95-महिषासुरका वध

भगवान् वराह बोले-वसुधे! अब इधर विद्युत्प्रभ नामक दैत्य भी महिषासुरको प्रणामकर चला और उसके दूतके रूपमें भगवती वैष्णवीके पास पहुँचा, जहाँ वे सैकड़ों अन्य कुमारियोंके साथ बैठी थीं। फिर बिना किसी शिष्टाचारके ही उसने उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

विद्युत्प्रभ बोला-"देवि! पूर्व समयकी बात है-सृष्टिके प्रारम्भमें सुपार्श्व नामक एक अत्यन्त ज्ञानी ऋषि थे। उनका जन्म सरस्वती-नदीके तटवर्ती देशमें हुआ था। सिन्धुद्वीप नामसे प्रसिद्ध उनके मित्र भी उन्हींके समान तेजस्वी एवं प्रतापी थे।माहिष्मती नामकी उत्तम पुरीमें उन्होंने निराहारका नियम लेकर कठिन तपस्या प्रारम्भ कर दी। विप्रचित्ति नामक दैत्यकी माहिष्मती नामकी कन्या बड़ी ही सुन्दरी थी। एक बार वह सखियोंके साथ घूमती हुई पर्वतकी उपत्यकामें गयी; जहाँ उसे एक तपोवन दिखायी पड़ा। उस तपोवनके स्वामी एक ऋषि थे। जो मौनव्रत धारणकर तपस्या कर रहे थे। उन महात्माका वह पवित्र आश्रम रम्य वनखण्डोंके कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ता था। जब विप्रचित्तिकुमारी माहिष्मतीने उसे देखा तो वह सोचने लगी-'मैं इस तपस्वीको भयभीत कर क्यों न स्वयं इस आश्रममें रहूँ और सखियोंके साथ आनन्दसे विहार करूँ।'

"ऐसा सोचकर उस दानवकन्या माहिष्मतीने अपना रूप एक भैंसका बनाया। उसके सिरपर अत्यन्त तीक्ष्ण सींग सुशोभित हो रहे थे। विश्वेश्वरि! वह राक्षसी अपनी सखियोंको साथ लेकर सपार्थ ऋषिके पास पहुँची। फिर तो सुन्दर मुखवाली उस दैत्यकन्याने सखियोंसहित वहाँ पहुँचकर ऋषिको डराना आरम्भ कर दिया। एक बार तो वे ऋषि अवश्य डर गये, पर पीछे उन्होंने ज्ञाननेत्रसे देखा तो बात उनकी समझमें आ गयी कि यह सुन्दर नेत्रवाली (भैंस नहीं) कोई राक्षसी है। अत: मुनिने क्रोधमें आकर उसे शाप दे दिया-'दुष्टे! तू भैंसका वेष बनाकर जो मुझे डरानेका प्रयास कर रही है, इसके फलस्वरूप तुझे सौ वर्षोंतक भैसके रूपमें ही रहना पड़ेगा।'

"ऋषिके इस प्रकार कहनेपर दानवकन्या माहिष्मती काँप उठी और उनके पैरोंपर गिरकर रोती हई कहने लगी-'मने! आप कृपया अपने इस शापको समाप्त कर दें। माहिष्मतीकी प्रार्थनापर दयालु मुनिने उसके शापके अन्तका समय बता दिया और उससे कहा-'भद्रे ! इस भैंसके रूपसे ही तुम एक पुत्र उत्पन्नकर शापसे मुक्त हो जाओगी. मेरी बात सर्वथा असत्य नहीं हो सकती।'

"ऋषिके यों कहनेपर माहिष्मती नर्मदानदीके तटपर गयी, जहाँ तपस्वी सिन्धुद्वीप तपस्या कर रहे थे। वहीं कुछ समय पूर्व एक दैत्यकन्या इन्दुमती जलमें नंगे स्नान कर रही थी। उसका रूप अत्यन्त मनोहर था। उसपर दृष्टि पड़त हो मुनिका रेत शिलाखण्डपर स्खलित हो गया, जो एक सोते-से होकर नर्मदामें आया। अब माहिष्मतीकी दृष्टि उसपर पड़ी। उसने अपनी सखियोंसे कहा-'मैं यह स्वादिष्ठ जल पीना चाहती हूँ।' और ऐसा कहकर वह उस रेतको पी गयी, जिससे उसे गर्भ रह गया। समयानुसार उससे एक पुत्रकी उत्पत्ति हुई, जो बड़ा पराक्रमी, प्रतापी और बुद्धिमान् हुआ और वही 'महिषासुर' नामसे प्रसिद्ध हुआ है। देवि! देवताओंके सैनिकोंको रौंदनेवाला वही महिष आपका वरण कर रहा है। अनघे! वह महान् असुर युद्धभूमिमें देवसमुदायको भी परास्त कर चुका है। अब वह सारी त्रिलोकीको जीतकर आपको सौंप देगा। अतः आप भी उसका वरण करें।"

दूतके ऐसा कहनेपर भगवती वैष्णवीदेवी बड़े जोरोंसे हँस पड़ीं। उनके हँसते समय उस दूतको देवीके उदरमें चर और अचरसहित तीनों लोक दीखने लगे। वह उसी क्षण आश्चर्यसे घबराकर मानो चक्कर खाने लगा। अब उस दूतके उत्तरमें देवीकी प्रतिहारिणी (द्वारपालिका)ने, जिसका नाम जया था, भगवती वैष्णवीके हृदयकी बात कहना प्रारम्भ किया।

जया बोली-'कन्याको प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवाले महिषने तुझसे जैसा कहा है, तुमने वैसी ही बात यहाँ आकर कही है। किंतु समस्या यह है कि इस वैष्णवीदेवीने सदाके लिये 'कौमार-व्रत' धारण कर रखा है। यहाँ इस देवीकी अनुगामिनी अन्य भी बहुत-सी वैसी ही कुमारियाँ हैं। उनमेंसे एक भी कुमारी तुम्हें लभ्य नहीं है। फिर स्वयं भगवती वैष्णवीके पानेकी तो कल्पना ही व्यर्थ है। दूत! तुम बहुत शीघ्र यहाँसे चले जाओ। तुम्हारी दूसरी कोई बात यहाँ नहीं हो सकेगी।'

इस प्रकार प्रतिहारिणीके कहनेपर विद्युत्प्रभ वहाँसे चला गया। इतने में ही परम तपस्वी मुनिवर नारदजी उच्च स्वरसे वीणाकी तान छेड़ते हुए आकाशमार्गसे वहाँ पहुंचे। उन मुनिने 'अहोभाग्य! अहोभाग्य!' कहते हुए उन कुमारीको प्रणाम किया और देवीद्वारा पूजित होकर वे सुन्दर आसनपर बैठ गये। फिर सम्पूर्ण देवियोंको प्रणामकर वे कहने लगे-'देवि! देवसमुदायने बड़े आदरसे मुझे आपके पास भेजा है; क्योंकि महिषासुरने संग्राममें उन्हें परास्त कर दिया है। देवि! यही नहीं, वह दैत्यराज आपको पानेके लिये भी प्रयत्नशील है। वरानने ! देवताओंकी यह बात आपको बताने आया हूँ। देवेश्वरि! आप डटकर उस दैत्यसे युद्ध करें तथा उसे मार डालें।'

भगवती वैष्णवीसे यों कहकर नारदजी तुरंत अन्तर्धान हो गये। वे इच्छानुसार वहाँसे कहीं अन्यत्र चले गये। अब देवीने सभी कन्याओंसे कहा-'तुम सभी अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित हो जाओ'। तब वे समस्त परम पराक्रमी कन्याएँ देवीकी आज्ञासे भयंकर आकार धारणकर ढाल, तलवार और धनुष आदि शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्ज हो दैत्योंका संहार करने तथा युद्ध करनेके विचारसे डट गयीं। इतनेमें ही महिषासुरकी सेना भी देवसेनाको छोड़कर वहीं आ गयी। फिर क्या था, उन स्वाभिमानिनी कन्याओं तथा दानवोंमें युद्ध छिड़ गया। उन कन्याओंके प्रयाससे असुरोंकी वह चतुरङ्गिणी सेना क्षणभरमें समाप्त हो गयी। कितनोंके सिर कटकर पृथ्वीपर गिर पड़े। अन्य बहुत-से दैत्योंकी छाती चीरकर क्रव्यादगण रक्त पीने लगे। अनेक प्रधान दानवोंके मस्तक कट गये और वे कबन्धरूपमें नृत्य करने लग गये।

इस प्रकार एक ही क्षणमें पापबुद्धिवाले वे असुर युद्धभूमिसे भाग चले। कुछ दूसरे दैत्य भागते हुए महिषासुरके पास पहुँचे। निशाचरोंकी उस विशाल सेनामें हाहाकार मच गया, उनकी ऐसी व्याकुलता देखकर महिषासुरने सेनापतिसे कहा-'सेनापते! यह क्या? मेरे सामने ही सेनाका ऐसा संहार?' तब हाथीके समान आकृतिवाले 'यज्ञहनु' (विरुपाक्ष)-ने महिषासुरसे कहा-'स्वामिन् ! इन कुमारियोंने ही चारों ओरसे हमारे सैनिकोंको भगा दिया है।' अब क्या था? महिषासुर हाथमें गदा लेकर उधर दौड़ पड़ा, जहाँ देवताओं एवं गन्धर्वोसे सुपूजित भगवती वैष्णवी विराजमान थीं। उसे आते देखकर भगवती वैष्णवीने अपनी बीस भुजाएँ बना ली और उनके बीसों हाथों में क्रमश: धनुष, ढाल, तलवार, शक्ति, वाण, फरसा, वज्र, शङ्ख, त्रिशूल, गदा, मूसल, चक्र, बरछा, दण्ड, पाश, ध्वज, घण्टा, पानपात्र, अक्षमाला एवं कमल-ये आयुध विराजमान हो गये। उन देवीने कवच भी धारण कर लिया और सिंहपर सवार हो गयीं। फिर उन्होंने देवाधिदेव, प्रलयंकर भगवान् रुद्रको स्मरण किया। स्मरण करते ही साक्षात् वृषध्वज वहाँ तत्क्षण पहुँच गये। उन्हें प्रणामकर देवीने सूचित किया-'देवेश्वर! मैं सम्पूर्ण दैत्योंपर विजय प्राप्त करना चाहती हूँ। सनातन प्रभो! बस, आप केवल यहाँ उपस्थित रहकर (रण-क्रीडा) देखते रहें।' यों कहकर भगवती परमेश्वरी सारी आसुरी सेनाका संहारकर महिषकी ओर दौड़ी। महिष भी अब उनपर बड़े वेगसे टूट पड़ा। वह दानवराज कभी लड़ता, कभी भागता और कभी पुनः मोर्चेपर डट जाता। शोभने! उस दानवका देवीके साथ देवताओंके वर्षसे दस हजार वर्षांतक यह संग्राम चलता रहा। अन्तमें वह डरकर सारे ब्रह्माण्डमें भागने लगा। फिर देवीने शतशृङ्गपर्वतपर*(* यह हिमालयका पुत्र कहा जाता है। पाण्डवोंका जन्म यहीं हुआ था। (महाभा० ११ १२२-२३) यहाँ (वैष्णवीदेवी जम्मूसे ४५ मील)-पर सिद्धि शीघ्र मिलती है। हरिविलास' तथा 'वैद्य-जीवन' के रचयिता घटिकाशतककर्ता लोलिम्बराज इन्हीं देवीके उपासक थे।) उसे पैरोंसे दबाकर शूलद्वारा मार डाला और तलवारद्वारा उसका सिर काटकर धड़से अलग कर दिया। महिषासुरका जीव शरीरसे निकलकर देवीके शस्त्र-निपातके प्रभावसे स्वर्गमें चला गया। उस अजेय असुरको पराजित देखकर ब्रह्माजीसहित सम्पूर्ण देवता देवीकी इस प्रकार स्तुति करने लगे।

देवताओंने स्तुति की-महान् ऐश्वर्योंसे सुसम्पन्न देवि! गम्भीरा, भीमदर्शना, जयस्था, स्थितिसिद्धान्ता, त्रिनेत्रा, विश्वतोमुखी, जया, जाप्या, महिषासुरमर्दिनी, सर्वगा, सर्वा, देवेशी, विश्वरूपिणी, वैष्णवी, वीतशोका, ध्रुवा, पद्मपत्रशुभेक्षणा, शुद्धसत्त्व-व्रतस्था, चण्डरूपा, विभावरी, ऋद्धिसिद्धिप्रदा, विद्या, अविद्या, अमृता, शिवा, शाङ्करी, वैष्णवी, ब्राह्मी, सर्वदेवनमस्कृता, घण्टाहस्ता, त्रिशूलास्त्रा, उग्ररूपा, विरूपाक्षी, महामाया और अमृतस्रवा-इन विशिष्ट नामोंसे युक्त हम आपकी उपासना करते हैं। आप परम पुण्यमयी देवीके लिये हमारा निरन्तर नमस्कार है। ध्रुवस्वरूपा देवि! आप सम्पूर्ण प्राणियोंकी हितचिन्तिका हैं। अखिल प्राणी आपके ही रूप हैं। विद्याओं, पुराणों और शिल्पशास्त्रोंकी आप ही जननी हैं। समस्त संसार आपपर ही अवलम्बित है। अम्बिके! सम्पूर्ण वेदोंके रहस्यों और सभी देहधारियोंके केवल आप ही शरण हैं। शुभे! आपको सामान्य जनता विद्या एवं अविद्या नामसे पुकारती है। आपके लिये हमारा निरन्तर शतश: नमस्कार है। परमेश्वरि! आप विरूपाक्षी, क्षान्ति, क्षोभितान्तर्जला और अमला नामसे भी विख्यात हैं। महादेवि! हम आपको बारंबार नमस्कार करते हैं। भगवती परमेश्वरि! रणसंकटके उपस्थित होनेपर जो आपकी शरण लेते हैं, उन भक्तोंके सामने किसी प्रकारका अशुभ नहीं आता। देवि! सिंह-व्याघ्रके भय, चोर-भय, राज-भय, या अन्य घोर भयके उपस्थित होनेपर जो पुरुष मनको सावधानकर इस स्तोत्रका सदा पाठ करेगा, वह इन सभी संकटोंसे छूट जायगा। देवि! कारागारमें पड़ा हुआ मानव भी यदि आपका स्मरण करेगा तो बन्धनोंसे उसकी मुक्ति हो जायगी और वह आनन्दपूर्वक सुखसे स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करेगा।

भगवान् वराह कहते हैं-सुन्दरी पृथ्वि! इस प्रकार देवताओंद्वारा स्तुति-नमस्कार किये जानेपर भगवती वैष्णवीने उनसे कहा-'देवतागण! आपलोग कोई उत्तम वर माँग लें।'

देवता बोले-पुण्यस्वरूपिणी देवि! आपके इस स्तोत्रका जो पुरुष पाठ करेंगे, उनकी आप सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करनेकी कृपा करें। यही हमारा अभिलषित वर है। इसपर सर्वदेवमयी देवीने उन देवताओंसे 'एवमस्तु' कहकर वहाँसे उनको विदा कर दिया और स्वयं वहीं विराजमान रहीं। धराधरे! यह देवीके दूसरे स्वरूपका वर्णन हुआ। जो इसे जान लेता है, वह शोक-दुःख एवं दोषोंसे मुक्त होकर भगवतीके अनामयपदको प्राप्त करता है।