
पुरोहित होताजी कहते हैं-राजन्! अब क्षीरधेनु-दानकी विधि सुनो-राजेन्द्र! गायके गोबरसे लिपी गयी पवित्र भूमिपर 'गोचर्म' मात्र प्रमाणमें सब ओर कुशाएँ बिछा दे। उसके ऊपर विवेकी पुरुष कृष्णमृगका चर्म रखे। उसपर गायके गोबरसे एक विस्तृत कुण्डिकाका निर्माण करे और वहाँ दूधसे भरा हुआ एक घड़ा रखे। उसके चौथाई भागवाला कलश बछड़ेके स्थानमें रखे, जिसका मुख सोनेका एवं सींग चन्दन तथा अगुरु-काष्ठके बने हों। कानोंके स्थानमें वृक्षके उत्तम पत्ते रखे। इस कुम्भके ऊपर तिलका पात्र रखनेका विधान है। गुड़से उसके मुखकी, शर्करासे जिह्वाकी, उत्तम फलोंसे दाँतोंकी और मोतियोंसे -आँखोंकी रचना करनी चाहिये। उसके ईखके चरण, कुशके रोयें और ताँवेकी पीठ बनायी जाय। सफेद कम्बलसे उसका गलकम्बल बनाये और काँसेकी दोहनी उसके पासमें रख दे। रेशमके सूतोंसे उसकी मूंछ नया मक्खनसे उसका थन बनाये अथवा उसके सींग सोनेके एवं खुर चाँदीके हों। फिर पासमें पञ्चरत्न रखे। चारों दिशाओंमें तिलसे भरे हुए चार पात्र तथा सभी दिशाओंमें सप्तधान्य रखनेका नियम है। इस प्रकारके लक्षणोंसे सम्पन्न क्षीरधेनुकी कल्पना करनी चाहिये। फिर दो वस्त्रोंसे ढककर चन्दन और फूलोंसे उसकी पूजा करनी चाहिये। उसे वस्त्र आदिसे अलंकृत करके मुद्रिका और कानके कुण्डलसे भी सजाये। तत्पश्चात् धूप-दीप देकर वह क्षीरधेनु ब्राह्मणको अर्पण कर दे। दानके समय खड़ाऊँ, जूते और छाता भी दे। 'आप्यायस्व०' (तै०आर०३ । १७) इस वेदोक्त मन्त्रसे प्रार्थना करनेका नियम है। राजन्! पूर्वोक्त 'आश्रयः सर्वभूतानाम्०' तथा 'आप्यायस्व ममाङ्गानि०' इन मन्त्रोंको क्षीरधेनुका दान लेनेवाला ब्राह्मण भी पढ़े। यह इस दानकी विधि कही गयी है। इस प्रकार दी जानेवाली धेनुका जो दर्शन करते हैं, उन्हें भी परम गति प्राप्त होती है। इस दानके साथ अपनी शक्तिके अनुसार एक हजार अथवा सौ सोनेके सिक्के देने चाहिये। महाराज! 'क्षीरधेनु' देने से जो फल होता है, अब उसे सुनो-इसका दाता साठ हजार वर्षांतक इन्द्रलोकमें स्थान पाता है। फिर वह उत्तम माला और चन्दनसे सुशोभित होकर अपने पिता-पितामह आदिके साथ दिव्य विमानमें सवार होकर ब्रह्मलोकको जाता है। वहाँ वह बहुत दिनोंतक आनन्दका अनुभव करके फिर सूर्यके समान प्रकाशमान उत्तम विमानपर सवार होकर वह विष्णुलोकमें जाता है। जाते समय मार्गमें अप्सराएँ उसकी संगीत और वाद्योंसे सेवा करती हैं। वह विष्णुभवनमें बहुत दिनोंतक रहकर फिर श्रीविष्णुमें ही लीन हो जाता है। राजन्! जो पुरुष इस 'क्षीरधेनु'के प्रसङ्गको सुनता है अथवा भक्तिभावसे पढ़ता है, वह सब पापोंसे छूटकर विष्णुलोकमें चला जाता है।
पुरोहित होताजी कहते हैं-राजन् ! अब मैं तुम्हें 'दधिधेनु'का विधान बताता हूँ, सुनो। पहले गोबरसे 'गोचर्म के प्रमाणयुक्त पृथ्वीको लीपकर उसे पुष्पोंसे सुशोभित कर ले और उसपर कुशा बिछा देना चाहिये। फिर उसपर काला मृगचर्म और कम्बल बिछाकर पृथ्वीपर सप्तधान्य बिखेर दे और उसके ऊपर दहीसे भरा हुआ एक घड़ा रखे। उसके चौथाई भागमें बछड़ेके लिये छोटा कलश रखनेका विधान है। सोनेसे उसके मुखकी शोभा बनाये और दो वस्त्रोंसे आच्छादित करके फूल और चन्दनसे उसकी पूजा करे। तत्पश्चात् जो कुलीन एवं साधु स्वभावका हो तथा क्षमा आदि गुणोंसे युक्त हो-ऐसे बुद्धिमान् ब्राह्मणको वह दधिधेनु दान कर दे। धेनुके पुच्छभागमें बैठकर यह विधि सम्पन्न करनी चाहिये। अंगूठी और कानके भूषणोंसे अलंकृतकर खड़ाऊँ, जूता और छाता देकर 'दधिक्राव्णोरकारिषं०' (ऋक्० ४।३९।६)-यह मन्त्र पढ़कर भलीभाँति सुपूजित 'दधिधेनु'का दान करे। राजेन्द्र ! जिस दिन यह दधिमयी धेनु दे, उस दिन दही खाकर ही रह जाय। राजन्! यजमान एक दिन दहीके आहारपर रहे और ब्राह्मणको तीन रात्रियोंतक दहीके आहारपर रहना चाहिये। जो दधिधेनुके दान करते समय इस दृश्यको देखते हैं, उनको परम पदार्थ प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य श्रद्धाके साथ इस प्रसङ्गको सुनता अथवा किसी दूसरेको सुनाता है, वह भी अश्वमेध-यज्ञके फलको प्राप्तकर विष्णुलोकमें चला जाता है।