112 - भगवान् न्की सेवामें परिहार्य बत्तीस अपराध

 

भगवान् वराह कहते हैं-भद्रे! आहारकी एक सुनिश्चित शास्त्रीय मर्यादा है। अतः मनुष्यको क्या खाना चाहिये और क्या नहीं खाना चाहिये, अब यह बताता हूँ, सुनो। माधवि! जो भोजनके लिये उद्यत पुरुष मुझे अर्पित करके भोजन करता है, उसने अशुभ कर्म ही क्यों न किये हों, फिर भी वह धर्मात्मा ही समझा जाने योग्य है। धर्मके जाननेवाले पुरुषको प्रतिदिन धान, यव आदि सब प्रकारके साधनमें सहायक (जीवनरक्षणीय) अन्नसे निर्मित आहारका ही सेवन करना चाहिये। अब जो साधनमें बाधक हैं, तुम्हें उन्हें बताता हूँ। जो मुझे अपवित्र वस्तुएँ भी निवेदन करके खाता है, वह धर्म एवं मुक्ति-परम्पराके विरुद्ध महान् अपराध करता है, चाहे वह महान् तेजस्वी ही क्यों न हो, यह मेरा पहला भागवत अपराध है। अपराधीका अन्न मुझे बिलकुल नहीं रुचता है। जो दूसरेका अन्न खाकर मेरी सेवा या उपासना करता है, यह दूसरा अपराध है। जो मनुष्य स्त्रीसङ्ग करके मेरा स्पर्श करता है, उसके द्वारा होनेवाला यह तृतीय कोटिका सेवापराध है। इससे धर्ममें बाधा पड़ती है। वसुंधरे! जो रजस्वला नारीको देखकर मेरी पूजा करता है, मैं इसे चौथा अपराध मानता हूँ। जो मृतकका स्पर्श करके अपने शरीरको शुद्ध नहीं करता और अपवित्रावस्थामें ही मेरी सपर्या में लग जाता है, यह पाँचवाँ अपराध है, जिसे मैं क्षमा नहीं करता। वसुंधरे! मृतकको देखकर बिना आचमन किये मेरा स्पर्श करना छठा अपराध है। पृथ्वि! यदि उपासक मेरी पूजाके बीचमें ही शौचके लिये चला जाय तो यह मेरी सेवाका सातवाँ अपराध है। वसुंधरे! जो नीले वस्त्रसे आवृत होकर मेरी सेवामें उपस्थित होता है, यह उसके द्वारा आचरित होनेवाला आठवाँ सेवा-अपराध है। जगत्को धारण करनेवाली पृथ्वि! जो मेरी पूजाके समय अनुचितअनर्गल बातें कहता है, यह मेरी सेवाका नवाँ अपराध है। वसुंधरे! जो शास्त्रविरुद्ध वस्तुका स्पर्श करके मुझे पानेके लिये प्रयत्नशील रहता है, उसका यह आचरण दसवाँ अपराध माना जाता है।

जो व्यक्ति क्रोधमें आकर मेरी उपासना करता है, यह मेरी सेवाका ग्यारहवाँ अपराध है, इससे मैं अत्यन्त अप्रसन्न होता हूँ। वसुंधरे! जो निषिद्ध कर्मोको पवित्र मानकर मुझे निवेदित करता है, वह बारहवाँ अपराध है। जो लाल वस्त्र या कौसुम्भ रंगके (वनकुसुमसे रँगे) वस्त्र पहनकर मेरी सेवा करता है, वह तेरहवाँ सेवा-अपराध है। धरे! जो अन्धकारमें मेरा स्पर्श करता है, उसे मैं चौदहवाँ सेवा-अपराध मानता हूँ। वसुंधरे! जो मनुष्य काले वस्त्र धारणकर मेरे कर्मोंका सम्पादन करता है, वह पंद्रहवाँ अपराध करता है। जगद्धात्रि! जो बिना धोती पहने हुए मेरी, उपचर्यामें संलग्न होता है, उसके द्वारा आचरित इस अपराधको मैं सोलहवाँ मानता हूँ। माधवि ! अज्ञानवश जो स्वयं पकाकर बिना मुझे अर्पण किये खा लेता है, यह सत्तरहवाँ अपराध है।

वसुंधरे! जो अभक्ष्य (मत्स्य-मांस) भक्षण करके मेरी शरणमें आता है, उसके इस आचरणको मैं अठारहवाँ सेवापराध मानता हूँ। वसुंधरे! जो जालपाद (बतख)-का मांस भक्षण करके मेरे पास आता है, उसका यह कर्म मेरी दृष्टिमें उन्नीसवाँ अपराध है। जो दीपकका स्पर्श करके बिना हाथ धोये ही मेरी उपासनामें संलग्न हो जाता है, जगद्धात्रि! उसका वह कर्म मेरी सेवाका बीसवाँ अपराध है। वरानने! जो श्मशानभूमिमें जाकर बिना शुद्ध हुए मेरी सेवामें उपस्थित हो जाता है, वह मेरी सेवाका इक्कीसवाँ अपराध है। वसुंधरे! बाईसवाँ अपराध वह है, जो पिण्याक (हींग)भक्षण कर मेरी उपासना में उपस्थित होता है।

देवि! जो सूअर आदिके मांसको प्राप्त करनेका यत्न करता है, उसके इस कार्यको मैं तेईसवाँ अपराध मानता हूँ। जो मनुष्य मदिरा पीकर मेरी सेवामें उपस्थित होता है, वसुंधरे! मेरी दृष्टि में यह चौबीसवाँ अपराध है। जो कुसुम्भ (करमी)-का शाक खाकर मेरे पास आता है, देवि! वह मेरी सेवाका पचीसवाँ अपराध है। पृथ्वि! जो दूसरेके वस्त्र पहनकर मेरी सेवामें उपस्थित होता है, उसके

 

 

उस कर्मको मैं छब्बीसवाँ अपराध मानता हूँ। वसुंधरे! सेवापराधोंमें सत्ताईसवाँ अपराध वह है, जो नया अन्न उत्पन्न होनेपर उसके द्वारा देवताओं और पितरोंका यजन न कर उसे स्वयं खा लेता है। देवि! जो व्यक्ति जूता पहनकर किसी जलाशय या बावलीपर चला जाता है, उसके इस कार्यको मैं अट्ठाईसवाँ अपराध मानता हूँ। गुणशालिनि! शरीरमें उबटन लगाकर जो बिना स्नान किये मेरे पास चला आता है, यह पश्चात् मेरे लोकको चला जाता है। परम धर्म अहिंसामें परायण रहते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करना चाहिये। स्वयं अमानी, पवित्र और दक्ष रहकर सदा मेरे भजनके मार्गपर ही चलता रहे। साधक पुरुष इन्द्रियोंको जीतकर सेवा एवं नामादि अपराधोंसे निरन्तर बचा रहे। वह उदार हो और धर्मपर आस्था रखे, अपनी स्त्रीसे ही संतुष्ट रहे। शास्त्रज्ञ और सूक्ष्म बुद्धिसम्पन्न होकर मेरे मार्गपर आरूढ़ रहे। भद्रे! मेरी कल्पनामें चारों वर्गों के लिये सन्मार्गमें रहनेकी यही व्यवस्था है।

वसुंधरे! जो स्त्री आचार्यमें श्रद्धा रखती है, देवताओंकी भक्ति करती है, अपने स्वामीके प्रति निष्ठा एवं प्रीति रखती है और संसारमें भी उत्तम व्यवहार करती है, वह यदि पतिसे पहले मेरे लोकमें पहुँचती है, तो वह अपने स्वामीकी प्रतीक्षा करती है। यदि पुरुष मेरा भक्त है और अपनी पत्नीको छोड़कर मेरे धाममें पहले पहुँचता है, वह भी अपनी उस भार्याकी प्रतीक्षा करता है। देवि! अब कर्मों में दूसरे उत्तम कर्मको तुम्हारे सामने व्यक्त करता हूँ।

सुमुखि! ऋषिलोग भी मेरी उपासनामें स्थित रहते हुए भी मेरा दर्शन पाने में असमर्थ हैं। ऐसी स्थितिमें मेरे कर्मपरायण अन्य मनुष्योंकी तो बात ही क्या? माधवि! जो अन्य देवताओंमें श्रद्धा रखते हैं, उनकी बुद्धि मारी गयी है। वे मूर्ख मेरी मायाके प्रभावसे मुग्ध हैं, उनके चित्तमें पाप भरा हुआ है। ऐसे व्यक्ति मुझे पानेके अधिकारी नहीं हैं। भगवति! मोक्षकी इच्छा रखनेवाले जिन पुरुषोंद्वारा मैं प्राप्य हूँ, उन परम शुद्ध भाववाले पुरुषोंका विवरण सुनाता हूँ। देवि! यह आख्यान धर्मसे ओत-प्रोत है। इसे तुम्हें सुना चुका। माधवि! दुष्ट व्यक्तिको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। जो अश्रद्धालु व्यक्ति इसका अधिकारी नहीं है, जिसने दीक्षा नहीं ली है एवं जो कभी मेरे पास आनेका प्रयत्न नहीं करता, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। माधवि! दुष्ट, मूर्ख और नास्तिक व्यक्ति इस उपदेशको सुननेके अधिकारी नहीं हैं। देवि! यह मेरा धर्म महान् एवं ओजस्वी है, इसका मैं वर्णन कर चुका । अब सम्पूर्ण प्राणियोंके हितके लिये तुम दूसरा कौनसा प्रसङ्ग पूछना चाहती हो, वह बताओ। (यह अध्याय 'कल्याण'-साधनाङ्कके पृष्ठ ५३८ पर 'वराहपुराण' के नामोल्लेखपूर्वक उद्धृत है।)

 

 

113 - पूजाके उपचार

 

 

भगवान् वराह बोले-भद्रे! अब मैं प्रायश्चित्तोंका तत्त्वपूर्वक वर्णन करता हूँ, तुम उसे सुनो! भक्तको चाहिये, मन्त्रविद्याकी सहायतासे यथावत् सभी वस्तु मुझे वा अन्य देवताओंको अर्पण करे। फिर आगे कहे जानेवाले मन्त्रका उच्चारणकर दीवटका काष्ठ उठाना चाहिये। दीपकाष्ठका भूमिस्पर्श करना आवश्यक है, अतः जबतक वह पृथ्वीका स्पर्श न करे, तबतक दीपक जलाना निषिद्ध है। दीपक जलानेके पश्चात् हाथ धो लेना चाहिये। तत्पश्चात् पुनः इष्टदेवके पास उपस्थित होकर सर्वप्रथम उनके चरणोंकी वन्दना करनी चाहिये। फिर आगे कहे जानेवाले मन्त्र-भावसे भगवान्को दन्तधावन देना चाहिये। मन्त्रका भाव यह है-'भगवन्! प्रत्येक भुवन आपका स्वरूप है, आपके द्वारा सूर्यका तेज भी कुण्ठित रहता है, आप अनादि, अनन्त और सर्वस्वरूप हैं। यह दन्तधावन आप स्वीकार कीजिये।' वसुंधरे! तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब धर्मसे निर्णीत है। श्रीविग्रहके हाथमें दन्तधावन देकर पुनः यथावत् कर्म करना चाहिये। इष्टदेवके सिरसे निर्माल्य उतारकर उसे स्वयं अपने सिरपर रखे। सुन्दरि! इसके बाद जलसे हाथको शुद्धकर मुख-प्रक्षालन आदि कर्म करना चाहिये। फिर शुद्ध जलसे इष्टदेवताके मुखका प्रक्षालन करे। सुन्दरि ! इसका मन्त्र इस प्रकार है।(१. तद्भगवस्त्वं गुणांश आत्मनथापि गृह्ण वारिणः । इमा आपस्तु देवानां मुखान्यप्रक्षालयन् ॥ (१ । ११८।१०) )

इस मन्त्रसे पूजा करनेके फलस्वरूप पूजक संसारसे मुक्त हो जाता है। मन्त्रका भाव यह है-'भगवन्! आत्म (विष्णु)-स्वरूप इस जलको ग्रहण करें। इसी जलद्वारा अन्य देवताओंने भी सदा अपना मुख धोया है।' फिर पञ्चरात्र-मन्त्रद्वारा सुन्दर चन्दन, धूप-दीप और नैवेद्य अर्पण करना चाहिये। इसके बाद हाथमें पुष्पाञ्जलि लेकर यह प्रार्थना करे'भगवन् ! आप भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं। आप नारायणको मेरा नमस्कार है।' पुनः प्रार्थना करे'भगवन्! आपकी कृपासे मन्त्रके जाननेवाले यज्ञ करनेमें सफल होते हैं। प्राणियोंकी सृष्टि आपकी ही कृपासे होती है।' माधवि| इस प्रकार प्रातःकाल उठकर फिर अन्य फल हाथमें ले मुझमें श्रद्धा रखनेवाला ज्ञानी पुरुष पवित्र होकर मुझ देवेश्वरकी पूजा करे। सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न हो जानेपर वह भूमिपर डण्डेकी भाँति पड़कर साष्टाङ्ग प्रणाम करे ( २. साष्टाङ्ग प्रणाममें हृदय, सिर, नेत्र, मन, वचन, पैर, हाथ और घुटने-इन आठ अङ्गोका पृथ्वीसे स्पर्श होना चाहिये उरसा शिरसा दृष्ट्या मनसा वचसा तथा । पद्भ्यां कराभ्यां जानुभ्यां प्रणामोऽष्टाङ्ग उच्यते॥) और प्रार्थना करे-'भगवन्! आप मुझपर प्रसन्न हो जायँ।' फिर सिरपर अञ्जलि रखकर निम्नलिखित प्रार्थना करनी चाहिये- 'भगवन् ! शास्त्रोंके प्रभावसे आपकी जानकारी प्राप्त हो जानेपर साधककी यदि आपको पानेकी इच्छा

और चेष्टा होती है तो आप उसे प्राप्त हो जाते हैं। योगियोंको भी आपकी कृपासे ही मुक्ति सुलभ हुई, अतएव मैं भी आपके उपासना-कार्य करनेमें संलग्न हो गया हूँ। आपकी शास्त्रीय आज्ञाका मैंने सम्पादन किया है, इससे आप मुझपर प्रसन्न हो जायँ।' फिर मेरी भक्तिमें संलग्न रहनेवाला साधक पुरुष इस प्रकार शास्त्रकी विधिका पालनकर कुछ देरतक मेरी प्रदक्षिणा करे। मेरा भक्त कोई भी क्रिया उतावलेपनसे न करे। इस प्रकार सभी कार्य सम्पन्नकर मेरी भक्तिमें दृढ़ आस्था रखनेवाला पुरुष घृत तथा तेलसे मेरा अभ्यञ्जन करे। कार्य सम्पादन करनेवाला मन्त्रज्ञ व्यक्ति तेल, घृत आदि स्नेह-पदार्थोकी

ओर लक्ष्यकर एकाग्रचित्तसे इस प्रकार उच्चारण करे–'लोकनाथ! प्रेमके साथ मैं यह स्निग्ध

 

 

पदार्थ लेकर आपको अपने हाथसे अर्पण कर रहा हूँ। इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण लोकोंमें मुझे आत्मसिद्धि प्राप्त हो। भगवन्! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है। मेरे मुखसे जो अनुचित बात निकल गयी हो, उसे क्षमा कीजिये।'इस प्रकार कहते हुए सर्वप्रथम मेरे मस्तकपर स्नेह-पदार्थ (तेल या घी) लगाना चाहिये। पहले उसे मेरे दाहिने अङ्गमें लगाकर फिर बायें अङ्गमें लगाये। इसके बाद पीठमें लगाकर कटिभागमें लगानेकी विधि है। भद्रे! इसके पश्चात् अपने व्रतमें अटल रहनेवाला पुरुष गायके गोबरसे भूमिका उपलेपन करे। भद्रे! गोमयद्वारा उपलेपन करते समय देखने तथा सुननेसे प्राणीको जो पुण्य प्राप्त होता है, उसे मैं कहता हूँ, सुनो। साथ ही मैं अभ्यञ्जन करनेका पुण्य भी सुनाता हूँ। उनकी जितनी बूंदें (उस गोमयकी पृथ्वीपर तथा इत्र, तेल आदिकी) इष्टदेवके ऊपर गिरती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह श्रद्धालु पुरुष स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा पाता है। इसके पश्चात् उसे पुण्यात्माओंके लोक प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं, इस प्रकार जो भी मेरे गात्रोंमें तेल अथवा घृतसे अभ्यञ्जन करता है, वह एक-एक कणकी जितनी संख्याएँ होती हैं, उतने हजार वर्षांतक स्वर्गलोकमें रहता है और मेरे उस लोकमें उसकी महान् प्रतिष्ठा होती है।

भद्रे! अब जो उद्वर्तन (सुगन्धित वस्तुओंसे बना हुआ अनुलेप) मुझे प्रिय है, उसे बताता हूँ, जिससे मेरे अङ्ग तो शुद्ध होते ही हैं, मुझे प्रसन्नता भी प्राप्त होती है। कार्य-सम्पादन करनेवाला शास्त्रज्ञानी पुरुष लोध, पीपर, मधु, मधूक (महुवा), अश्वपर्ण अथवा रोहिण एवं कर्कट आदिके चूर्णको एकत्र करके उपलेपन बनाये तो मुझे अधिक प्रिय है। यह अनुलेपन अथवा अन्य अन्नोंके चूर्णद्वारा भी अनुलेपन बनाया जा सकता है। जिसके हाथोंद्वारा मेरा अनुलेप होता है, उसपर मैं बहुत प्रसन्न होता हूँ। क्योंकि यह अनुलेपन मेरे शरीरको बहुत सुख देनेवाला है। अत: इसे अवश्य करना चाहिये। यदि मेरी भक्ति करनेवाला परम सिद्धि चाहता है तो इस प्रकार अनुलेपन लगाकर मेरा स्नान कराये। इसके बाद आँवला और सुगन्धित उत्तम पदार्थोको एकत्र करे और दृढव्रती पुरुष उससे मेरे सम्पूर्ण गात्रोंको मले। तत्पश्चात् जलका घड़ा लेकर इस आशयका मन्त्र उच्चारण करे'भगवन्! आप देवताओंके भी देवता, अनादि, सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। आपका स्वरूप अत्यन्त शुद्ध है, व्यक्तरूपसे पधारकर यह स्नान स्वीकार कीजिये।' मेरे मार्गका अनुसरण करनेवाला पुरुष इस प्रकार कहकर मेरा स्नान कराये। घड़ा सोने अथवा चाँदीका हो। यदि ये द्रव्य न उपलब्ध हो सकें तो कर्मका ज्ञान रखनेवाला पुरुष मेरा ताँबेके घड़ेसे स्नान करा सकता है। इस प्रकार सविधिकर्मसे स्नान कराकर मन्त्रोंको पढ़ते हुए चन्दन अर्पण करना चाहिये। मन्त्रार्थ यह है"प्रभो ! सम्पूर्ण गन्धोंसे आपके मनमें प्रसन्नता प्राप्त होती है। ये चन्दन कई प्रकारके होते हैं, यह शास्त्रकी सम्मति है। ये सभी देवादि लोकोंमें उत्पन्न होते हैं। आपकी कृपासे सत्कार्योंमें इनका उपयोग होता है। मैंने आपके अङ्गोंमें लगानेके लिये इन पवित्र चन्दनोंको प्रस्तुत किया है। भक्तिसे संतुष्ट भगवन् ! आप इन्हें कृपाकर स्वीकार करें।'

इस प्रकार चन्दन आदि सुगन्धयुक्त पदार्थ एवं माला आदि अर्पण करके पूजन करनेका विधान है। कर्ममें श्रद्धा रखनेवाला कर्मशील पुरुष ऐसी अर्चना करके यह कहते हुए पुष्पाञ्जलि दे-'अच्युत! ये समयानुसार जलमें तथा स्थलमें उत्पन्न होनेवाले पवित्र पुष्प हैं। संसारसे मेरा उद्धार हो जाय, इसलिये यह पुष्प आप स्वीकार कीजिये! स्वीकार कीजिये!' इस प्रकार मेरे भागवत-सम्प्रदायोक्त विधिका पालन करते हुए मेरी अर्चना करनेके पश्चात् मुझे सुगन्धद्रव्योंसे बना हुआ धूप देना चाहिये। धूपसे मुझे बहुत प्रेम है। इसके प्रदानसे दाताके मातृ पितृकुलोंकी आत्मा पवित्र हो जाती है। विधिके साथ धूप लेकर यह मन्त्र पढ़ना चाहिये मन्त्र (१. वनस्पतिरसो दिव्यो बहुद्रव्यसमन्वितः। मम संसारमोक्षाय धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् । शान्तिर्वै सर्वदेवानां शान्तिर्मम परायणम्॥ सांख्यानां शान्तियोगेन धूपं गृह्ण नमोऽस्तु ते । त्राता नान्योऽस्ति मे कश्चित्वां विहाय जगद्गुरो॥ (११८।४४-४६) २. प्रीयतां भगवान्पुरुषोत्तमः श्रीनिवासः श्रीमानानन्दरूपः । गोप्ता कर्ताधिकर्ता मान्यनाथो भूतनाथ आदिरव्यक्तरूपः॥

क्षौम वस्त्रं पीतरूपं मनोज्ञं देवाङ्गे स्वे गावप्रच्छादनाय। (११८। ४९) )

का भाव यह है-'भगवन्! यह दिव्य धूप बहुत-से सुगन्धित द्रव्योंसे सम्पन्न है। इसमें वनस्पतिका रस भी सम्मिलित है। जन्म-मृत्युसे मुझे मोक्ष मिल जाय, इसलिये मैं आपको यह धूप निवेदित करता हूँ, आप इसे स्वीकार करनेकी कृपा कीजिये। भगवन् ! सम्पूर्ण देवताओं तथा प्राणियोंके लिये शान्ति सुलभ हो। मैं भी सदा शान्तिसे सम्पन्न रहँ। ज्ञानियोंकी योगभावमयी शान्तिसे आप धूप ग्रहण करें। आपको मेरा नमस्कार है। जगद्गुरो! आपके अतिरिक्त इस संसारसागरसे मेरा उद्धार करनेवाला दूसरा कोई नहीं है।'

इस प्रकार माला, चन्दन, अनुलेपन आदि सामग्रियोंसे पूजा करके रेशमी स्वच्छ वस्त्र, जिसका कुछ भाग पीले रंगका हो, निवेदित करना चाहिये। ऐसी अभ्यर्चना करनेके उपरान्त सिरपर अञ्जलि बाँधे हुए इस मन्त्रका पाठ करे। मन्त्रका भाव यह है-'सम्पूर्ण प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले भगवन्! आप पुरुषों में श्रेष्ठ हैं ! लक्ष्मी आपके पास शोभा पाती हैं, आपका विग्रह आनन्दमय है। आप ही सबके रक्षक, रचयिता और अधिष्ठाता हैं। प्रभो! आप आदि पुरुष हैं, आपका रूप सर्वथा दुर्दर्श, दुर्जेय है। आपके दिव्य अङ्गको आच्छादित करनेके लिये यह कौशेय (रेशमी) वस्त्र, जो कुछ पीले रंगसे सुशोभित एवं मनोहर है, मैं अर्पण करता हूँ।आप स्वीकार कीजिये।'

'देवि! फिर मुझे वस्त्रोंसे विभूषितकर हाथमें एक पुष्प ले और उससे आसनकी कल्पनाकर मुझे अर्पण करे। वस्त्र मेरे विग्रहके अनुसार होना चाहिये। पूजा करते समय प्रणव, धर्म एवं पुण्यमय विचारसे पूजनको सम्पन्न करना चाहिये। आसन अर्पण करनेके मन्त्रका भाव यह है'भगवन् ! यह आसन बैठने योग्य, आपकी प्रीति उत्पन्न करनेवाला, प्राज्ञकी रक्षामें उपयुक्त, प्राणियोंके लिये श्रेयोवह, आपके योग्य एवं सत्यस्वरूप है। इसे आप ग्रहण कीजिये। इस प्रकार श्लाघ्य नैवेद्य आदि पदार्थोंको

अर्पणकर मेरे मार्गका अनुसरण करनेवाला पुरुष यथाशीघ्र कल्पित मुख-प्रक्षालन देनेके लिये उद्यत हो जाय। पुनः पवित्र होकर देवताओंके लिये स्तुति करे-आप सभी लोग भगवत्परायण हों। फिर उत्तम जल लेकर अपनी शुद्धि करे। यों भगवान्को नैवेद्य अर्पण करके शेष प्रसाद हटा दे। इसके उपरान्त हाथमें ताम्बूल लेकर यह मन्त्र पढ़े। मन्त्रका भाव यह है"जगत्प्रभो! यह ताम्बूल सम्पूर्ण सुगन्धयुक्त पदार्थोंसे संयुक्त है। देवताओंके लिये सम्यक् प्रकारसे यह अलंकारका कार्य देता है। आप इसे स्वीकार करें, साथ ही आपकी प्रतिमाके प्रभावसे हमारा भवन विशिष्ट हो जाय। भगवन्! आपकी प्रसन्नताके लिये मैंने श्रीमुखमें यह श्रेष्ठ अलंकार अर्पण किया है। इससे मुखकी शोभा बढ़ती है। अतः आप इसे ग्रहण करनेकी कृपा कीजिये।' मेरा भक्त इन उपचारोंसे मेरी आराधना करे। इसके परिणामस्वरूप वह सदा मेरे महान् लोकोंको प्राप्तकर वहाँ नित्य निवास करता है।