73-वैराज-वृत्तान्त

भगवान् रुद्र कहते हैं-द्विजवर! अब एक दूसरा प्रसङ्ग कहता हूँ, सुनो। मुनिश्रेष्ठ! इसमें बड़े कौतूहलकी बात है। जिस समय मैं जलमें था, तब यह घटना घटी थी। विप्रवर! सर्वप्रथम ब्रह्माजीने मेरी सृष्टि करके कहा-'तुम प्रजाओंकी रचना करो', किंतु इस कार्यकी जानकारी मुझे प्राप्त न थी। अतः मैं जलमें (तपस्या करनेके लिये) चला गया। जलमें गये अभी एक क्षण ही हुआ था-ज्यों ही मैं पैठता हूँ, त्यों ही परम प्रभु परमात्माकी मुझे झाँकी मिली। उन पुरुषकी आकृति केवल अंगूठेके बराबर थी। मैं मनको सावधान करके उनका ध्यान करने लगा। इतने में ही जलसे ग्यारह पुरुष निकल आये। उनकी ऐसी प्रतिभा थी, मानो प्रलयकालकी अग्नि हो। वे अपनी किरणोंसे जलको संतप्त कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा-'आपलोग कौन हैं, जो जलसे निकलकर अपने तेजसे इस पानीको अत्यन्त तप्त कर रहे हैं? साथ ही यह भी बतायें कि आप कहाँ जायँगे?'

इस प्रकार मेरे पूछनेपर उन आदरणीय पुरुषोंने कुछ भी न कहा। वे सभी परम प्रशंसनीय ब्राह्मण थे। बिना कुछ कहे ही वे चल पड़े। तदनन्तर उनके जानेके कुछ ही क्षण बाद एक अत्यन्त महान् पुरुष आये, जिनकी आकृति बहुत सुन्दर थी। उनके शरीरका वर्ण मेघके समान श्यामल था और आँखें कमलके तल्य थीं। मैंने उनसे पूछा-'पुरुषप्रवर! आप कौन हैं तथा जो अभी गये हैं, वे पुरुष कौन हैं? आपके यहाँ आनेका क्या प्रयोजन है? बतानेकी कृपा करें।'

पुरुषने कहा-ये पुरुष, जो पहले आकर चले गये हैं, इनका नाम आदित्य है। ये बड़े तेजस्वी हैं। ब्रह्माजीने इनका ध्यान किया है, अतः ये यहाँसे चले गये। कारण, इस समय ब्रह्माजी संसारकी रचना कर रहे हैं। इस अवसरपर उन्हें इनकी आवश्यकता है। देव! ब्रह्माके सृजन किये हुए जगत्की रक्षाका भार इनपर अवलम्बित होगा-इसमें कोई संशय नहीं है।

श्रीरुद्र बोले-भगवन् ! आप महान् पुरुषोंके भी सिरमौर हैं। मैं आपको कैसे जानें! आप अपने नाम तथा स्वरूपका परिचय बताते हुए सभी प्रसङ्ग बतानेकी कृपा कीजिये; क्योंकि मुझे आपके सम्बन्धमें अभी कोई ज्ञान नहीं है।

इस प्रकार भगवान् रुद्रके पूछनेपर उस पुरुषने उत्तर दिया-'मैं भगवान् नारायण हूँ। मेरी सत्ता सदा सर्वत्र रहती है। मैं जलमें शयन करता हूँ। मैं आपको दिव्य आँखें दे रहा हूँ, आप मुझे अब देख सकते हैं। जब उन्होंने मुझसे ऐसी बात कही तब मैंने उनपर पुनः दृष्टि डाली। इतनेमें जिनकी आकृति केवल अँगूठेके बराबर थी, वे अब विराटूपमें दीखने लगे। उनका वह तेजस्वी विग्रह प्रदीप्त था। उनकी नाभिमें मैंने कमलका दर्शन किया। सूर्यके समान वहीं ब्रह्माजी भी दिखायी पड़े तथा उनके समीप ही मैंने स्वयं

अपनेको भी देखा। उन परमात्माको देखकर मेरा मन आनन्दसे भर गया। विप्रवर! तब मेरे मनमें ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई कि इनकी स्तुति करूँ। सुव्रत! फिर तो निश्चित विचार हो जानेपर मैं इस स्तोत्रसे उन विश्वात्मा परम प्रभुकी आराधना करने लगा-मुझमें तपस्याका बल था, इसीसे इस शुभ कर्मकी ओर मेरी बुद्धि प्रवृत्त हुई।'

मैं (रुद्र)-ने कहा-जिनका अन्त नहीं है, जो विशुद्ध चित्तवाले, सुन्दर रूपधारी, सहस्त्र भुजाओंसे सुशोभित एवं अनन्त किरणोंके आकर हैं तथा जिनका कर्म महान् शुद्ध और देह परम विशाल है, उन परब्रह्म परमात्माके लिये मेरा नमस्कार है। अखिल विश्वका दु:ख दूर करना जिनका सहजस्वभाव है, जो सहस्र सूर्य एवं अग्निके समान तेजस्वी हैं, सम्पूर्ण विद्याएँ जिनमें आश्रय पाती हैं तथा समस्त देवता जिन्हें निरन्तर नमस्कार करते हैं, उन चक्र धारण करनेवाले कल्याणके स्रोत प्रभुके लिये मेरा नमस्कार है। प्रभो! अनादिदेव, अच्युत, शेषशायी, विभु, भूतपति, महेश्वर, मरुत्पति, सर्वपति, जगत्पति, भुव:पति और भुवनपति आदि नामोंसे भक्तजन आपको सम्बोधित करते हैं। ऐसे आप भगवान्के लिये मेरा नमस्कार है। नारायण! आप जलके स्वामी, विश्वके लिये कल्याणदाता, पृथ्वीके स्वामी, संसारके संचालक, जगत्के लोचनस्वरूप, चन्द्रमा एवं सूर्यका रूप धारण करनेवाले, विश्वमें व्याप्त, अच्युत एवं परम पराक्रमी परुष हैं। आपकी मूर्ति तर्कका विषय नहीं है और आप अमृत-स्वरूप तथा अविनाशी हैं। नारायण! प्रचण्ड अग्निकी लपटें आपके श्रीविग्रहकी समता करने में असफल हैं। आपके मुख चारों ओर हैं। आपकी कृपासे देवताओंका महान् दु:ख दूर हुआ है। सनातन प्रभो! आपके लिये नमस्कार है, मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये। विभो! आपके अनेक स्वरूपोंका मुझे दर्शन हो रहा है। आपके भीतर जगत्का निर्माण करनेवाले सनातन ब्रह्मा तथा ईश दिखायी पड़ रहे हैं, उन आप परम पितामहके लिये मेरा नमस्कार है। संसाररूपी चक्रमें भटकनेवाले परम पवित्र अनेक साधक उत्तम मार्गपर चलते हुए भी आपकी आराधनामें जब कथंचित् (किसी प्रकार) सफल होते हैं। तब आदिदेव! ऐसे आप प्रभुकी आराधना करनेकी मुझमें शक्ति ही कहाँ है, अत: देवेश्वर! मैं आपको केवल प्रणाम करता हूँ। आदिदेव! आप प्रकृतिसे परे एकमात्र पुरुष हैं। जो सौभाग्यशाली पुरुष आपके इस स्वरूपको जानता है, उसे सब कुछ जाननेकी क्षमता प्राप्त हो जाती है। आपकी मूर्ति बड़ी-से-बड़ी और छोटी-से-छोटी है। आपके स्वरूपोंमें जो गुण हैं, वे हठपूर्वक विभाजित नहीं किये जा सकते। भगवन् ! आप वागिन्द्रियके मूलकारण, अखिल कर्मसे परे और विश्वात्मा हैं। आपका यह श्रेष्ठ शरीर विशुद्ध भावोंसे ओत-प्रोत है। आपकी उपासनामें संसारके बन्धन काटनेकी शक्ति है। उसीके द्वारा आपका सम्यक् ज्ञान सम्भव है। साधारण पुरुषकी बात तो दूर देवता भी आपको जान नहीं पाते। फिर भी तपस्याद्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जानेसे मैं आपको कवि, पुराण एवं आदिपुरुषके रूपमें जाननेमें सक्षम हुआ हूँ। मेरे पिता ब्रह्माजीने सृष्टिके अवसरपर बारंबार वेदोंकी सहायता ली है। अतएव उनका भी चित्त परम शुद्ध हो गया है। प्रभो! मुझ-जैसा व्यक्ति तो आपको पुकारनेमें भी असमर्थ है; क्योंकि आप ब्रह्मप्रभृति प्रधान देवताओंसे भी अगम्य कहे जाते हैं। अतएव वे देवताका रूप धारण करके आपको अनेकों बार प्रणाम करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप तपोरहित होनेपर भी उन्हें आपकी जानकारी प्राप्त हो जाती है। देवताओंमें भी बहुत-से उदार कीर्तिवाले हैं। किंतु भक्तिका अभाव होनेसे आपको जाननेकी उनके मनमें इच्छा ही नहीं होती है। प्रभो! अभक्त वेदवादियोंको भी कई जन्मतक विवेक नहीं होता। आपकी कृपासे उन्हें ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो जाय-इसके लिये मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। जिसे आप प्राप्त हो जाते हैं, उसे किसी वस्तुकी अपेक्षा क्या है। यही नहीं, उसे देवता और गन्धर्वकी भी शरण नहीं लेनी पड़ती, वह स्वयं कल्याणस्वरूप हो जाता है। यह सारा संसार आपका ही रूप है। आप महान्, सूक्ष्म तथा स्थूलस्वरूप हैं। आदिप्रभो! यह जगत् आपका ही बनाया हुआ है।

भगवन्! आप कभी महान् रूप तथा कभी स्थूलरूप धारण कर लेते हैं और कभी आपका रूप अत्यन्त सूक्ष्म हो जाता है। आपके विषयमें भिन्न विचार होनेसे मानव मोह-क्लेशमें पड़ता है। अब जब आप स्वयं प्रत्यक्ष पधारे हैं तब अधिक कहना ही क्या है? वसु, सूर्य, पवन एवं पृथ्वी सब आपमें ही स्थित हैं। आपका सदा समान रूप रहता है, आत्मारूपसे आप सर्वत्र विराजते हैं, व्यापकता आपका स्वभाव है। सत्त्वगुण आपकी शोभा बढ़ाते हैं, आप अनन्त एवं सम्पूर्ण ऐश्वर्योंसे सम्पन्न हैं। आप मुझपर प्रसन्न होनेकी कृपा कीजिये।

भगवान् वराह कहते हैं-वसुंधरे! अमित तेजस्वी महाभाग रुद्रने जब भगवान् श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति की तब वे संतुष्ट हो गये। फिर तो मेघके समान गम्भीर वाणीमें उन्होंने ये वचन कहे।

भगवान्विष्णु बोले-देवेश्वर! तुम्हारा कल्याण हो, उमापते! तुम वर माँगो। भगवन्! हममें भेद तो औपचारिकमात्र है। तत्त्वतः हम दोनों एक हैं।

रुद्रने कहा-प्रभो! पितामह ब्रह्माने सृष्टि करनेके लिये मेरी नियुक्ति की थी। मुझसे कहा था-'तुम प्रजाओंकी रचना करो।' प्राणियोंकी उत्पत्ति करनेवाले प्रभो! इस विषयमें आपसे तीन प्रकारका ज्ञान प्राप्त करना मेरे लिये परम आवश्यक है।

भगवान् विष्णुने कहा-रुद्र! तुम सनातन एवं सर्वज्ञ हो-इसमें कोई संदेह नहीं। तुम्हारे भीतर ज्ञानकी प्रभूत राशि है। तुम देवताओंके लिये सम्यक् प्रकारसे परम पूज्य बनोगे।

इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीहरिने स्वयं अपना रूप मेघका बना लिया। वे जलसे बाहर निकले और महाभाग रुद्रसे उन्होंने ये वचन कहे-'शम्भो! वे जो ग्यारह प्राकृत पुरुष थे, उनका नाम वैराज है। उन्हींको आदित्य कहते हैं। वे इस समय पृथ्वीपर गये हैं। उन्हें मेरा अंश जानना चाहिये। धरातलपर विष्णु-नामसे मैं हीबारह रूपोंमें अवतीर्ण होऊँगा। शंकरजी! इस प्रकार अवतार ग्रहणकर वे सभी आपकी आराधना करेंगे।' ऐसा कहकर वे भगवान् नारायण स्वयं अपने ही अंशसे एक दिव्य बादलकी रचनाकर आकाशसे अद्भुत शब्दकी तरह पता नहीं, कहाँ अन्तर्धान हो गये।

भगवान् रुद्र कहते हैं-ऐसी शक्तिसे सम्पन्न, सर्वत्र विचरनेवाले तथा सम्पूर्ण प्राणियोंकी सष्टि करनेमें परम कुशल श्रीहरिने उस समय मुझे इस प्रकारका वर दिया था। अतएव मैं देवताओंसे श्रेष्ठ हुआ। वस्तुत: भगवान् नारायणसे श्रेष्ठ कोई देवता न हुआ है और न होगा। सज्जन श्रेष्ठ ! पुराणों और वेदोंका यही रहस्य है। मैंने आपलोगोंके सामने यह सब प्रसङ्ग बता दिया, जिससे सुस्पष्ट हो जाता है कि इस जगत्में एकमात्र भगवान् श्रीहरिकी ही उपासना की जानी चाहिये।