98-सत्यतपाका शेष वृत्तान्त

पृथ्वी बोली-भगवन्! सत्यतपा नामक व्याध, जो पीछे ब्राह्मण हो गया था और जिसने अपनी शक्तिद्वारा बाघके भयसे आरुणि मुनिकी रक्षा की थी और जो दुर्वासाजीसे वेद-पुराण सुनकर हिमालयपर्वतपर चला गया था, आपने उसके भविष्यमें कोई विचित्र घटना घटनेकी बात बतलायी थी। विभो! मुझे उस घटनाको जाननेकी उत्सुकता हो रही है। कृपया आप उसे बतानेकी कृपा कीजिये।।

भगवान् वराह बोले-वसुंधरे! वास्तवमें बात यह है कि सत्यतपा भृगुवंशमें उत्पन्न शुद्ध ब्राह्मण ही था। उसी जन्ममें फिर उसका डाकुओंका साथ हो गया, जिसके कारण वह व्याध बन गया। बहुत दिन बीत जानेके पश्चात् 'आरुणिऋषि'का सङ्ग उसे सुलभ हुआ। अत: फिर उसमें ब्राह्मणत्व आ गया। दुर्वासाजीके द्वारा भलीभाँति उपदेश ग्रहणकर फिर वह पूर्ण ब्राह्मण बन गया। (अब आश्चर्यकी कथा आगे सुनो-)

पृथ्वीदेवि! हिमालयपर्वतके उत्तरी भागमें 'पुष्पभद्रा' नामकी एक पवित्र नदी है। उस दिव्य नदीके तीरपर 'चित्रशिला' नामसे विख्यात एक शिला है। वहीं एक विशाल वटका वृक्ष है, जो 'भद्र' नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ रहकर सत्यतपा तप करने लगे। एक दिनकी बात है, लकड़ी काटते समय कुल्हाड़ीसे उनके बायें हाथकी तर्जनी अंगुली कट गयी। वह अँगुली जड़से कटकर अलग हो गयी, तब उस कटे हुए स्थानसे भस्मका चूर्ण बिखर उठा। उस अंगुलीसे न रक्त गिरा, न मांस और न मज्जा ही दिखायी पड़ी। फिर उस ब्राह्मणने अपनी कटी हुई अँगुलीको पहले-जैसे जोड़ भी दिया और वह जुड़ भी गयी। उसी भद्रवटके वृक्षके ऊपर एक किंनरदम्पतिका निवास था, जो उस समय वृक्षके ऊपर बैठा हुआ इन सब विचित्र कार्योंको देख रहा था। इस घटनासे उनके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ। प्रात:काल वह इन्द्रलोकमें पहुँचा, जहाँ यक्ष, गन्धर्व, किंनर एवं इन्द्रके साथ सभी देवता विराजमान थे। वहाँ इन्द्रने उन सबसे कहा कि आप लोग कोई अपूर्व बात हुई हो तो बतलायें। रुद्र-सरोवरपर निवास करनेवाले उस किंनरदम्पतिने कहा-'पुष्पभद्राके पवित्र तटपर मैंने एक महान् आश्चर्य देखा है।' शुभे! फिर उसने सत्यतपासम्बन्धी अँगुलीके कटने तथा उस स्थानसे भस्म बिखरनेकी बात बतलायी। उसकी बात सुनकर सभी आश्चर्यसे भर गये और उसको प्रशंसा की। फिर इन्द्रदेवने भगवान् विष्णुसे कहा'प्रभो! आइये हमलोग हिमालयकी उस उत्तम घाटीमें चलें। वहाँ एक बड़े आश्चर्यकी घटना हुई है जिसे इस किंनरदम्पतिने बतलाया है।'

इस प्रकार बातचीत होनेके पश्चात् भगवान् विष्णुने वराहका रूप धारण किया और इन्द्रने अपना वेष एक व्याधका बनाया और दोनों सत्यतपा ऋषिके पास पहुँचे। वराहवेषधारी विष्णु उन ऋषिके आश्रमके सामने आकर घूमने लगे। वे कभी दीखते और कभी अदृश्य हो जाते। इतनेमें धनुषबाण हाथमें लिये हुए वधिकवेषधारी इन्द्रने ऋषिके सामने आकर कहा 'भगवन् ! आपने यहाँ एक बहुत विशाल शूकर अवश्य देखा होगा। आप कृपापूर्वक मुझे बतलायें तो मैं उसका वध कर डालूँ, जिससे अपने आश्रित जीवोंका भरण-पोषण कर सकूँ।' वधिकके ऐसा कहनेपर सत्यतपा मुनि चिन्तामें पड़ गये और विचार करने लगे-'यदि मैं इस वधिकको सूअर दिखला दूं तो यह उसे तुरंत मार डालेगा। यदि नहीं दिखाता तो इस वधिकका परिवार भूखसे महान् कष्ट पायगा, इसमें कोई संशय नहीं; क्योंकि यह वधिक अपनी स्त्री और पुत्रके साथ भूखसे कष्ट पा रहा है। इधर इस सूअरको बाण लग चुका है और वह मेरे आश्रममें आ गया है-ऐसी स्थितिमें मुझे क्या करना चाहिये?' इस प्रकार सोचते हुए, जब वे कोई निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि सहसा उनकी बुद्धिमें एक बात आ गयी-'गतिशील प्राणी आँखोंसे ही देखते हैं-देखना नेत्रेन्द्रियका ही कार्य है। बात बतानेवाली जीभ कुछ नहीं देखती। इस प्रकार देखनेवाली इन्द्रिय आँख है, जिह्वा नहीं, और जो जिह्वाका विषय है, उसे नेत्र तत्त्वतः प्रकाशित करने में असमर्थ है।' अतः इस विषयमें अब मैं निरुत्तर होकर चुप रहूँगा। सत्यतपाके मनके इस प्रकारके निश्चयको जानकर वधिकरूपी इन्द्र और सूअररूप बने हुए विष्णुइन दोनोंके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। अतः वे दोनों महापुरुष अपने वास्तविक रूपमें उनके सामने प्रकट हो गये। साथ ही सत्यतपा ऋषिसे यह वचन कहा-'ऋषिवर! हम दोनों तुमपर बहुत प्रसन्न हैं। तुम परम श्रेष्ठ वर माँग लो।' यह सुनकर उस ऋषिने कहा-'देवेश्वरो! इस समय मेरे सामने आपलोगोंने प्रत्यक्ष उपस्थित होकर साक्षात् दर्शन दिया, इससे बढ़कर पृथ्वीपर मुझे दूसरा कोई श्रेष्ठ वर नहीं दीखता। हाँ, यदि आप बलपूर्वक वर देकर मुझे कृतार्थ करना चाहते हैं तो मैं यही वर माँगता हूँ-'इस पर्वकालमें जो व्यक्ति यहाँ सदा ब्राह्मणोंकी भक्तिपूर्वक एक मासतक लगातार अर्चना करे उसके सभी पाप नष्ट हो जायँ। यही नहीं, उसका संचित पाप भी भस्म हो जाय। साथ ही मुझे भी मोक्ष प्राप्त हो जाय।'

वसुंधरे! विष्णु और इन्द्र-दोनों देवता 'ऐसा ही होगा' कहकर अन्तर्धान हो गये। वे ऋषि वर पाकर सर्वत्र परमात्माको देखते हुए वहीं स्थिर रहे। इसी समय उनके गुरु आरुणि आते दिखायी पड़े, जो तीर्थों में घूमते हुए भूमण्डलकी प्रदक्षिणा करके लौटे थे। मुनिवर आरुणिकी सत्यतपाने महान् भक्तिके साथ पूजा की, उनका चरण धोया और आचमन कराया तथा उन्हें गौएँ प्रदान की।

जब आरुणिजी आसनपर बैठ गये और भलीभाँति जान गये कि मेरा यह शिष्य सिद्ध हो गया है तथा तपस्यासे इसके पाप भस्म हो गये हैं तो उन्होंने सत्यतपासे कहा-'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले पुत्र! तपके प्रभावसे तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध हो गया है। तुममें ब्रह्मभावकी स्थिति हो गयी है। वत्स! अब उठो और मेरे साथ उस परम पदकी यात्रा करो, जहाँ जाकर फिर जन्म नहीं लेना पड़ता।' तदनन्तर मुनिवर आरुणि और सत्यतपावे दोनों सिद्ध पुरुष भगवान् नारायणका ध्यान करके उनके श्रीविग्रहमें लीन हो गये। जो भी व्यक्ति इस विस्तृत पर्वाध्यायके एक पादका भी श्रवण करता है या किसी अन्यको सुनाता है, उसे भी अभीष्ट गतिकी प्राप्ति होती है।