी (महिमाको जानकर) पितामह ब्रह्माने उचित शब्दोंमें (इस प्रकार) स्तुति की थी।

ब्रह्माजी बोले-देवि! तुम सत्यस्वरूपा, सदा अचल रहनेवाली, सबको आश्रय देने में कुशल, अविनाशी, सर्वव्यापी, सबको जन्म देनेवाली, अखिल प्राणियोंपर शासन करनेमें परम समर्थ, सर्वज्ञ, सिद्धि-बुद्धिरूपा तथा सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्रदान करनेवाली हो। सुन्दरि! तुम्हारी जय हो! देवि! ओंकार तुम्हारा स्वरूप है, तुम उसमें सदा विराजती हो, वेदोंकी उत्पत्ति भी तुमसे ही हुई है। मनोहर मुखवाली देवि! देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, पशु और वीरुध (वृक्ष-लता आदि)-इन सबका जन्म तुम्हारी ही कृपासे होता है। तुम्ही विद्या, विद्येश्वरी, सिद्धा और सुरेश्वरी हो।'

भगवान् वराह कहते हैं-वसुंधरे! जो वैष्णवी देवी तपस्या करनेके लिये मन्दराचल पर्वतपर गयी थी, अब उसका वर्णन सुनो-उस देवीने कौमारव्रत धारणकर विशाल-क्षेत्रमें एकाकी रहकर कठोर तप आरम्भ किया। बहुत दिनोंतक तपस्या करनेके पश्चात् उस देवीके मनमें विक्षोभ उत्पन्न हुआ, जिससे अन्य बहुत-सी कुमारियाँ उत्पन्न हो गयीं; उनके नेत्र बड़े सुन्दर एवं बाल काले और धुंघराले थे। उनके होठ बिम्बाफलके समान लाल थे और आँखें बड़ी-बड़ी थीं और उन कन्याओंके शरीरसे दिव्य प्रकाश फैल रहा था। ऐसी करोड़ों कुमारियाँ उस वैष्णवी देवीके शरीरसे प्रकट हुई थीं, फिर उस देवीने उन कुमारियोंके लिये सैकड़ों नगर और ऊँचे महलोंका निर्माण किया। उन भवनोंके भीतर मणियोंकी सीढ़ियाँ, अनेक जलाशय एवं छोटे-छोटे सुन्दर उपवन थे। उस मन्दराचलपर स्थित उन असंख्य भवनोंमें अब वे कन्याएँ निवास करने लगीं। शोभने ! उनमेंसे प्रधान-प्रधान कुछ कन्याओंके नाम इस प्रकार हैं-विद्युत्प्रभा, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्ति, गम्भीरा, चारुकेशी, सुजाता, मुञ्जकेशिनी, उर्वशी, शशिनी, शीलमण्डिता, चारुकन्या, विशालाक्षी, धन्या, चन्द्रप्रभा, स्वयम्प्रभा, चारुमुखी, शिवदूती, विभावरी, जया, विजया, जयन्ती और अपराजिता। इन देवियोंने भगवती वैष्णवीके अनुचरियोंका स्थान ग्रहण कर लिया। इतनेमें ब्रह्माके पुत्र तपोधन नारदजी एक दिन वहाँ अचानक आ गये। उन्हें देखकर वैष्णवीदेवीने विद्युत्प्रभासे कहा-तुम इन्हें यह आसन दो तथा पैर धोने और आचमन करनेके लिये जल भी बहुत शीघ्र इनके पास उपस्थित कर दो। इस प्रकार वैष्णवी देवीके कहनेपर विद्युत्प्रभाने मुनिवर नारदको आसन, पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया और वे भी देवीको नमस्कारकर आसनपर बैठ गये। अब वैष्णवीने उनसे कहा-'मुनिवर! इस समय आप किस लोकसे यहाँ पधारे हैं और आपका क्या कार्य है? नारदमुनिने कहा-'कल्याणि! मैं पहले ब्रह्मलोकमें गया था, फिर वहाँसे इन्द्रलोकमें और फिर कैलासपर्वतपर पहुँचा। देवेश्वरि! पुनः मेरे मनमें आपके दर्शनकी इच्छा हुई, अतः यहाँ आ गया। इस प्रकार कहकर श्रीमान् नारद मुनि वैष्णवी देवीकी ओर देखने लगे। नारद आश्चर्यसे चकित हो गये! उन्होंने मनमें सोचा। 'अहो! इनका रूप तो बड़ा विचित्र है। इनकी सुन्दरता, धीरता एवं कान्ति कैसी आश्चर्यकारिणी है। फिर इतनेपर भी इनकी उपरति-निष्कामता तो और ही आश्चर्यदायिनी है। यह सब देख नारदजी फिर कुछ खिन्न-से हो गये तथा सोचने लगे-'देवता, गन्धर्व, सिद्ध, यक्ष, किंनर और राक्षसोंकी स्त्रियों में भी कोई इतना सुन्दर नहीं है। विश्वकी अन्य स्त्रियोंमें भी कहीं ऐसा रूप नहीं दीखता। फिर नारदजी सहसा उठे और वैष्णवीदेवीको प्रणामकर आकाश मार्गद्वारा समुद्र में स्थित महिषासरकी राजधानीमें पहुँच गये। उसने ब्रह्माजीके वरप्रसादसे सारी देव-सेनाको पराजित कर दिया था। महिषासुरने सभी लोकोंमें विचरण करनेवाले नारदमुनिको आये देखकर बड़ी श्रद्धा-भक्तिसे पूजा की।

नारदमुनिने उस असुरसे कहा-असुरेन्द्र! सावधान होकर सुनो। विश्वमें रत्नके समान एक कन्या प्रकट हुई है। तुमने तो वरदानके प्रभावसे चर-अचर तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया है। दैत्य! मैं ब्रह्मलोकसे मन्दराचलपर गया, वहाँ मैंने देवीकी वह पुरी देखी, जो सैकड़ों कन्याओंसे व्याप्त है। उनमें जो सबसे प्रधान है वैसी देवताओं, दैत्यों और यक्षोंके यहाँ भी कोई सुन्दरी कन्या नहीं दिखायी देती। कहाँतक कहूँ, मैंने उसकी जैसी सुन्दरता देखी है तथा उसमें जितना सतीत्वका प्रभाव है, ऐसी कन्या समस्त ब्रह्माण्डमें भी कभी कहीं नहीं देखी। देवता, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध, चारण तथा सब अन्य दैत्योंके अधिपति भी उसी कन्याकी उपासना करते हैं। पर देवताओं और गन्धर्वोपर जो विजय प्राप्त करने में समर्थ न हो, ऐसा कोई भी व्यक्ति उस कन्याको जीतनेमें समर्थ नहीं है।

वसुंधरे! इस प्रकार कहकर नारद मुनि क्षणभर वहाँ ठहरकर फिर महिषासुरसे आज्ञा लेकर तुरंत वहाँसे प्रस्थित हो गये और वे जिधरसे आये थे, उधर ही आकाशकी ओर चले गये।