88-89-क्रौञ्च और शाल्मलिद्वीपका वर्णन

भगवान् रुद्र बोले- अब आपलोग क्रौञ्चद्वीपका वर्णन सुनें। द्वीपोंके क्रममें यह चौथा द्वीप है। इसका परिमाण कुशद्वीपसे दुगुना है। वहाँ एक समुद्र है, जिसे दुगुने परिमाणवाले इस क्रौञ्चद्वीपने घेर रखा है। उस द्वीपमें सात प्रधान पर्वत हैं। पहला जो क्रौञ्च है, उसे लोग 'विद्युल्लता', 'रैवत' और 'मानस' भी कहते हैं। अन्य पर्वतोंके दो-दो नाम हैं। जैसेपावन-अन्धकार, अच्छोदक-देवावृत, सुरापदेविष्ठ, काञ्चनशृङ्ग-देवनन्द, गोविन्द-द्विविन्द और पुण्डरीक-तोयासह। ये सातों रत्नमय पर्वत क्रौञ्चद्वीपमें स्थित हैं, जो एक-से-एक अधिक ऊँचे हैं।

अब वहाँके वर्षों का वर्णन करता हूँ, उसे सुनो। इस क्रौञ्चद्वीपके वर्ष भी दो-दो नामोंसे पुकारे जाते हैं। जैसे-कुशल-माधव, वामकसंवर्तक, उष्णवान्-सप्रकाश, पावनक-सुदर्शन, अन्धकार-संमोह, मुनिदेश-प्रकाश और दुन्दुभिअनर्थ आदि। वहाँ नदियाँ भी सात ही हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-गौरी, कुमुद्वती, संध्या, रात्रि, मनोजवा, ख्याति और पुण्डरीका। ये सातों नदियाँ विभिन्न स्थानोंपर भिन्न नामोंसे पुकारी जाती हैं। गौरीको कहीं पुष्पवहा, कुमुद्वतीको आर्द्रवती, रौद्राको संध्या, सुखावहाको भोगजवा, क्षिप्रोदाको ख्याति और बहुलाको पुण्डरीका कहते हैं। देशके वर्ण-वैचित्र्यसे प्रभावित अनेकों छोटी-छोटी नदियाँ हैं। इस क्रौञ्चद्वीपके चारों तरफ घृत-समुद्र है, जो शाल्मलिद्वीपसे घिरा है।

भगवान् रुद्र कहते हैं-इस प्रकार चार द्वीपोंका वर्णन हो चुका, अब आपलोग पाँचवें द्वीप तथा वहाँके निवासियोंका वर्णन सुनें। यह पाँचवाँ 'शाल्मलिद्वीप' परिमाणमें 'क्रौञ्चद्वीप से दुगुना बड़ा है। यह द्वीप घृत-समुद्रके चारों ओर फैला हुआ है। घृत-समुद्रसे विस्तारमें यह दूना है। वहाँ सात प्रधान पर्वत और उतनी ही नदियाँ हैं। सभी पर्वत पीले सुवर्णमय हैं तथा उनके नाम हैं-सर्वगुण, सौवर्णरोहित, सुमनस, कुशल, जाम्बूनद और वैद्युत। ये कुलपर्वत कहलाते हैं। इन्हींके नामसे यहाँके सात वर्ष या खण्ड प्रसिद्ध हैं। अब छठे गोमेदद्वीपका वर्णन किया जाता है। जिस प्रकार शाल्मलिद्वीप 'सुरोद से घिरा हुआ है, वैसे ही 'सुरोद' भी अपने दुगुने परिमाणवाले 'गोमेद' से घिरा है। वहाँ दो ही प्रधान पर्वत हैं, जिनमें एकका नाम अवसर और दूसरेका नाम कुमुद है। यहाँ ईखके रसका समुद्र है। उस समुद्रसे दूने विस्तारमें पुष्करद्वीप है, जिससे वह घिर-सा गया है। वहाँ उस पुष्करपर ही मानस नामका एक पर्वत है। उसके भी दो भाग हो गये हैं। वे दोनों भाग बराबर-बराबर प्रमाणमें एकएक वर्ष बन गये हैं। उसके सभी भागोंमें मीठा जल मिलता है। इसके बाद अब कटाहका वर्णन किया जाता है। यह पृथ्वीका प्रमाण हुआ। ब्रह्माण्डकी लम्बाई-चौड़ाई कटाह (कड़ाहे)-की भाँति है। इस प्रकारके विधान किये हुए ब्रह्माण्ड-मण्डलोंकी संख्या सम्भव नहीं है। यह पृथ्वी महाप्रलयमें रसातलमें चली जाती है। प्रत्येक कल्पमें भगवान् नारायण वराहका रूप धारणकर इसे अपने दाढ़की सहायतासे वहाँसे ऊपर ले आते हैं और उन्हींकी कृपासे यह पृथ्वी समुचित स्थानपर स्थित हो पाती है। द्विजवरो! पृथ्वीकी लम्बाई-चौड़ाईका मान मैंने तुमलोगोंके सामने वर्णन कर दिया। तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं अपने निवासस्थान कैलासको जा रहा हूँ। |

भगवान् वराह कहते हैं-वसुंधरे ! इस प्रकार कहकर महात्मा रुद्र उसी क्षण कैलासके लिये चल पड़े और सम्पूर्ण देवता और ऋषि भी जहाँसे आये थे, वहाँ जानेके लिये प्रस्थित हो गये।

 

90-त्रिशक्ति-माहात्म्य* (*"वराहपुराण' का यह आख्यान बहुत प्रसिद्ध है। भास्कररायने 'ललितासहस्रनाम'-'सौभाग्य भास्करभाष्य के पृ० ११७, १३३, १३६, १४५-५०, १५४ (३ बार), १६१ आदिपर तथा सेतुबन्ध में भी पग-पगपर इस ('त्रिशक्तिमाहात्म्य')के श्लोकोंको उद्धृत किया है।)

और सृष्टिदेवीका आख्यान

भगवती पृथ्वीने पूछा-भगवन् ! कुछ लोग रुद्रको परमात्मा एवं पुण्यमय शिव कहते हैं, इधर दूसरे लोग विष्णुको ही परमात्मा कहते हैं। कुछ अन्य लोग ब्रह्माको सर्वेश्वर बताते हैं। वस्तुतः इनमेंसे कौन-से देवता श्रेष्ठ तथा कौन कनिष्ठ हैं? देव! मेरे मनमें इसे जाननेका कौतूहल हो रहा है। अतः आप इसे बतानेकी कृपा कीजिये।

भगवान् वराह कहते हैं- वरानने! भगवान् नारायण ही सबसे श्रेष्ठ हैं। उनके बाद ब्रह्माका स्थान है। देवि! ब्रह्मासे ही रुद्रकी उत्पत्ति है और वे रुद्र (तपःसाधनाके प्रभावसे) सर्वज्ञ बन गये। उन भगवान् रुद्रके अनेक प्रकारके आश्चर्यमय कर्म हैं। सुन्दरि! मैं उनके चरित्रोंका वर्णन करता हूँ, तुम उन्हें सुनो महान् रमणीय एवं नाना प्रकारके विचित्र धातुओंसे सुशोभित कैलास नामका एक पर्वत है, जो भगवान् शूलपाणि त्रिलोचन शिवका नित्यनिवास-स्थल है। एक दिनकी बात है-सम्पूर्ण प्राणिवर्गद्वारा नमस्कृत भगवान् पिनाकपाणि अपने सभी गणोंसे घिरे हुए उस कैलासपर्वतपर विराजमान थे और उनके पासमें ही भगवती पार्वती भी बैठी थीं। इनमेंसे किन्हीं गणोंका मुँह सिंहके समान था और वे सिंहकी ही भाँति गर्जना कर रहे थे। कुछ गण हाथीके समान मुखवाले थे तो कुछ गण घोड़ेकी मुखाकृतिके और कुछके मुख सूंस-जैसे भी थे। उनमें से कितने तो गाते, नाचते, दौड़ते और ताली ठोंकते, हँसते-किलकिलाते, गरजते और मिट्टीके ढेलोंको उठाकर परस्पर लड़ रहे थे। कुछ बलके अभिमान रखनेवाले गण मल्लयुद्धके नियमसे लड़ रहे थे। भगवान् रुद्रका देवी पार्वतीके साथ हास-विलास भी चल रहा था, इतनेमें ही अविनाशी ब्रह्माजी भी देवताओंके साथ वहाँ पहुँच आये। उन्हें आया देखकर भगवान् शिवने उनकी विधिपूर्वक पूजा की और उनसे पूछा'ब्रह्मन्! आप इस समय यहाँ कैसे पधारे? और आपके मनमें यह घबड़ाहट कैसी है?'

ब्रह्माजीने कहा-'अन्धक' नामके एक महान् दैत्यने सभी देवताओंको अत्यन्त पीड़ित कर रखा है। उससे त्राण पानेकी इच्छासे शरण खोजते हुए सभी देवता मेरे पास पहुँचे। तब मैंने इन लोगोंसे कहा कि 'हम सब लोग भगवान् शंकरके पास चलें।' देवेश! इसी कारण हम सभी यहाँ आये हुए हैं।

इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी पिनाकपाणि भगवान् रुद्रकी ओर देखने लगे। साथ ही उन्होंने उसी क्षण परम प्रभु भगवान् नारायणको भी अपने मनमें स्मरण किया। बस, तत्क्षण भगवान् नारायण-ब्रह्मा एवं रुद्र-इन दोनों देवताओंके बीचमें विराजमान हो गये। अब ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र-ये तीनों ही परस्पर प्रेमपूर्वक दृष्टिसे देखने लगे। उस समय उन तीनोंकी जो तीन प्रकारकी दृष्टियाँ थीं, अब एकरूपमें परिणत हो गयीं और इससे तत्काल एक कन्याका प्रादुर्भाव हुआ, जिसका स्वरूप परम दिव्य था। उसके अङ्ग नीले कमलके समान श्यामल थे तथा उसके सिरके बाल भी नीले घुघुराले एवं मुड़े थे। उसकी नासिका, ललाट और मुखकी सुन्दरता असीम थी। विश्वकर्माने शास्त्रोंमें जो अग्निजिह्वके -अङ्ग-लक्षण बतलाये हैं, वे सभी लक्षण सुन्दर प्रतिष्ठा पानेवाली उस कुमारी कन्यामें एकत्र दिखायी देते थे। अब ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वरइन तीनों देवताओंने उस दिव्य कन्याको देखकर पूछा-'शुभे! तुम कौन हो? और विज्ञानमयि! देवि! तुम क्या करना चाहती हो?' इसपर शुक्ल, कृष्ण एवं रक्त-इन तीन वर्षों से सुशोभित उस कन्याने कहा-'देवश्रेष्ठो! मैं तो आपलोगोंकी दृष्टि से ही उत्पन्न हुई हूँ। क्या आपलोग अपनेसे ही उत्पन्न अपनी पारमेश्वरी शक्ति मुझ कन्याको नहीं जानते?'

इसपर ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उस दिव्य कुमारीको वर दिया'देवि! तुम्हारा नाम 'त्रिकला' होगा। तुम विश्वकी सर्वदा रक्षा करोगी। महाभागे! गुणोंके अनुसार तुम्हारे अन्य भी बहुत-से नाम होंगे और उन नामोंमें सम्पूर्ण कार्योंको सिद्ध करनेकी शक्ति होगी। सुन्दर मुख एवं अङ्गोंसे शोभा पानेवाली देवि! तुममें जो ये तीन वर्ण दिखायी पड़ते हैं, तुम इनसे अपनी तीन मूर्तियाँ बना लो।'

देवताओंके इस प्रकार कहनेपर उस कुमारीने अपने श्वेत, रक्त और श्यामल रंगसे युक्त तीन शरीर बना लिये। ब्रह्माके अंशसे 'ब्राह्मी' (सरस्वती) नामक मङ्गलमयी सौम्यरूपिणी शक्ति उत्पन्न हुई, जो प्रजाओंकी सृष्टि करती है। सूक्ष्म कटिभाग, सुन्दररूप तथा लाल वर्णवाली जो दूसरी कन्या थी, वह 'वैष्णवी' कहलायी। उसके हाथमें शङ्ख एवं चक्र सुशोभित हो रहे थे। वह विष्णुकी कला कही जाती है तथा अखिल विश्वका पालन करती है, जिसे विष्णुमाया भी कहते हैं। जो काले रंगसे शोभा पानेवाली रुद्रकी शक्ति थी और जिसने हाथमें त्रिशूल ले रखा था तथा जिसके दाँत बड़े विकराल थे, वह जगत्का संहार-कार्य करनेवाली 'रुद्राणी' है। ब्रह्मासे प्रकट हुई श्वेत वर्णवाली कन्या 'विभावरी' कहलाती है। उस कुमारीके नेत्र खिले हुए कमलके समान सुन्दर थे। वह ब्रह्माजीके परामर्शसे अन्तर्धान होकर सर्वज्ञता प्राप्त करनेकी अभिलाषासे श्वेतगिरिपर तपस्या करनेके लिये चली गयी और वहाँ पहुँचकर उसने तीव्र तप आरम्भ कर दिया। इधर जो कुमारी भगवान् विष्णुके अंशसे अवतरित हुई थी, वह भी अत्यन्त कठोर तपस्या करनेका संकल्प लेकर मन्दराचल पर्वतपर चली गयी। तीसरी जो श्यामलवर्णकी कन्या थी तथा जिसके नेत्र बड़े विशाल और दाढ़ भयंकर थे तथा जो रुद्रके अंशसे उत्पन्न हुई थी, वह कल्याणमयी कुमारी तपस्या करनेके उद्देश्यसे 'नीलगिरि' पर चली गयी।

कुछ समयके पश्चात् प्रजापति ब्रह्माजी प्रजाओंकी सृष्टि में तत्पर हुए, पर बहुत समयतक प्रयास करनेपर भी प्रजाकी वृद्धि नहीं हुई। अब वे मनही-मन सोचने लगे कि क्या कारण है कि मेरी प्रजा बढ़ नहीं रही है। (भगवान् वराह पृथ्वीसे कहते हैं) सुव्रते! अब ब्रह्माजीने योगाभ्यासके सहारे अपने हृदयमें ध्यान लगाया तो श्वेतपर्वतपर स्थित 'सृष्टि' कुमारीकी तपस्याकी बात उनकी समझमें आ गयी। उस समय तपस्याके प्रभावसे उस कन्याके सम्पूर्ण पाप दग्ध हो चुके थे। फिर तो ब्रह्माजी कमलके समान नेत्रवाली वह दिव्य कुमारी जहाँ विराजमान थी, वहाँ पहुँचकर उस तपस्विनी दिव्य कुमारीको देखा और साथ ही वे ये वचन बोले-'कमनीय कान्तिवाली कल्याणि! तुम प्रधान कार्यकी अवहेलना करके अब तपस्या क्यों कर रही हो? विशाल नेत्रोंवाली कन्यके! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम वर माँग लो।'

'सृष्टि' देवीने कहा-'भगवन्! मैं एक स्थानपर नहीं रहना चाहती, इसलिये मैं आपसे यह वर माँगती हूँ कि मैं सर्वत्रगामिनी बन जाऊँ।' जब सृष्टिदेवीने प्रजापति ब्रह्मासे ऐसी बात कही, तब उन्होंने उससे कहा-'देवि! तुम सभी जगह जा सकोगी और सर्वव्यापिनी होगी। ब्रह्माजीके ऐसा कहते ही कमलके समान नेत्रोंवाली वह 'सृष्टि' देवी उन्हींके अमें लीन हो गयी। अब ब्रह्माजीकी सृष्टि बड़ी तेजीसे बढ़ने लगी और फिर शीघ्र ही उनके सात मानसपुत्र हुए। उन पुत्रोंसे भी अन्य संतानोंकी उत्पत्ति हुई। फिर उनसे बहुत-सी प्रजाएँ उत्पन्न हुई। इसके बाद स्वेदज, उद्भिज्ज, जरायुज और अण्डज-इन चार प्रकारके प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई। फिर तो चर-अचर प्राणियोंकी सृष्टिसे यह सारा विश्व ही भर गया। यह सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गमात्मक जगत् तथा सारा वाङ्मय विश्व-इन सबकी रचनामें उस 'सष्टि'देवीका ही हाथ है। उसीने भूत, भविष्य और वर्तमान-इन तीनों कालोंकी भी व्यवस्था की।'