
भगवान् वराह कहते हैं-वसुंधरे! अब जिस कर्मके प्रभावसे प्राणीको पुनः गर्भमें नहीं जाना पड़ता, उसे बताता हूँ, तुम सुनो! यह सम्पूर्ण शास्त्रों एवं धर्मोंका निचोड़ है। जो बड़ासे-बड़ा कार्य करके भी अपनी प्रशंसा नहीं करता और जो सदा शुद्ध अन्तःकरणसे शास्त्रीय सत्कर्मोका अनुष्ठान करता रहता है, वह उन सत्-कर्मोके प्रभावसे भी पुनः जन्म नहीं पाता। जो मेरा सामर्थ्यशाली भक्त होकर सबपर कृपा करता है तथा कार्य और अकार्यके विषयमें जिसे पूर्ण ज्ञान है एवं जिसकी सम्पूर्ण धर्मों में श्रद्धा है, वह पुनः गर्भमें नहीं आता। जो सर्दी-गरमी, वातवर्षा और भूख-प्यासको सहता है, जो गरीब होनेपर भी लोभ, मोह एवं आलस्यसे दूर रहता है, कभी झूठ नहीं बोलता, किसीकी निन्दा नहीं करता, जो अपनी ही स्त्रीसे संतुष्ट रहता है, दूसरेकी स्त्रियोंसे दूर रहता है तथा जो सत्यवादी, पवित्र आत्मा एवं निरन्तर भगवान्का प्रिय भक्त है, वह मेरे लोकको प्राप्त होता है। जो संविभाग (बाँट)-कर खाता है, जो ब्राह्मणोंका भक्त है और जो सबसे मधुर वाणी बोलता है, वह कुत्सित योनियोंमें न जाकर मेरे लोकका अधिकारी होता है।
वसुंधरे! अब मैं तुम्हें एक दूसरा उपाय बतलाता हूँ, सुनो! जिसके प्रभावसे मेरी निरंतर उपासना करनेवाला पुरुष विकृत योनियों में नहीं जाता। जो कभी किसी जीवकी हिंसा नहीं करता, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें लगा रहता है और जो मन, कर्म, वचनसे पवित्र है, वह विकृत योनियोंमें नहीं पड़ता। जिसके मनमें सदा सर्वत्र समता है, जो मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझता है, जो बाल्यकालमें भी शान्तस्वभावसे रहनेवाला, इन्द्रियविजयी और सदा शुभ कार्यमें रत रहता है, उसे नीच योनि नहीं प्राप्त होती। जो दूसरे द्वारा किये अपकारोंपर कभी किंचिन्मात्र भी ध्यान नहीं देता, जिसे सदा कर्तव्य-कर्म ही स्मृत रहते हैं और जो सब कुछ यथार्थ बोलता है, वह नीच योनियोंमें नहीं पड़ता। जो व्यर्थ बातोंसे सदा दूर रहता है, जिसकी तत्त्वज्ञानमें अटल निष्ठा है, जो सदा अपनी वृत्तिमें तत्पर रहकर परोक्षमें भी कभी किसीकी निन्दा नहीं करता, उसे हीन योनियों में नहीं जाना पड़ता। भद्रे! जो ऋतुकालमें ही संतान-प्राप्तिकी इच्छासे अपनी स्त्रीसे सहवास करता और सदा मेरी उपासनामें लगा रहता है, वह साधक हीन योनिमें नहीं जाता।
वसुंधरे! अब एक दूसरी बात बताता हूँ, तुम उसे सुनो। जो सदा संयत रहनेवाले पुरुषोंका धर्म है और जिसको मनु, अङ्गिरा, शुक्राचार्य, गौतम मुनि, चन्द्रमा, रुद्र, शङ्ख-लिखित, कश्यप, धर्मदेव, अग्निदेव, पवनदेव, यमराज, इन्द्र, वरुण, कुबेर, शाण्डिल्यमुनि, पुलस्त्य, आदित्य, पितृगण और स्वयम्भू ब्रह्मा आदि वेद-धर्म-द्रष्टाओंने पृथक्पृथक् रूपसे देखा और वर्णन किया है, उस धर्मक पालनमें जो मनुष्य निश्चितरूपसे तत्पर रहकर अपने-आपमें परमात्माको देखता है, वह विकृत योनिमें न जाकर मेरे लोकमें जानेका अधिकारी है। जो अपने धर्मका पालन करता है तथा अपनी बुद्धिके अनुसार ठीक बोलता है, दूसरेकी निन्दासे दूर रहता है, सम्पूर्ण धर्मों में जिसकी निश्चित बुद्धि रहती है, जो दूसरोंके धर्मोकी निन्दा नहीं करता तथा जो अपने धार्मिक मार्गपर अटल रहता है, ऐसे उत्तम गुणोंसे युक्त एवं मेरे कर्मोका सम्पादन करनेवाला पुरुष विकृत योनिमें न जाकर मेरे लोकको ही प्राप्त होता है। जिनकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, जिन्होंने क्रोधपर पूरा नियन्त्रण कर लिया है, जो लोभ और मोहसे सदा दूर रहते हैं, जो विश्वके उपकारमें तत्पर हैं, जो देवता, अतिथि तथा गुरुमें श्रद्धा रखते हैं, जो कभी किसीकी हिंसा नहीं करते, मद्य-मांसका कभी सेवन नहीं करते, जो अनुचित भाव-बन्धन करनेकी चेष्टा नहीं करते, जो ब्राह्मणको 'कपिला' धेनुका दान करते हैं ऐसे धर्मसे युक्त पुरुष गर्भमें नहीं पड़ते; वे मेरे लोकको ही प्राप्त होते हैं। जो अपने सभी पुत्रोंके प्रति समता रखता है, क्रोधमें भरे हुए ब्राह्मणको देखकर भी उसे प्रसन्न करनेकी ही चेष्टा करता है, जो भक्तिपूर्वक कपिलागौका स्पर्श करता है, जो कुमारी कन्याके प्रति कभी अपवित्र भाव नहीं करता, जो कभी अग्निका लङ्घन नहीं करता, जो जलमें शौच नहीं करता एवं गुरुमें श्रद्धा-बुद्धि रखता है, जो उनकी तथा ईश्वरकी कभी निन्दा नहीं करता, इस प्रकारका धर्ममें तत्पर पुरुष निश्चय ही मुझे प्राप्त कर लेता है और वह पुरुष माताके गर्भमें न जाकर मेरे ही लोकको प्राप्त होता है।