
पृथ्वीने कहा-माधव! मैं आपके मुखारविन्दसे पूजनकी विधिका श्रवण कर चुकी। निश्चय ही इस कर्म (पूजा)-में संसारसे मुक्ति दिलानेकी सामर्थ्य है। भगवन्! अब मैं आपसे आपकी पूजाविधि एवं द्रव्योंके विषयमें कुछ जानना चाहती हूँ, आप इसे मुझे बतलानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह बोले-वसुंधरे ! जिस विधिसे पूजाकी वस्तु मुझको अर्पित करनी चाहिये, अब वह बताता हूँ, सुनो। सात प्रकारके अन्नोंको लेकर उनमें दूधका सम्मिश्रण करे। साथ ही मुझे मधूक और उदुम्बर आदिके शाक भी प्रिय हैं। माधवि! अब मेरे योग्य जो धान्य हैं, उन्हें कहता हूँ-अच्छे गन्धसे युक्त 'धर्मचिल्लिक' नामक शाक और लाल धानका चावल तथा अन्य उत्तम स्वादिष्ठ चावल मुझे प्रिय हैं। उत्तम कुकुम और मधु भी मुझे प्रिय हैं। आमोदा, शिवसुन्दरी, शिरीष और आकुल संज्ञक धानके चावल भी मेरे लिये उपयुक्त हैं। यवसे बने अनेक प्रकारके अन्न तथा शाक भी मेरे पूजनमें उपयुक्त होते हैं। मूंग, माष (उड़द), तिल, कंगुनी, कुल्थी, गेहूँ, साँवाँ-ये सभी मुझे प्रिय हैं। जब ब्रह्मयज्ञ विस्तृतरूपसे चल रहा हो, वेदके पारगामी विद्वान् यज्ञ करा रहे हों, उस समय मेरी प्रसन्नताके लिये ये वस्तुएँ मुझे अर्पण करनी चाहिये। यज्ञमें बकरी, भैंस आदि पशुओंका दूध, दही और घृत सर्वथा निषिद्ध हैं।
वसुंधरे! मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले कर्मों में जो वस्तुएँ योग्य हैं, उन्हें मैंने बतला दिया। मेरे भक्तोंको सुख पहुँचानेवाले उक्त पदार्थ भोज्य और कल्याणप्रद हैं। वसुंधरे! जिसे उत्तम सिद्धि पानेकी इच्छा हो, उसे इस प्रकार मेरा यजन करना चाहिये। इस विधिसे जो यजन करेंगे, वे कर्ममें कुशल पुरुष मेरी परम सिद्धि पानेके पूर्ण अधिकारी होंगे।
भगवान् वराह कहते हैं-'वसुंधरे! मेरा उपासक इन्द्रियोंको वशमें रखकर जो कुछ अन्न उपलब्ध हो, उसे ग्रहण करे। भामिनि! मैं नीचेऊपर, इधर-उधर, दिशाओं और विदिशाओं में तथा सभी जीवोंमें सर्वत्र विराजमान हूँ। अतएव जिसे परम गति पानेकी इच्छा हो, उसे चाहिये कि सब प्रकारसे सभी प्राणियोंको मेरा ही रूप जानकर उनकी वन्दना करे। प्रात:काल एक अञ्जलि जल लेकर पूर्वाभिमुख हो मेरी उपासना करनी चाहिये। 'ॐ नमो नारायणाय' यह मन्त्र जपना चाहिये। उसे यह भावना करनी चाहिये कि जो सम्पूर्ण संसार में श्रेष्ठ हैं, जिनकी 'ईशान' संज्ञा है, जो आदि पुरुष हैं, जो स्वभावतया ही कृपालु हैं, उन भगवान् नारायणका हम संसारसे अपने उद्धारके लिये यजन करते हैं।'
इसके बाद पश्चिमाभिमुख होकर फिर अञ्जलि भर जल हाथमें ले। साथ ही द्वादशाक्षर वासुदेवमन्त्र पढ़कर इस मन्त्रका उच्चारण करे- (यथा त देवः प्रथमादिकर्ता पुराणकल्पक्ष यथा विभूतिः । तथा स्थितं चादिमनन्तरूपममोघसंकल्पमनन्तमीडे॥ (१२०।११) )
'भगवन्! आप जिस प्रकार सर्वप्रथम संसारकी सृष्टि करनेवाले हैं, पुराण पुरुष हैं और परम विभूति हैं, वैसे ही आप आदि पुरुषके अनेक रूप भी हैं। आपका संकल्प कभी विफल नहीं होता। इस प्रकार अनन्तरूपसे विराजनेवाले आप (प्रभु)-को मैं नमस्कार करता हूँ।' इसके बाद उसी समयसे पुनः एक अञ्जलि जल हाथमें ले और उत्तरमुख खड़ा होकर 'ॐ नमो नारायणाय' कहकर इस मन्त्रका उच्चारण करे-'जो परम दिव्य, पुराण पुरुष हैं, आदि, मध्य और अन्तमें जिनकी सत्ता काम करती है, जिनके अनन्त रूप हैं, जो संसारको उत्पन्न करते तथा जो शान्तस्वरूप हैं, संसारसे मुक्त करनेके लिये जो अद्वितीय पुरुष हैं, उन जगत्स्रष्टा प्रभुका हम यजन करते हैं।"(१. यजामहे दिव्यपरं पुराणमनादिमध्यान्तमनन्तरूपम्। भवोद्भवं विश्वकर प्रशान्तं संसारमोक्षावहमद्वितीयम् ॥ (१२० । १३) )
इसके पश्चात् उसी समयसे दक्षिणाभिमुख होकर 'ॐ नमः पुरुषोत्तमाय' यह मन्त्र पढ़कर ऐसी धारणा करनी चाहिये कि 'जो यज्ञस्वरूप हैं, एवं जिनके अनन्त रूप हैं, सत्य और ऋत जिनकी अनादिकालसे संज्ञाएँ हैं, जो अनादिस्वरूप काल हैं तथा समयानुसार विभिन्न रूप धारण करते हैं, उन प्रभुको संसारसे मुक्त होनेके लिये हम भजते हैं।' तदनन्तर काष्ठकी भाँति अपने शरीरको निश्चल बनाकर, इन्द्रियोंको वशमें करते हुए, मनको भगवान्में लगाकर इस प्रकार धारणाकरे-'भगवन् ! सूर्य और चन्द्रमा आपके नेत्र हैं, कमलके समान आपकी आँखें हैं, जगत्में आपकी प्रधानता है, आप लोकके स्वामी हैं, तीनों लोकोंसे उद्धार करना आपका स्वभाव है, ऐसे सोमरस पीनेवाले आप (प्रभु)-का हम यजन करते हैं।' - वसुंधरे! यदि उत्तम गति पानेकी इच्छा हो तो साधकको तीनों संध्याओंमें बुद्धि, युक्ति और मतिकी सहायता लेकर इसी प्रकारसे मेरी उपासना करनी चाहिये। यह प्रसङ्ग गोपनीयोंमें परम गोपनीय, योगोंकी परम निधि, सांख्योंका परम तत्त्व और कर्मों में उत्तम कर्म है। देवि! मूर्ख, कृपण और दुष्ट व्यक्तिको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। किंतु जो दीक्षित, उत्तम शिष्य एवं दृढव्रती है, उसे ही इसे बताना उचित है। मुझ विष्णुके मुखारविन्दसे निकला हुआ यह गुह्य तत्त्व मरणकाल उपस्थित होनेपर भी बुद्धिमें धारण करने योग्य है। इसे कभी विस्मृत नहीं करना चाहिये। जो प्रातःकाल उठकर सदा इसका पाठ करता है, वह दृढव्रती पुरुष मेरे लोकमें स्थान पानेका अधिकारी है, इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं करना चाहिये। इस प्रकार जो व्यक्ति तीनों संध्याओंमें कर्मका सम्पादन करता है, वह हीन योनियोंमें कभी नहीं पड़ता।