
इस प्रकार मायाके पराक्रमकी बातको सुनकर पृथ्वीने भगवान्से फिर पूछा।
पृथ्वी बोली-'भगवन्! आपने जिस 'कुब्जानक'-तीर्थकी चर्चा की, उसमें रहने तथा स्नानादि करनेसे जो पुण्य होता है, आप अब उसे मुझे बतानेकी कृपा कीजिये।
भगवान् वराह बोले-पृथ्वीदेवि! 'कुब्जाम्रक' तीर्थका जो सार-तत्त्व है, अब उसे मैं तुम्हें विस्तारसे बतला रहा हूँ। सुन्दरि! 'कुब्जाम्रक तीर्थकी जैसे उत्पत्ति हुई, जिस क्रमसे यह 'तीर्थ' बना, वहाँ जो अनुष्ठेय धर्म है तथा वहाँ प्राणत्याग करनेपर जिस लोककी प्राप्ति होती है, यह सब तुम ध्यान देकर सुनो। वसुंधरे! आदि सत्ययुगमें जब पृथ्वी जलमग्न थी, तब ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे मैंने मधु और कैटभ नामक राक्षसोंका वध किया
और ब्रह्मदेवकी रक्षा की। उसी समय मेरी दृष्टि अपने आश्रित भक्त रैभ्यमुनिपर पड़ी। वे अत्यन्त निष्ठासे सदा मेरी स्तुति-आराधनामें निरत रहते थे। वे युक्तिमान्, गुणी, परम पवित्र, कार्यकुशल और जितेन्द्रिय पुरुष थे और ऊपर बाँहें उठाकर दस हजार वर्षातक तपस्यामें संलग्न रहे। वे एक हजार वर्षांतक केवल जल पीकर तथा पाँच सौ वर्षांतक शैवाल खाकर तपस्या करते रहे। देवि! महात्मा रैभ्यकी इस तपस्यासे मेरा हृदय करुणासे अत्यन्त विह्वल हो उठा। उस समय हरिद्वारके कुछ उत्तर पहुँचकर मैंने एक आम्रके वृक्षका आश्रय लिया और उन मुनिको तपस्या करते देखा। मेरे आश्रय लेनेसे वह आम्र-वृक्ष थोड़ा कुबड़ा हो गया। मनस्विनि! इस प्रकार वह स्थान 'कुब्जाम्रक' नामसे प्रसिद्ध हो गया। यहाँपर (स्वतः) मरनेवाला व्यक्ति भी मेरे लोकमें ही रह जाता है। मैंने रैभ्यमुनिको कुबड़े आम्रवृक्षका रूप धारण कर दर्शन दिया था, फिर भी वे मुझे पहचान गये और घुटनोंके बल भूमिपर गिरकर मेरी स्तुति की। वसुंधरे! अपने व्रतमें अडिग रहनेवाले उन मुनिको इस प्रकार अपनी स्तुति तथा प्रणाम करते देखकर मैंने प्रसन्न मनसे उन्हें वर माँगनेके लिये कहा। मेरी बात सुनकर उन तपस्वीने मीठी वाणीमें कहा-'भगवन्! आप जगत्के स्वामी हैं और याचना करनेवालोंकी आशा पूर्ण करते हैं। भगवन्! मधुसूदन !! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मैं यह चाहता हूँ कि जबतक यह संसार रहे तथा अन्य लोक रहें, तबतक आपका यहाँ निवास हो और जनार्दन जबतक आप यहाँ स्थित रहें, तबतक आपमें मेरी निष्ठा बनी रहे। प्रभो! यदि आप मुझपर संतुष्ट हैं तो मेरा यह मनोरथ पूर्ण करनेकी कृपा कीजिये।' वसुंधरे! उस समय ऋषिवर रैभ्यकी बात सुनकर पुन: मैंने कहा-'ब्रह्मर्षे! बहुत ठीक। ऐसा ही होगा।' फिर उन ब्राह्मणने बड़े हर्षके साथ मुझसे कहा-'प्रभो! आप इस प्रधान तीर्थकी महिमा भी बतलानेकी कृपा करें और मैं उसे सुनें। यही नहीं, इस क्षेत्रमें अन्य भी जितने क्षेत्र हैं, उनका भी आप माहात्म्य बतलायें।' देवि! तब मैंने कहा-'ब्रह्मन् ! तुम मुझसे जो पूछ रहे हो, वह विषय तत्त्वपूर्वक सुनो। मेरा 'कुब्जाम्रक'तीर्थ परम पवित्र स्थान है। इसका सेवन करनेसे सभी सुख सुलभ हो जाते हैं। यह कुब्जाम्रक' तीर्थ कुमुदपुष्पकी आकृतिमें स्थित है। यहाँ केवल स्नान करनेसे मानव स्वर्ग प्राप्त कर लेता है। कार्तिक, अगहन एवं वैशाख मासके शुभ अवसरपर जो पुरुष यहाँ दुष्कर धर्मोंका अनुष्ठान करता है, वह स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक ही क्यों न हो-अपने प्राणोंका. त्याग कर मेरे लोकको प्राप्त होता है।'
वसुंधरे! 'कुब्जाम्रक तीर्थमें जो दूसरा तीर्थ है, उसे भी बतलाता हूँ, सुनो। सुन्दरि! यहाँ 'मानस' नामसे मेरा एक प्रसिद्ध तीर्थ है। सुनयने! वहाँ स्नान कर मनुष्य इन्द्रके नन्दनवनमें जाता है और अप्सराओंके साथ देवताओंके वर्षसे एक हजार वर्षांतक वह आनन्दका उपभोग करता रहता है।
वसुंधरे ! अब यहाँके एक दूसरे तीर्थका वर्णन करता हूँ सुनो-वह स्थान 'मायातीर्थ के नामसे विख्यात है, जिसके प्रभावसे मायाकी जानकारी प्राप्त हो जाती है। उस तीर्थमें स्नान करनेवाला पुरुष दस हजार वर्षांतक मेरी भक्ति में रत रहता है। यशस्विनि! 'मायातीर्थ में जो प्राण छोड़ता है, महान् योगियोंके समान वह मेरे लोकको प्राप्त होता है।
देवी पृथ्वि! अब यहाँका एक दूसरा तीर्थ बतलाता हूँ-उस तीर्थका नाम 'सर्वकामिक' है। वैशाख मासकी द्वादशी तिथिके दिन जो कोई वहाँ स्नान करता है, वह पंद्रह हजार वर्षांतक स्वर्गमें निवास करता है। यदि इस 'सर्वकामिक' तीर्थमें वह प्राण त्याग करता है तो सभी आसक्तियोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होता है।
सुलोचने ! अब एक 'पूर्णमुख' नामक तीर्थकी महिमा बतलाता हूँ, जिसे कोई नहीं जानता। गङ्गाका जल इधर प्रायः सर्वत्र शीतल रहता है, किंतु यहाँ जिस स्थानपर गङ्गामें गर्म जल मिले, उसे ही 'पूर्णतीर्थ' समझना चाहिये। देवि! वहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य चन्द्रलोकमें प्रतिष्ठा पाता है और पंद्रह हजार वर्षोंतक उसे चन्द्र-दर्शनका -आनन्द मिलता है। फिर जब वह स्वर्गसे नीचे गिरता है तो ब्राह्मणके घर उत्पन्न होता है और मेरा पवित्र भक्त, कार्य-कुशल और सम्पूर्ण धर्म एवं गुणोंसे सम्पन्न होता है और अगहन महीनेके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन प्राण त्यागकर वह मेरे लोकमें पहुँचता है, जहाँ वह सदा मुझे चतुर्भुजरूपमें प्रकाशित देखता है तथा पुनः कभी जन्म और मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता।
वसुंधरे ! मैं अब पुनः एक दूसरे तीर्थका वर्णन करता हूँ। यहाँ वैशाख मासके शुक्लपक्षकी द्वादशीके दिन तप तथा धर्मके अनुष्ठानके पश्चात् अपने शरीरका त्याग करनेवाला पुरुष मेरे लोकको प्राप्त करता है, जहाँ जन्म-मृत्यु, ग्लानि, आसक्ति, भय तथा अज्ञानजनित अभिनिवेशादिसे उसे किसी प्रकारका क्लेश नहीं होता। अब मैं (ऋषिकेश)में ही स्थित एक दूसरे तीर्थकी बात बतलाता हूँ। वह 'करवीर' नामसे प्रसिद्ध है एवं सम्पूर्ण लोकोंको सुखी करनेवाला है। शुभे! अब उसका चिह्न भी बतलाता हूँ, जिसकी सहायतासे ज्ञानी पुरुष इसे पहचान सकें। सुन्दरि! माघ मासके शुक्ल पक्षकी द्वादशी तिथिके दिन मध्याह्न कालके समय इस 'करवीर'तीर्थमें कनेरके फूल खिल जाते हैं-यह निश्चय है। उस तीर्थमें स्नान करनेवाला मनुष्य स्वतन्त्रतापूर्वक सर्वत्र अव्याहतगमन करनेमें पूर्ण समर्थ हो जाता है। यदि माघ मासकी द्वादशी तिथिके दिन उस क्षेत्रमें किसीकी मृत्यु हो जाती है तो उसे ब्रह्मा, रुद्र और मेरे दर्शनका सौभाग्य प्राप्त होता है। वसुंधरे! अब एक दूसरे तीर्थका प्रसङ्ग सुनो। भद्रे! उस 'कुब्जाम्रकक्षेत्र' का यह स्थान मुझे बहुत प्रिय है। इस स्थानका नाम 'पुण्डरीकतीर्थ' है, जो महान् फल देनेकी शक्तिवाला है। सुमुखि! उस तीर्थका विशेष चिह्न बतलाता हूँ, सुनो-'सुन्दरि! द्वादशी तिथिके दिन मध्याह्नकालमें वहाँ रथके चक्केकी आकृतिवाला एक कछुआ विचरण करता है।' वसुमति ! अब तुमसे इसके विषयमें एक दूसरी बात बताता हूँ, उसे सुनो-'सुन्दरि! वहाँ अवगाहन करनेपर 'पुण्डरीकयज्ञ के अनुष्ठानका फल मिलता है। यदि वहाँ किसीकी मृत्यु होती है तो उसे दस 'पुण्डरीक' यज्ञोंके अनुष्ठानका फल प्राप्त होता है।' अब मैं 'कुब्जाम्रक' (ऋषिकेश)-में स्थित एक दूसरे-'अग्नितीर्थ की बात बतलाता हूँ, उसे सुनो-'देवि! द्वादशी तिथिके दिन पुण्यात्मा लोगोंको ही इस तीर्थकी स्थिति ज्ञात होती है। कार्तिक, अगहन, आषाढ़ एवं वैशाख मासके शुक्ल पक्षकी द्वादशीके दिन जो पुरुष उस तीर्थमें यत्नपूर्वक निवास करता है, वह उस तीर्थका रहस्य जान सकता है।' वसुंधरे! उस तीर्थका चिह्न यह है कि हेमन्त ऋतुमें तो वहाँका जल उष्ण रहता है, पर ग्रीष्म ऋतुमें वह शीतल हो जाता है। महाभागे! इसी विचित्रताके कारण इस स्थानका नाम 'अग्नितीर्थ' पड़ गया है।
देवि! अब एक दूसरे तीर्थका परिचय देता हूँ, उसका नाम 'वायव्य-तीर्थ' है। उस तीर्थमें जो स्नान करके तर्पण आदि कार्य करता है, उसे वाजपेय-यज्ञका फल प्राप्त होता है। यह वायव्यतीर्थ एक 'सरोवर के रूपमें है। वहाँ केवल पंद्रह दिनोंतक रहकर मेरी उपासना करते हुए जिसकी मृत्यु हो जाती है, उसका इस पृथ्वीपर पुनः जन्म या मरण नहीं होता। वह चार भुजाओंसे युक्त होकर मेरा सारूप्य प्राप्तकर मेरे लोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। उस 'वायव्य'तीर्थकी पहचान यह है कि वहाँ वनमें पीपलके ऐसे वृक्ष हैं, जिनके पत्ते
चौबीसों द्वादशियोंको निरन्तर हिलते ही रहते हैं। पृथ्वि! अब 'कुब्जाम्रक तीर्थके अन्तर्वर्ती 'शक्रतीर्थ'का परिचय देता हूँ। वसुंधरे ! वहाँ इन्द्र हाथमें वज्र लिये हुए सुशोभित रहते हैं। महातपे! उस तीर्थमें दस रात्रि उपवास रहकर जो मनुष्य मर जाता है, वह मेरे लोकको प्राप्त कर लेता है। इस शक्रतीर्थके दक्षिण भागमें पाँच वृक्ष खड़े हैं, यही उसकी पहचान है। देवि! वरुणदेवने बारह हजार वर्षांतक इस 'कुब्जाम्रक'-तीर्थमें तपस्या की थी। अतः यहाँ स्नान करनेसे व्यक्ति आठ हजार वर्षांतक वरुणलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। वहाँ ऊपरसे पानीकी एक धारा निरन्तर गिरती रहती है, यही उस तीर्थकी पहचान है।
पृथ्वि! उक्त 'कुब्जाम्रक'-तीर्थ (ऋषिकेश)में 'सप्तसामुद्रक' नामका भी एक श्रेष्ठ स्थान है। उस तीर्थमें स्नान करनेवाला धर्मात्मा मनुष्य तीन अश्वमेध-यज्ञोंका फल पा लेता है। यदि आसक्तिरहित होकर कोई प्राणी सात रातोंतक यहाँ निवास कर प्राणत्याग करता है तो वह मेरे लोकमें चला जाता है। सुन्दरि! अब उस 'सप्तसामुद्रक' तीर्थका लक्षण बताता हूँ, सुनो-'वैशाख मासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन वहाँ एक विशेष चमत्कार दीखता है। उस दिन उस तीर्थमें गङ्गाका जल कभी तो दूधके समान उज्ज्वल वर्णका दीखता है और कभी पुन: उसी जलमें पीले रंगकी आभा प्रकट हो जाती है। फिर वही कभी लाल रंगमें परिणत हो जाता है और फिर थोड़ी देर बाद ही उसमें मरकतमणि तथा मोतीके समान झलक आने लगती है। आत्मज्ञानी पुरुष इन्हीं चिह्नोंसे उस तीर्थका ज्ञान प्राप्त करते हैं।'
शुभाङ्गि! कुब्जाम्रक तीर्थके मध्यवर्ती एक अन्य महान् तीर्थका अब तुम्हें परिचय देता हूँ। भगवान्में भक्ति रखनेवाले समस्त पुरुषोंके प्रिय उस तीर्थका नाम 'मानसर' है। उसमें स्नान करनेपर मानवको मानसरोवरमें जानेका सौभाग्य प्राप्त होता है। वहाँ इन्द्र, रुद्र एवं मरुद्गण आदि सम्पूर्ण देवताओंका उसे दर्शन मिलता है। वसुंधरे ! इस तीर्थमें यदि कोई मनुष्य तीस रात्रियोंतक निवासकर मृत्युको प्राप्त होता है तो वह सम्पूर्ण सङ्गोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त करता है। अब 'मानसर'-तीर्थका स्वरूप बतलाता हूँ, जिससे मनुष्योंको उसकी पहचान हो जायजानकारी प्राप्त हो सके। वह तीर्थ पचास कोसके विस्तारमें है।
अब तुम्हें एक दूसरी बात बताता हूँ, उसे सुनो। इस 'कुब्जाम्रक-तीर्थ' में बहुत पहले एक महान अद्धत घटना घट चुकी है। उसका प्रसङ्ग यह है-जहाँ मेरे भोगकी सामग्री रखी पड़ी रहती थी, वहीं एक सर्पिणी निर्भय होकर निवास करती थी। वह अपनी इच्छासे चन्दन, माला आदि पूजनकी वस्तुओंको खाया करती। इतनेमें ही एक दिन वहाँ कोई नेवला आ गया और उसने स्वच्छन्दतासे आनन्द करनेवाली उस सर्पिणीको देख लिया। अब उस नेवले और सर्पिणीमें भयंकर युद्ध छिड़ गया। उस दिन माघ मासकी द्वादशी तिथि थी और दोपहरका समय था। यह संघर्ष मेरे उस मन्दिरमें ही पर्याप्त समयतक चलता रहा। अन्तमें सर्पिणीने नेवलेको डस लिया, साथ ही विषदिग्ध नेवलेने भी उस सर्पिणीको तुरंत मार गिराया। इस प्रकार वे दोनों आपसमें लड़कर मर गये। अब वह नागिन प्राग्ज्योतिषपुर (आसाम)-के राजाके यहाँ एक राजकुमारीके रूपमें उत्पन्न हुई। इधर उसी समय कोसलदेशमें उस नेवलेका भी एक राजाके यहाँ जन्म हुआ। देवि! वह राजकुमार रूपवान्, गुणवान् और सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञाता तथा सभी कलाओंसे युक्त था। दोनों अपने-अपने घर सुखपूर्वक रहते हुए इस प्रकार बढ़ने लगे, जैसे शुक्लपक्षका चन्द्रमा प्रतिरात्रि बढ़ता दीखता है। पर वह कन्या यदि कहीं किसी नेवलेको देख लेती तो तुरंत उसे मारनेके लिये दौड़ पड़ती। इसी प्रकार इधर राजकुमार भी जब किसी नागिन या साँपिनको देखता तो उसे मारनेके लिये तुरंत उद्यत हो जाता। कुछ दिन बाद मेरी |कृपासे कोसल देशके राजकुमारने ही उस कन्याका | पाणिग्रहण किया और इसके बाद वे दोनों लाक्षा एवं काष्ठकी तरह एक साथ रहने लगे। जान | पड़ता था, मानो इन्द्र और शची नन्दनवनमें विहार कर रहे हों। | वसुंधरे! इस प्रकार उस राजकुमार एवं राजकुमारीके परस्पर प्रेमपूर्वक रहते हुए पर्याप्त समय व्यतीत हो गये। वे दोनों उपवनमें एक साथ आनन्दपूर्वक इस प्रकार विहार करते, मानो समुद्र और उसकी वेला (तटी)। इस प्रकार पूरे सतहत्तर वर्ष व्यतीत हो गये। मेरी मायासे मोहित होनेके कारण वे दोनों एक-दूसरेको पहचान भी न सके। एक समयकी बात है, वे दोनों ही उपवनमें घूम रहे थे कि राजकुमारकी दृष्टि एक सर्पिणीपर पड़ी और वह उसे मारनेके लिये तैयार हो गया। राजकुमारीके मना करते रहनेपर भी वह अपने विचारोंसे विचलित न हुआ और उसने उस सर्पिणीको मार ही डाला। अब राजकुमारीके मनमें प्रतिक्रियास्वरूप भीषण रोष उत्पन्न हो गया। किंतु वह कुछ बोल न पायी। इधर उसी समय राजपुत्रीके सामने बिलसे एक नेवला निकला और भोजनके लिये किसी सर्पकी खोजमें इधर-उधर घूमने लगा। राजकुमारीने उसे देख लिया। यद्यपि नेवलेका दर्शन शुभ-सूचक है और वह नेवला केवल इधर-उधर घूम रहा था, फिर भी क्रोधके वशीभूत होकर राजकुमारी उसे मारने लगी। राजकुमारने उसे बहुत रोका, किंतु प्राग्ज्योतिषनरेशकी उस पुत्रीने शुभदर्शन नेवलेको मार ही डाला।
वसुंधरे! अब राजकुमारको बड़ा क्रोध हुआ, उसने राजकुमारीसे कहा-'देवि! स्त्रियोंके लिये पति सदा आदरका पात्र होता है और मैं तुम्हारा पति हूँ, किंतु तुमने मेरी बातको निष्ठुरतापूर्वक ठुकरा दिया। यह नेवला मङ्गलमय, शुभदर्शन प्राणी है और विशेषकर राजाओंकी यह प्रिय वस्तु है, इसका दर्शन शुभकी सूचना देता है। कहो तुमने इस मङ्गलस्वरूप नेवलेको मेरे मना करनेपर भी क्यों मार डाला?'
वसुंधरे ! इसपर प्राग्ज्योतिषनरेशकी वह कन्या कोसलनरेशके पुत्रसे रोष भरकर कहने लगी कि मेरे बार-बार रोकनेपर भी आपने उस सर्पिणीको मार डाला, अतएव मैंने भी सोके मारनेवाले इस नेवलेको मार डाला। वसुंधरे! राजकुमारीकी इस बातको सुनकर कठोर शब्दोंमें डाँटते हुए राजकुमारने उससे कहा-भद्रे! साँपके दाँत बड़े तीक्ष्ण तथा उसका विष बड़ा तीव्र होता है। उसे देखते ही लोग डर जाते हैं। यह दुष्ट प्राणी मनुष्य आदिको डस लेता है और उससे वे मर जाते हैं। अतः सबका अहित करनेवाले एवं विषसे भरे हुए इस जीवको मैंने मारा है। इधर प्रजाकी रक्षा करना राजाओंका धर्म है। जो बरे मार्गपर चलते हैं, उनकी उचित तथा कठोर दण्डोंद्वारा ताड़ना करना हमारा कर्तव्य है। जो निरपराध साधुओं एवं स्त्रियोंको भी क्लेश पहुंचाते हैं, वे भी यथार्थराजधर्मके अनुसार दण्डके पात्र हैं और वधके योग्य हैं। मुझे तो राजधर्मोंका पालन करना ही चाहिये, पर मुझे तुम यह तो बताओ कि इस नेवलेका क्या अपराध था? यह दर्शनीय एवं सुन्दर रूपवाला था। यह राजाओंके घरमें पालने योग्य तथा शुभदर्शन और पवित्र माना जाता है, फिर भी तुमने इसे मार डाला। तुमने मेरे बार-बार मना करनेपर भी इस नेवलेको मारा है, अतएव अबसे तुम मेरी पत्नी नहीं रही और न अब मैं ही तुम्हारा पति रह गया। अधिक क्या? स्त्रियाँ सदा अवध्य बतलायी गयी हैं, इसी कारण मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ और तुम्हारा वध नहीं करता।
देवि! राजकुमारीसे इस प्रकार कहकर राजकुमार अपने नगर लौट गया। क्रोधके कारण उन दोनोंका परस्परका सारा स्नेह नष्ट हो गया। धीरेधीरे मन्त्रियोंद्वारा यह बात कोसलनरेशको विदित हुई तो उन्होंने उन मन्त्रियोंके सामने ही द्वारपालोंको आज्ञा देकर राजकुमार और वधूको आदरपूर्वक बुलवाया। पुत्र और पुत्रवधूको अपने पास उपस्थित देखकर राजाने कहा-"पुत्र! तुमलोगोंमें जो परस्पर अकृत्रिम और अपूर्व स्नेह था, वह सहसा कहाँ चला गया? तुम लोग परस्पर अब सर्वथा विरुद्ध कैसे हो गये? पुत्र! यह राजकुमारी कार्यकुशल, सुन्दर स्वभाववाली एवं धर्मनिष्ठ है। आजसे पहले इसने हमारे परिवार में भी कभी किसीको अप्रिय वचन नहीं कहा है, अत: तुम्हें इसका परित्याग कदापि नहीं करना चाहिये। तुम राजा हो, तुम्हारा राजधर्म ही मुख्य धर्म है
और उसका पालन स्त्रीके सहारे ही हो सकता है। अहो! लोगोंका यह कथन परम सत्य ही है कि 'स्त्रियोंके द्वारा ही पुत्र एवं कुलका संरक्षण होता है।"
पृथ्वि! उस समय राजपुत्रने पिताकी बात आदरपूर्वक सुन ली और उनके दोनों चरणोंको पकड़कर वह कहने लगा-"पिताजी, आपकी पुत्रवधूमें कहीं कोई भी दोष नहीं है, किंतु इसने बार-बार रोकनेपर भी मेरे देखते-ही-देखते एक नेवलेको मार डाला। उसे सामने मरा पड़ा देखकर मुझे क्रोध आ गया और मैंने कह दिया कि 'अब न तो तुम मेरी पत्नी हो और न मैं तुम्हारा पति।' महाराज! बस इतना ही कारण है,
और कुछ नहीं।" पृथ्वि! इस प्रकार अपने पतिकी बात सुनकर प्राग्ज्योतिषपुरकी उस कन्याने भी अपने श्वशुरको सिर झुकाकर प्रणाम किया और कहने लगी-'इन्होंने एक सर्पिणीको जिसका कोई भी अपराध न था तथा जो अत्यन्त भयभीत थी, मेरे सैकड़ों बार मना करनेपर भी उसे मार डाला। सर्पिणीकी मृत्यु देखकर मेरे मनमें बड़ा क्षोभ और दुःख हुआ, पर मैंने इनसे कुछ भी नहीं कहा। बस यही इतनी-सी ही बात है।"
वसुंधरे ! उन कोसलदेशके राजाने अपने पुत्र और पुत्रवधूकी बात सुनकर सभाके बीचमें ही. उन दोनोंसे बड़ी मधुर वाणीमें कहना आरम्भ किया। वे बोले-'पुत्रि! इस राजकुमारने तो |सर्पिणीको मारा और तुमने नेवलेको, फिर इस बातको लेकर तुमलोग आपसमें क्यों क्रोध कर रहे हो? यह तो बतलाओ। पुत्र! नेवलेके मर जानेपर तुम्हें क्रोध करनेका क्या कारण है? अथवा राजकुमारी! यदि सर्पिणी मर गयी तो इसमें तुम्हारे क्रोधका क्या कारण है?'
उस समय कोसलनरेशको आनन्द देनेवाले उस यशस्वी राजकुमारने पिताकी बात सुनकर मधुर स्वरमें कहा-'महाराज! इस प्रश्नसे आपका क्या प्रयोजन है? आप इसे न पूछे। आपको जो कुछ पूछना हो, वह इस राजकुमारीसे ही पूछिये।' पुत्रकी बात सुनकर कोसलनरेशने कहा'पुत्र! बताओ। तुम दोनोंके बीच स्नेहविच्छेदका क्या कारण है? पुत्रोंमें जो योग्य होनेपर भी अपने पिताके पूछनेपर गोपनीय बात छिपा लेते हैं, वे अधम ही हैं, उन्हें तप्त-बालुकामय घोर रौरव नरकमें गिरना पड़ता है। किंतु जो शुभ अथवा अशुभ सभी बातोंको पिताके पूछनेपर बता देते हैं-ऐसे पुत्रोंको वह दिव्य गति मिलती है, जिसे सत्यवादी लोग पाते हैं। अतएव पुत्र! तुम्हें मुझसे वह बात अवश्य बतलानी चाहिये, जिसके कारण गुणशालिनी पत्नीके प्रति तुम्हारी प्रीति समाप्त हो गयी है।'
पिताकी यह बात सुनकर कोसलवासियोंके आनन्दको बढ़ानेवाले उस राजकुमारने जनसमाजमें स्नेह-सनी वाणीसे कहा-'पिताजी! यह सारा समाज यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर पधारे, कल प्रात:काल जो आवश्यक बात होगी, मैं आपसे निवेदन करूँगा।' रात्रिके समाप्त होनेपर प्रात:काल दुन्दुभियोंके शब्दोंसे तथा सूत, मागध एवं वन्दीजनोंकी वन्दनाओंसे कोसलनरेश जगाये गये। इतनेमें ही कमलके समान आँखोंवाला वह महान् यशस्वी राजकुमार भी स्नान कर मङ्गलद्रव्योंसहित राजद्वारपर उपस्थित हुआ। द्वारपालने राजाके पास पहुँचकर इसकी सूचना दी और कहा-'महाराज! आपके दर्शनकी लालसासे राजकुमार दरवाजेपर उपस्थित हैं।' उसकी बात सुनकर कोसलनरेश बोले-'कञ्चकिन्! मेरे साधुवादी पुत्रको यहाँ शीघ्र लाओ।'
नरेशके ऐसा कहनेपर उनकी आज्ञाके अनुसार द्वारपालने राजकुमारका वहाँ प्रवेश करा दिया। विनीत एवं शुद्धहृदय राजकुमारने पिताके महलमें जाकर उनके चरणोंमें सिर झुकाकर प्रणाम किया। पिताने भी आनन्दपूर्वक राजकुमारको 'जयजीव' कहकर दीर्घजीवी होनेका आशीर्वाद दिया और उन्होंने हँसकर अपने पुत्र राजकुमारसे कहा-'शुभोदय ! मैंने पहले तुमसे जो पूछा था, वह बात बताओ।' तब राजकुमारने अपने पितासे कहा-'महाराज! इसके बतलानेसे किसी अच्छे फलकी सम्भावना नहीं है, राजेन्द्र! यदि आप इसे सुननेके लिये उत्सुक ही हैं तो मेरे साथ 'कुब्जाम्रक' तीर्थमें चलनेकी कृपा करें। मैं इसे वहाँ चलकर आपको बतला दूंगा।'
सुनयने! उस समय राजाने पुत्रकी बात सुनकर उससे प्रेमपूर्वक कहा-'बेटा! बहुत ठीक।' फिर जब राजकुमार वहाँसे चला गया तो राजाने अपने उपस्थित मन्त्रिमण्डलसे मीठे स्वरमें कहा–'मन्त्रियो! आपलोग मेरी निश्चित की हुई एक बात सुनें, इस समय हम 'कुब्जानक' तीर्थमें जाना चाहते हैं, इसकी आपलोग शीघ्र व्यवस्था कर दें। शीघ्रातिशीघ्र हाथी, घोड़े, रथ आदि जुतवाये जायँ।' उस समय राजाकी बात सुननेके पश्चात् मन्त्रियोंने उत्तर दिया-'महाराज! आप इन सबोंको तैयार ही समझें।' ।
इसके बाद बड़े पुत्रकी अनुमतिसे राजाने अपने छोटे पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया और राजधानीसे चलकर सम्पूर्ण द्रव्यों तथा अन्त:पुरकी स्त्रियोंके साथ वे लोग बहुत दिनोंके बाद 'कुब्जाम्रक' नामक तीर्थमें पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उस तीर्थके नियमोंका पालन करते हुए अन्न-वस्त्र, सुवर्ण-गौ, हाथी-घोड़े और पृथ्वी आदि बहुत-से दान किये। इस प्रकार बहुत दिन व्यतीत हो जानेपर एक दिन राजाने राजकुमारसे पूछा-'वत्स! अब वह गोपनीय बात बताओ। तुमने कुल, शील और गुणोंसे सम्पन्न मेरी इस निर्दोष सुन्दरी पुत्रवधूका क्यों परित्याग कर दिया है?' इसपर राजकुमारने कहा-'इस समय आप शयन करें, प्रातःकाल यह सब बातें मैं आपको बतला दूंगा।'
रात बीत जानेके बाद प्रात:काल सूर्योदय होनेपर राजकुमारने गङ्गामें स्नानकर रेशमी वस्त्र धारण करके विधिपूर्वक मेरी पूजा की। तत्पश्चात् उस गुरुवत्सल राजकुमारने पिताकी प्रदक्षिणा कर यह वचन कहा-'पिताजी ! आइये, हमलोग वहाँ चलें, जहाँकी आप गोपनीय बातें पूछ रहे हैं। इसके बाद राजा, राजकुमार और कमलके समान नेत्रोंवाली वह राजकुमारी-सभी उस निर्माल्यकूटके पास पहुँचे, जहाँ वह पुरानी घटना घटी थी। राजपुत्र उस स्थानपर पहुँचकर अपने पिताके दोनों चरणोंको पकड़कर कहने लगा'महाराज! पूर्वजन्ममें मैं एक नेवला था और यहींसे थोड़ी ही दूरपर एक केलेके वृक्षके नीचे मेरा निवास था। एक दिन कालके चंगुलमें फँसकर मैं इस 'निर्माल्य-कूट' पर चला आया, जहाँ सुगन्धित द्रव्यों और विविध पुष्पोंको खाती हुई एक भयंकर विषवाली सर्पिणी विचर रही थी। उसे देखकर मुझे क्रोध आया और फिर सहसा मैंने उसपर आक्रमण कर दिया। महाराज ! इस प्रकार उसके साथ मेरा भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया। उस दिन माघमासकी द्वादशी तिथि थी। किसीने भी हमलोगोंको नहीं देखा। उस समय यद्यपि मैं युद्ध करते हुए अपने शरीरकी रक्षापर भी ध्यान रखता था; फिर भी उस सर्पिणीने मेरी नाकके छिद्र में डंस लिया। इस प्रकार विषदिग्ध होनेपर भी मैंने उस सर्पिणीको मार ही डाला। अन्ततः हम दोनोंकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद मैं आप (कोसलदेश राजा) के घरमें एक राजपुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। राजन्! यही कारण है कि क्रोधवश मैंने उस सर्पिणीको मार डाला था।'
राजकुमारकी बात समाप्त होते ही राजकुमारी भी कहने लगी-'महाराज ! मैं ही पूर्वजन्ममें इस 'निर्माल्यकूट'-क्षेत्रमें रहनेवाली वह सर्पिणी थी। उस लड़ाईमें मरकर मैं प्राग्ज्योतिषनरेशके यहाँ कन्याके रूपमें उत्पन्न होकर आपकी पुत्रवधू हुई। राजन्! मेरी मृत्युके कारणभूत प्राक्तन तमोमय संस्कारोंकी स्मृति मेरे जीवात्मापर बनी थी, अतः मैंने भी उस नेवलेको मार डाला। प्रभो! यही वह गोपनीय रहस्य है।' वसुंधरे! इस प्रकार पुत्रवधू और पुत्रकी बात सुनकर राजा सर्वथा निर्विण्ण हो गये और वे वहाँसे पुन: 'माया-तीर्थ' में चले गये और वहीं उनके जीवनका अन्त हुआ। उस राजकुमारी तथा राजकुमारने भी 'पुण्डरीक-तीर्थ' में पहुंचकर मनका निग्रहकर प्राणोंका त्याग किया और वे उस श्रेष्ठ स्थानपर पहुँच गये, जहाँ भगवान् जनार्दन सदा विराजमान रहते हैं। इस प्रकार राजा, राजकुमार और यशस्विनी राजकुमारी कठिन तपके द्वारा कर्मबन्धनको विच्छिन्न कर श्वेतद्वीपमें पहुँचे और उनका सारा परिवार भी महान् पुण्यके द्वारा परम सिद्धिको प्राप्तकर श्वेतद्वीप पहुँच गया।
देवि! यह मैंने तुमसे 'कुब्जाम्रक'-तीर्थकी महिमा बतलायी। इसका वर्णन मैंने उन ब्राह्मणश्रेष्ठ रैभ्यसे भी किया था। यह बहुत पवित्र प्रसङ्ग है। चारों वर्गों का कर्तव्य है कि वे इसका पठन एवं चिन्तन करें। इसे मूर्ख, गोहत्या करनेवाले, वेद-वेदाङ्गके निन्दक, गुरुसे द्वेष करनेवाले और शास्त्रोंमें दोष देखनेवाले व्यक्तिके सामने कभी नहीं कहना चाहिये। इसे भगवान्के भक्तों तथा वैष्णव-दीक्षा-सम्पन्न पुरुषों के सामने ही कहना चाहिये। पृथ्वि! जो प्रातःकाल उठकर इसका पाठ करता है, वह अपने कुलके आगे-पीछेकी दस-दस पीढ़ियोंको तार देता है। देवि! अपने भक्तोंकी सुख-प्राप्तिके लिये मैंने 'कुब्जाम्रक-तीर्थ' के अन्तर्वर्ती स्थानोंका वर्णन किया, अब तुम दूसरी कौन-सी बात पूछना चाहती हो, वह कहो।